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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 48
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः
    2

    इ॒दꣳ ह॒विः प्र॒जन॑नं मेऽअस्तु॒ दश॑वीर॒ꣳ सर्व॑गण स्व॒स्तये॑। आ॒त्म॒सनि॑ प्रजा॒सनि॑ पशु॒सनि॑ लोक॒सन्य॑भय॒सनि॑। अ॒ग्निः प्र॒जां ब॑हु॒लां मे॑ करो॒त्वन्नं॒ पयो॒ रेतो॑ऽअ॒स्मासु॑ धत्त॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्। ह॒विः। प्र॒जन॑न॒मिति॒ प्र॒ऽजन॑नम्। मे॒। अ॒स्तु॒। दश॑वीर॒मिति॒ दश॑ऽवीरम्। सर्व॑ऽगणम्। स्व॒स्तये॑। आ॒त्म॒सनीत्या॑त्म॒ऽसनि॑। प्र॒जा॒सनीति॑ प्रजा॒ऽसनि॑। प॒शु॒सनीति॑ पशु॒ऽसनि॑। लो॒क॒सनीति॑ लोक॒ऽसनि॑। अ॒भ॒य॒सनीत्य॑भय॒ऽ सनि॑। अ॒ग्निः। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। ब॒हु॒लाम्। मे॒। क॒रो॒तु॒। अन्न॑म्। पयः॑। रेतः॑। अ॒स्मासु॑। ध॒त्त॒ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदँ हविः प्रजननं मे अस्तु दशवीरँ सर्वगणँ स्वस्तये । आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि । अग्निः प्रजाम्बहुलाम्मे करोत्वन्नम्पयो रेतो अस्मासु धत्त ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। हविः। प्रजननमिति प्रऽजननम्। मे। अस्तु। दशवीरमिति दशऽवीरम्। सर्वऽगणम्। स्वस्तये। आत्मसनीत्यात्मऽसनि। प्रजासनीति प्रजाऽसनि। पशुसनीति पशुऽसनि। लोकसनीति लोकऽसनि। अभयसनीत्यभयऽ सनि। अग्निः। प्रजामिति प्रऽजाम्। बहुलाम्। मे। करोतु। अन्नम्। पयः। रेतः। अस्मासु। धत्त॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 48
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सन्तानैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    अग्निर्मे बहुलां प्रजां करोतु मे यदिदं प्रजननं हविर्दशवीरं सर्वगणमात्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसन्यपत्यं करोतु, तत् स्वस्तयेऽस्तु। हे मातापित्रादयो यूयमस्मासु प्रजामन्नं पयो रेतो धत्त॥४८॥

    पदार्थः

    (इदम्) (हविः) होतुमर्हम् (प्रजननम्) प्रजनयन्ति येन तत् (मे) मम (अस्तु) (दशवीरम्) दश वीरः पुत्रा यस्मात् तत् (सर्वगणम्) सर्वे गणाः गण्याः प्रशंसनीयाः पदार्था यस्मात् (स्वस्तये) सुखाय (आत्मसनि) आत्मानं सनति सम्भजति येन तत् (प्रजासनि) प्रजाः सनति येन तत् (पशुसनि) पशून् सनति सम्भजति येन (लोकसनि) लोकान् सनति सम्भजति येन (अभयसनि) अभयं सनति सम्भजति येन (अग्निः) अग्निरिव देदीप्यमानः पतिः (प्रजाम्) पुत्रपौत्रप्रभृतिम् (बहुलाम्) बहूनि सुखानि ददाति या ताम् (मे) मह्यम् (करोतु) (अन्नम्) (पयः) दुग्धम् (रेतः) वीर्यम् (अस्मासु) (धत्त)॥४८॥

    भावार्थः

    ये स्त्रीपुरुषाः पूर्णेन ब्रह्मचर्येण सर्वा विद्याशिक्षाः सङ्गृह्य परस्परं प्रीत्या स्वयंवरं विवाहं कृत्वा ऋतुगामिनो भूत्वा विधिवत् प्रजामुत्पादयन्ति, तेषां सा प्रजा शुभगुणयुक्ता भूत्वा पितॄन् सततं सुखयति॥४८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सन्तानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान पति (मे) मेरे लिये (बहुलाम्) बहुत सुख देनेवाली (प्रजाम्) प्रजा को (करोतु) करे, (मे) मेरा जो (इदम्) यह (प्रजजनम्) उत्पत्ति करने का निमित्त (हविः) लेने-देने योग्य (दशवीरम्) दश सन्तानों का उत्पन्न करनेहारा (सर्वगणम्) सब समुदायों से सहित (आत्मसनि) जिससे आत्मा का सेवन (प्रजासनि) प्रजा का सेवन (पशुसनि) पशु का सेवन (लोकसनि) लोकों का अच्छे प्रकार सेवन और (अभयसनि) अभय का दानरूप कर्म होता है, उस सन्तान को करे। वह (स्वस्तये) सुख के लिये (अस्तु) होवे। हे माता-पिता आदि लोगो! आप (अस्मासु) हमारे बीच में प्रजा (अन्नम्) अन्न (पयः) दूध और (रेतः) वीर्य को (धत्त) धारण करो॥४८॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य से सकल विद्या की शिक्षाओं का संग्रह कर, परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके ऋतुगामी होकर विधिपूर्वक प्रजा की उत्पत्ति करते हैं, उनकी वह प्रजा शुभगुणयुक्त होकर माता-पिता आदि को निरन्तर सुखी करती है॥४८॥

