यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 77
दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। अश्र॑द्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृ॒तं मधु॑॥७७॥
स्वर सहित पद पाठदृ॒ष्ट्वा। रू॒पेऽइति॑ रू॒पे। वि। आ। अ॒क॒रो॒त्। स॒त्या॒नृ॒ते इति॑ सत्यऽअनृ॒ते। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। अश्र॑द्धाम्। अनृ॑ते। अद॑धात्। श्र॒द्धाम्। स॒त्ये। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धामनृते दधाच्छ्रद्धाँ सत्ये प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियँविपानँ शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॥
स्वर रहित पद पाठ
दृष्ट्वा। रूपेऽइति रूपे। वि। आ। अकरोत्। सत्यानृते इति सत्यऽअनृते। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। अश्रद्धाम्। अनृते। अदधात्। श्रद्धाम्। सत्ये। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। ऋतेन। सत्यम्। इन्द्रियम्। विपानमिति विऽपानम्। शुक्रम्। अन्धसः। इन्द्रस्य। इन्द्रियम्। इदम्। पयः। अमृतम्। मधु॥७७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ धर्माधर्मौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यः प्रजापतिर्ऋतेन स्वकीयेन सत्येन विज्ञानेन सत्यानृते रूपे दृष्ट्वा व्याकरोत्, योऽनृतेऽश्रद्धामदधात् सत्ये श्रद्धां च यश्चाऽन्धसो निवर्तकं शुक्रं विपानं सत्यमिन्द्रियं यश्चेन्द्रस्य प्रापकमिदं पयोऽमृतं मध्विन्द्रियं चाऽदधात्, स एव प्रजापतिः सर्वैरुपासनीयः॥७७॥
पदार्थः
(दृष्ट्वा) संप्रेक्ष्य (रूपे) निरूपिते (वि) (आ) (अकरोत्) करोति (सत्यानृते) सत्यं चानृतं च ते (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकः (अश्रद्धाम्) अप्रीतिम् (अनृते) अविद्यमानमृतं यस्मिँस्तस्मिन्नधर्मे (अदधात्) दधाति (श्रद्धाम्) श्रत् सत्यं दधाति यया ताम् (सत्ये) सत्सु भवे (प्रजापतिः) परमेश्वरः (ऋतेन) यथार्थेन (सत्यम्) (इन्द्रियम्) चित्तम् (विपानम्) विविधरक्षणम् (शुक्रम्) शुद्धिकरम् (अन्धसः) अधर्माऽऽचरणस्य नाशकम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो धर्मस्य प्रापकम् (इन्द्रियम्) विज्ञानसाधकम् (इदम्) (पयः) सुखप्रदम् (अमृतम्) मृत्युरोगात् पृथक्करम् (मधु) मन्तव्यम्॥७७॥
भावार्थः
ये मनुष्याः ईश्वराज्ञापितं धर्ममाचरन्ति, अधर्मं न सेवन्ते, ते सुखं लभन्ते। यदीश्वरो धर्माऽधर्मौ न ज्ञापयेत्, तर्ह्येतयोः स्वरूपविज्ञानं कस्यापि न स्यात्। य आत्मानुकूलमाचरणं कुर्वन्ति, प्रतिकूलं च त्यजन्ति, ते हि धर्माऽधर्मबोधयुक्ता भवन्ति, नेतरे॥७७॥
हिन्दी (4)
विषय
अब धर्म-अधर्म कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जो (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक परमेश्वर (ऋतेन) यथार्थ अपने सत्य विज्ञान से (सत्यानृते) सत्य और झूठ जो (रूपे) निरूपण किये हुए हैं, उनको (दृष्ट्वा) ज्ञानदृष्टि से देखकर (व्याकरोत्) विविध प्रकार से उपदेश करता है। जो (अनृते) मिथ्याभाषणादि में (अश्रद्धाम्) अप्रीति को (अदधात्) धारण करता और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम्) प्रीति को धारण कराता और जो (अन्धसः) अधर्माचरण के निवर्त्तक (शुक्रम्) शुद्धि करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षा के साधन (सत्यम्) सत्यस्वरूप (इन्द्रियम्) चित्त को और जो (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्त धर्म के प्रापक (इदम्) इस (पयः) अमृतरूप सुखदाता (अमृतम्) मृत्युरोगनिवारक (मधु) मानने योग्य (इन्द्रियम्) विज्ञान के साधन को धारण करे, वह (प्रजापतिः) परमेश्वर सब का उपासनीय देव है॥७७॥
भावार्थ
जो मनुष्य ईश्वर के आज्ञा किये धर्म का आचरण करते और निषेध किये हुए अधर्म का सेवन नहीं करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं। जो ईश्वर धर्म-अधर्म को न जनावे तो धर्माऽधर्म्म के स्वरूप का ज्ञान किसी को भी नहीं हो। जो आत्मा के अनुकूल आचरण करते और प्रतिकूलाचरण को छोड़ देते हैं, वे धर्माधर्म के बोध से युक्त होते हैं, इतर जन नहीं॥७७॥
विषय
सत्य के बल पर प्रजापालक की सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा का उपदेश ।
भावार्थ
(प्रजापतेः) प्रजा का पालक परमेश्वर, राजा और न्यायकर्त्ता, (ऋतेन) सत्य ज्ञान के बल से ( सत्यानृते रूपे ) सत्य और अनृत, सचः और झूठ दोनों के स्वरूपों को पृथक पृथक् विवेचना द्वारा (इष्ट्वा) देखकर (वि आ अकरोत् ) पृथक्-पृथक् उपदेश करता है । वह (अनृते) असत्य, सत्यज्ञान से रहित पदार्थ में ( अश्रद्धाम् ) अश्रद्धा, अप्रेम या अग्राह्य बुद्धि को ( अदधात् ) धारण करता और कराता है और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम् अदधात् ) श्रद्धा अर्थात् सत्य करके मानने की बुद्धि को धारण करता है । उसी प्रकार प्रजापालक राजा भी सत्य और असत्य को ( ऋतेन ) वेद के द्वारा निर्णय करा कर प्रकट करे और असत्य मन्तव्यों को अग्राह्य ठहरावे और सत्य में प्रेम, विश्वास और मान्यता बुद्धि उत्पन्न करे । (ऋतेन) सत्य, वेद द्वारा प्राप्त (सत्यम् ) सत्य पदार्थ (इन्द्रियम् ) आत्मा का हितकारी ( विपानम् ) विविध प्रकार से रक्षा करनेवाला, (शुक्रम्) आत्मा की शुद्धि करने वाला, (अन्धसः इन्द्रस्य) अन्धकार के निवर्त्तक ऐश्वर्यवान् आत्मा और परमेश्वर प्रभु का (इन्द्रियम् ) परम ऐश्वर्यं है जो (इदम् ) साक्षात् (पयः) पुष्टिकारी दूध के समान सुखप्रद, बुध्दिवर्धक, (अमृतम् ) जल के समान जीवनप्रद, मृत्यु के भय को हरनेवाला और (मधु) मधु के समान मधुर एवं ज्ञानरूप से मनन करने योग्य है । इसी प्रकार (ऋतेन) व्यवस्था ग्रन्थ के द्वारा प्राप्त (सत्यम् ) सत्य निर्णय या सज्जनों का हितकारी (इन्द्रियम् ) चक्षु के समान, मार्गदर्शक, मन के समान निर्णयकारक, (विपानम् ) प्रजा की विशेष पालक, (शुक्रम् ) शुद्ध, (अन्धसः इन्द्रस्य) अज्ञाननाशक राजा का (इन्द्रियम् ) विशेष ऐश्वर्य के समान शोभाकर है जो ( इदम् ) साक्षात् ( पयः ) सबको तृप्तिकारक, (अमृतम् ) अमर, अविनाशी और (मधु) दुष्टों का दमनकारी है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अश्व्यादयः । प्रजापतिः । अतिशक्वरी । पंचमः ॥
Bhajan
वैदिक भजन ११२३वां
राग छायानट
ताल अद्धा
पायें हम व्रत के द्वारा योग्यता
और आदर सत्कार
जागे उससे हमें सत्य पर श्रद्धा
आस्था का खुल जाए द्वार ।।
पाए हम..........
श्रद्धा ही है सत्य का कारण
श्रद्धा युक्त करें सत्य-धारण
जागती सत्य से आत्मा की प्रभा
पाते मनुष्य सत्कार ।।
पाएं हम.......
श्रद्धा से है सत्य संवृद्ध
अश्रद्धा अनृत में है स्थित
श्रद्धालु की शोभा सत्य में,
रहे सत्यव्रत ही आधार ।।
पायें हम..........
सत्य-असत्य दोनों के लक्षण
एक दूजे से रहे विमुख गुण
सत्य है सृष्टि नियमों का प्रापक
और अनृत में विकार ।।
पायें हम........
लज्जा भय संकोच अनृत में
आत्मा जाता अध:पतन में
मिटता जीवन का उत्साह
होता सतत् अपचार
पायें हम.........