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    विषय

    देह में सन्तानोत्पादक दश प्राण युक्त वीर्य की प्रार्थना । अग्निस्वरूप पति । राष्ट्रपक्ष में दशवीरनायकों से युक्त सैन्य और नायक का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( इदम् ) वह (मे) मेरे (हविः) आदान, ग्रहण करने योग्य अन्न, वा दान करने और गर्भ में स्त्री द्वारा स्वीकार करने योग्य ( प्रजननम् ) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने वाला वीर्य ( दशवीरम् ) दश पुत्र उत्पन्न करने वाला, अथवा दशों प्राणयुक्त ( सर्वगणम् ) सर्व अंगों में व्यापक, अथवा सब उत्तम गुणों और अंगों से पूर्ण, सर्वाङ्गसुन्दर होकर ( स्वस्तये) कल्याण के लिये हो । वह (आत्मसनि) अपने देह में बल धारण करने वाला, (प्रजासनि) प्रजा देने वाला, (पशुसनि) पशुओं और प्रजागण का बलदाता, (लोकसनि) लोक आत्मा को बल और तेज, देने वाला और (अभयसनि) अभय देने हारा हो । (अभिः) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी, पति (मे) मेरी ( बहुलां प्रजाम् ) बहुत सी प्रजाओं को (करोतु ) उत्पन्न करे और हममें ( अन्नम् ) अन्न, ( पयः ) पुष्टिकारक दुग्ध आदि पदार्थ और (रेतः) वीर्य को भी ( धत्त) धारण करावे । शत० १२।८।१।२२॥ राष्ट्र में- 'दशवीर' शरीर में दश प्राणों के समान दश वीर नेताओं से युक्त समस्त प्रजाजन को सुखी कल्याण युक्त करे । वह ( हविः ) कर द्वारा प्राप्त अन्न आदि ऐश्वर्य राजा के स्वतः भोग योग्य और प्रजा, पशु, अन्य लोकों का भी आश्रय देनेवाला या उनको पुष्ट करने वाला हो । 'अग्नि' अग्रणी, वीर नेता सेनापति प्रजाओं की वृद्धि करे और राष्ट्र अन्न ( पयः) दूध आदि पशु सम्पत्ति और (रेतः) वीर्य, बल की वृद्धि करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृदष्टिः । मध्यमः ॥

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    विषय

    हविः

    पदार्थ

    गतमन्त्र के पितृयाण व देवयान मार्गों से चलनेवाले लोग सदा यज्ञ करके यज्ञशेष खानेवाले होते हैं। यह यज्ञशेष को खाना ही 'हवि' कहलाता है। 'हु दानादनयो:' अर्थात् दानपूर्वक बचे हुए को खाना । (इदं हविः) = यह दानपूर्वक अदन (मे) = मेरे लिए (प्रजननं अस्तु) = प्रकृष्ट विकासवाला हो । हवि के द्वारा मेरी शक्तियों का उत्तम विकास हो । २. यह हवि (दशवीरम्) =[प्राणा वै दशवीराः प्राणानेवात्मन् धत्ते - श० १२।८।१।२२] मेरे सभी प्राणों का वर्धन करनेवाली हो। ३. (सर्वगणम्) = अङ्गनि वै सर्वे गणा अङ्गन्येवात्मन्धत्ते। [-श० १२.८.१.१२] यह हवि मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग को स्वस्थ बनानेवाली हो। ४. इस प्रकार यह हवि मेरे (स्वस्तये) = उत्तम कल्याण के लिए हो। ५. (आत्मसनि) = यह हवि मुझे आत्मशक्ति सम्पन्न करनेवाली हो। ६. (प्रजासनि) = उत्तम सन्तान देनेवाली हो। ७. (पशुसनिये) = मेरे लिए उत्तम गवादिक पशुओं को प्राप्त करानेवाली हो। ८. (लोकसनि) = यह मेरे इस लोक को उत्तम बनाये। ९. (अभयसनि) = यह मुझे (अभयपद) = ब्रह्म को प्राप्त करानेवाली हो। १०. मेरी हवि खाने की वृत्ति के कारण (अग्निः) = मेरी उन्नति का साधक प्रभु (मे प्रजाम्) = मेरी सन्तान को (बहुलां करोतु) = प्रवृद्ध व उन्नत - फूला - फला (करोतु) = करे। मेरी सन्तान में भी इस हवि की वृत्ति उत्पन्न हो । मेरी सन्तान भी अपनों में बहुतों का समावेश करनेवाली हो [बहून् लाति ] । ११. इस 'हवि' के परिणामस्वरूप ही आप (अस्मासु) = हममें (अन्नं पयः) = अन्न और दूध को (धत्त) = धारण कीजिए और इस अन्न व दूध के द्वारा आप (अस्मासु) = हममें (रेतः) = शक्ति का आधान कीजिए।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं हविवृत्ति बनूँ, देकर बचे हुए को खानेवाला बनूँ। यह हवि मेरा विकास करे-मेरे प्राणों की शक्ति को बढ़ाए, मेरे सब अङ्गों को सबल करे, मेरे लिए कल्याणकर हो, मुझे आत्मिक शक्ति दे, उत्तम प्रजा को प्राप्त कराए, उत्तम पशु-धनवाला बनाए, मेरा लोक उत्तम हो, अर्थात् मैं यशस्वी बनूँ और अन्त में अभयपद प्राप्त करूँ। इस हवि से मेरी प्रजा भी बहुल हो। हवि के परिणामस्वरूप ही मैं अन्न, दूध व इनके द्वारा शक्ति को प्राप्त करनेवाला बनूँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे स्री-पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करून संपूर्ण विद्यांचे शिक्षण घेतात व परस्पर प्रीतीने स्वयंवर विवाह करतात आणि ऋतुगामी बनून विधिपूर्वक संतती निर्माण करतात. त्यांची संतती शुभगुणयुक्त बनून माता व पित इत्यादींना सुखी करते.