श्रद्धा से तो सत्य ही जागे
और कुटिलता मन से भागे
बढ़े जीवन उन्नति से आगे
बढ़ जाए सदाचार ।।
पायें हम.........
शब्दार्थ:-
प्रभा= तेज, कान्ति
संवृद्ध=उन्नत,बढ़ा हुआ
विमुख=एक दूसरे से उलट
प्रापक= पाने वाला
अनृत=असत्य
आध:पतन=अत्यन्त गिरावट
अपचार=दोष,दुष्कर्म
कुटिलता= टेढ़ापन
सदाचार= सत्य आचरण
१९.७.२०२३
१२.०५ दोपहर
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का ११६ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२३ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐
Vyakhya
प्रिय सुधी श्रोताओ ❗आज श्रद्धा का रहस्य का छटा और अन्तिम वैदिक भजन आपकी सेवा में प्रस्तुत है। श्रद्धा के महत्व को समझते हुए, सच्चे श्रद्धालु बनते हुए,हम श्रद्धा के प्रति समर्पित होवें।
श्रद्धा का रहस्य-६
व्रत धारण--नियम धारण से मनुष्य को उत्तम अधिकार, योग्यता प्राप्त होती है। योग्यता से मनुष्य का आदर सत्कार होता है। आदर्श सरकार के कारण मनुष्य को सत्य पर श्रद्धा, निष्ठा, आस्था उत्पन्न होती है। उस आस्था के कारण मनुष्य सत्य को पा लेता है।
हमने ऋग्वेद १०.१५१.१ की व्याख्या में श्रद्धा का अर्थ किया है--' सत्य का धारण करना ' उसी भाव का वर्णन
'श्रद्धया सत्य माप्यते 'में है। मनुष्य का श्रद्धायुक्त होना सत्य का धारण करना है।
दृष्टवा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापति:
अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापति:
यजुर्वेद १९/७७
हमने पीछे लिखा है कि सत्यधारण का नाम श्रद्धा है। इस मन्त्र में अर्थों पर दृष्टि डालिये आपको हमारे कथन की पुष्टि मिलेगी। प्रमाण आदि से सुपरीक्षित, पक्षपात रहित सत्य ही श्रद्धा करने और मानने योग्य है।असत्य =अनृत= प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध , पक्षपातपूर्ण का त्याग करना चाहिए। सच्चा श्रद्धालु वही है जो सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सदा तत्पर रहता है।
सत्य और असत्य इन दोनों के रूप=लक्षण=चिन्ह पृथक्- पृथक् हैं। सत्य ऋजु=सरल और सृष्टि नियम के अनुकूल होता है। सत्याचरण करने से आत्मा में उत्साह पैदा होता है। असत्य कुटिल टेढ़ा होता है और वस्तु स्थिति के प्रतिकूल होता है। सत्याचरण करते समय चित्त में लज्जा, संकोच और भय उत्पन्न होते हैं।
लज्जा संकोच और भय मानव हमें असत्य आचरण से रोकते हैं। लज्जा संकोच भाई ने ही असत्य को अश्रद्धेय सिद्ध कर दिया। उसके विपरीत सत्याचरण से होने वाले उत्साह ने सत्य को श्रद्धा की वस्तु बना दिया।
विषय
न्याय
पदार्थ
१. (प्रजापतिः) = गतमन्त्र के अनुसार राजा पहला कार्य यह करता है कि राष्ट्र को सबल व क्रियाशील बनाकर सुरक्षित करता है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि राष्ट्र में विवाद करते हुए पुरुषों का वह उचित न्याय करता है। यह राजा (रूपे दृष्ट्वा) = दोनों पक्षों से निरूपण की गई बातों को सम्यक् देखकर उन बातों की प्रबलता व निर्बलता को तोलकर (सत्यानृते) = सत्य और अनृत को व्याकरोत् पृथक् पृथक् स्थापित करता है। 'यह पक्ष सत्य है' और 'यह पक्ष असत्य है' इस प्रकार दोनों का स्पष्ट विवेचन कर देता है। २. (प्रजापतिः) = प्रजा का रक्षक राजा प्रयत्न करता है कि वह प्रजा के अन्दर (अनृते अश्रद्धाम्) = अनृत में, झूठ में अश्रद्धा को अनास्था व अरुचि को तथा (सत्ये श्रद्धाम्) = सत्य में श्रद्धा को (अदधात्) = स्थापित कर सके। चूँकि यह सत्य के प्रति श्रद्धा व अनृत के विषय में अश्रद्धा ही प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा करनेवाली होती है। ३. यह राजा अपने इस सत्कार्य को इसीलिए कर पाता है कि सुरक्षित सोम (ऋतेन) = यज्ञियवृत्ति के द्वारा (सत्यं इन्द्रियं विपानम्) - इसे सत्यनिष्ठ, शक्तिशाली व रोगों से अनाक्रान्त बनाता है। (शुक्रम्) = यह सोम इसके जीवन को शुचि व [शुक् गतौ] क्रियाशील बनाता है। ४. (अन्धसः) = अन्न से उत्पन्न यह सोम (इन्द्रस्य) = राष्ट्र के शत्रुओं के विदारक राजा का (इन्द्रियम्) = शक्तिवर्धक होता है। (इदम्) = यह (पयः अमृतं मधु) = इसका आप्यायन करता है, इसे रोगों से मरने नहीं देता और इसके जीवन को मधुर बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ - राजा राष्ट्र में सत्यासत्य का ठीक विवेचन करनेवाला होता है तथा प्रजा में सत्य के प्रति श्रद्धा व अनृत के प्रति अश्रद्धा को उत्पन्न करने के लिए यत्नशील होता है।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे ईश्वराच्या आज्ञेनुसार धर्माचरण करतात व निषेधात्मक असलेल्या अधर्माचे आचरण करत नाहीत ती सुखी होतात. ईश्वराने धर्म अधर्माचे जे ज्ञान दिलेले आहे ते न दिल्यास कुणालाही धर्माधर्माच्या स्वरूपाचे ज्ञान होणार नाही. जे आत्म्याच्या अनुकूल आचरण करतात व प्रतिकूल आचरण करत नाहीत त्यांनाच धर्माधर्माचा बोध येतो, इतरांना नाही.
विषय
आता धर्म काय, अधर्म काय, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजापतिः) सर्व लोकांच्या रक्षक परमेश्वराने (ऋतेन) आपल्या यथार्थ सत्य ज्ञानाद्वारे (सत्यानृते) सत्य आणि असत्य (सत्य काय नि असत्य काय) याचे (रूपे) निरूपण केले आहे. त्यांना (दृष्ट्वा) आपल्या ज्ञानदृष्टीने पाहून परमेश्वर (व्याकरोत्) मनुष्यांना विविध मार्गांनी उपदेश करतो (जे खरें आहे तेच करावे, खोटें करूं नये, याची प्रेरणा देत असतो) तसेच परमेश्वर (अनृते) मिथ्याभाषण आदी दुर्ष्कांविषयी (माणसाच्या मनात) (अश्रद्धाम्) अप्रीती (अदधात्) उत्पन्न करतो. आणि (सत्ये) सत्याविषयी (श्रद्धाम्) प्रीती उत्पन्न करतो. तसेच परमेश्वर (अन्धसः) अधर्माचरणापासून माणसाला निवृत्त करतो. तो (शुक्रम्) (हृदयाची) शुद्धी करणारा आणि (विपानम्) रक्षणाची साधनें देणारा असून (सत्यम्) सत्यस्वरूप आहे. तोच (इन्द्रियम्) चित्ताला धीर देणारा, आणि (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य प्राप्त करविणारा आहे. (इदम्) असा हा (पयः) अमृतरूप सुखदायक (अमृतम्) मृत्यु व रोगापासून मुक्ती देणारा (मधु) माननीय (वा मधाप्रमाणे प्रिय) (इन्द्रियम्) विशेष ज्ञानप्राप्ती देणारा (प्रजापतिः) परमेश्वरच सर्वांचा उपास्यदेव आहे (सर्व मनुष्यांनी त्याचीच उपासना करावी) ॥77॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक ईश्वराच्या आज्ञेप्रमाणे धर्माचरण करतात आणि ईश्वराने निषिद्ध म्हणून सांगितलेल्या अधर्माचा अवलंब करीत नाहीत, ते सुखी होतात. जर ईश्वराने धर्म काय आणि अधर्म काय, याचे ज्ञान मनुष्यास दिले नसते, तर धर्म-अधर्म यांच्या स्वरूपाचे ज्ञान कुणालाही झाले नसते. तसेच जी माणसें आपल्या आत्म्याच्या अनुकुल आचरण करतात आणि अंतःकरणाच्या विरूद्ध अशा आचरणाचा त्याग करतात, तेच धर्म आणि अधर्म याविषयी भेद करू शकतात (वा त्यांनाच धर्म काय नि अधर्म काय, हे कळते) इतर लोक हा भेद जाणू शकत नाहीत. ॥77॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God through His pure knowledge, viewing both forms has explained truth and falsehood. He has assigned the lack of faith to falsehood, and faith to truth. He alone is worthy of worship by all, who is the Abolisher of irreligiousness, Purifier, Sustainer, Truth personified. Path-indicator of mind, Revealer of manly vedic truth, Giver of salvation, Adorable, and source of knowledge.
Meaning
Having over-seen two aspects of created Existence, Lord Prajapati analyses it into two forms: One, reality, truth, dharma; the other, unreality, illusion, adharma. Then Lord Prajapati places faith and commitment (shraddha) in truth, and no-faith and no¬ commitment (ashraddha) in untruth. With truth and faith He joins right mind and intelligence (rtambhara-buddhi) which is the Lord’s gift of saving grace, protective, purifying, and enlightening against the darkness of illusion. And this is the soul’s real power and faculty which can lead to the honey sweets and milky streams of immortality.
Translation
Discerning well, the Lord of creatures made two different forms—truth and falsehood. The Lord of creatures assigned disbelief to the falsehood and faith to the truth. By sacrifice the truth gains strength and consumption of food becomes pure. May the nectar-like sweet milk be the strength of the resplendent self. (1)
Notes
Satyanṛte, सत्यं च अनृतं च truth and falsehood. Aśraddhā, नास्तिक्यं, disbelief. Sraddhā, आस्तिक्यबुद्धिः, faith.
बंगाली (1)
विषय
অথ ধর্মাধর্মৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন ধর্ম ও অধর্ম কেমন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যে (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক পরমেশ্বর (ঋতেন) যথার্থ নিজ সত্য বিজ্ঞান দ্বারা (সত্যানৃতে) সত্য ও মিথ্যা যাহা (রূপে) নিরূপণ করা হইয়াছে তাহাকে (দৃষ্ট্বা) জ্ঞানদৃষ্টি দিয়া দেখিয়া (ব্যাকরোৎ) বিবিধ প্রকারে উপদেশ করে, যাহা (অনৃতে) মিথ্যাভাষণাদিতে (অশ্রদ্ধাম্) অপ্রীতিকে (অদধাৎ) ধারণ করায় এবং (সত্যে) সত্যে (শ্রদ্ধাম্) প্রীতিকে ধারণ করায় এবং যাহা (অন্ধসঃ) অধর্মাচরণের নাশক (শুক্রম্) শুদ্ধিকর (বিপানম্) বিবিধ রক্ষার সাধন (সত্যম্) সত্যস্বরূপ (ইন্দ্রিয়ম্) চিত্তকে এবং যাহা (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত ধর্মের প্রাপক (ইদম্) এই (পয়ঃ) অমৃতরূপসুখদাতা (অমৃতম্) মৃত্যুরোগনিবারক (মধু) মানিবার যোগ্য (ইন্দ্রিয়ম্) বিজ্ঞানের সাধনকে ধারণ করে সে (প্রজাপতিঃ) পরমেশ্বর সকলের উপাস্য দেব ॥ ৭৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– যে মনুষ্য ঈশ্বরের আজ্ঞাকৃত ধর্মের আচরণ করে এবং নিষেধীকৃত ধর্মের সেবন করে না, তাহারা সুখ প্রাপ্ত হয় যাহারা ঈশ্বর ধর্ম-অধর্মকে না জানায় তাহা হইলে ধমাঽর্ধর্মের স্বরূপের জ্ঞান কারও হইবেনা, যে আত্মার অনুকূল আচরণ করে এবং প্রতিকূলাচরণকে ত্যাগ করে তাহারাই ধর্মাধর্মের বোধ দ্বারা যু্ক্ত হয়, ইতর জন নহে ॥ ৭৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দৃ॒ষ্ট্বা রূ॒পে ব্যাऽऽऽক॑রোৎ সত্যানৃ॒তে প্র॒জাপ॑তিঃ । অশ্র॑দ্ধা॒মনৃ॒তেऽদ॑ধাচ্ছ্র॒দ্ধাᳬं স॒ত্যে প্র॒জাপ॑তিঃ । ঋ॒তেন॑ স॒ত্যমি॑ন্দ্রি॒য়ং বি॒পান॑ꣳ শু॒ক্রমন্ধ॑স॒ऽইন্দ্র॑স্যেন্দ্রি॒য়মি॒দং পয়ো॒ऽমৃতং॒ মধু॑ ॥ ৭৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দৃষ্ট্বেত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । অতিশক্বরী ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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