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    विषय

    संतानांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पत्नीचे कथन) (अग्निः) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी माझा पती (मे) माझ्यासाठी (वा माझ्या गर्भातून) (बहुलाम्‌) अत्यंत सुख देणाऱ्या (प्रजाम्‌) संततीला (करोतु) जन्म देवो. (मे) माझे (इदम्‌) हे (प्रजनम्‌) जन्म देण्याचे कार्य (हविः) हवि म्हणजे आदान-प्रदान करण्याच्या (रूपाने सिद्ध होते) (पति-पत्नी दोघांच्या संमीलनातून संततीचा जन्म होतो) हे कर्म (दशवीरम्‌) दहा संतानांना जन्म देणारे व (सर्वगणम्‌) सर्वांशी सहभाव उत्पन्न करणारे आहे. हे माझे कर्म (आत्मसनि) अभयदानाचे सेवन करणारे आहे (या गृहस्थधर्माच्या पालनामुळे मला गृहस्थाला आत्म्याची उन्नती, संतानाची प्रगती, पशू आणि सेवकगणांची उन्नती प्राप्त होते आणि मी निर्भय राहू शकतो) हे वरील सर्व माझ्या संततीच्या (स्वस्तये) कल्याणासाठी (अस्तु) होवो. हे (परिवारातील वा समाजातील) माता-पिता आदी वृद्धजनहो, आपण (वरील उन्नती साधण्याकरिता) अस्मासु) आम्हा गृहस्थ पति-पत्नीमध्ये प्रजा (अन्नम्‌) भोजन (पयः) दूध आणि (रेतः) वीर्य (धत्त) धारण करण्याकरिता वा यांची वृद्धी होण्याकरिता (धत्त) आम्हाला मार्गदर्शन करा ॥48॥

    भावार्थ

    भावार्थ- जे स्त्री-पुरूष पूर्णब्रह्मचर्य धारण करून, समस्त विद्या प्राप्त करून एकमेकाच्या संमतीने स्वयंवर विवाह करतात, नंतर ऋतुगामी राहून विधिपूर्वक संतानाला जन्म देतात, त्यांची संताने सद्गुणयुक्त होतात आणि आपल्या जन्मदात्या माता-पित्यांना सदा आनंद देतात, सुखी करतात ॥48॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my fiery husband make my progeny abundant. May this my married life bring me ten brave children, all good objects, physical strength, good progeny, cattle, spiritual force and fearlessness, for my welfare. O parents do ye confer on us food, milk, and manly vigour.

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    Meaning

    May this fertility of mine, the married life, be a generative yajna, productive of ten brave children with all the virtues for the well-being of society. May this yajna and its production be the source of spiritual enlightenment, progress of the people, protection of animals, advancement of society and creation of fearlessness. Agni, lord of life and fertility, create for me lots of noble children. Bless us with plenty of food, milk and water, energy and generative vitality.

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    Translation

    May this offering be producer of ten brave sons of mine for well-being of the whole clan. May the adorable Lord, bestower of self, bestower of progeny, bestower of cattle, bestower of worldly prosperity and bestower of security, bless me with plenty of offsprings. May you all provide us with food, milk and reproductive power. (1)

    Notes

    Prajananam,प्रजोत्पादकं, producer of children. Daśavīram, bestower of ten brave sons. Or, 'प्राणा: वै दश वीराः प्राणानेव आत्मन् धत्ते', ten vital breaths. (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त, धनञ्जय), are verily the ten heroes; he incorporates them within him. (Satapatha, XII. 8. 1. 22). The vital breaths improve health. Sarvagaṇam, whole of my clan. Also, with all parts of my body. अंगानि वै सर्वे गणा:', the parts of the body are all the clan. Sanim, सनति ददाति इति सनि:, granter or bestower of. Ātmasani, bestower of self or of spirit. Lokasani,लौकिकं सुखं ददाति यत् तत् bestower of material wealth. Also, bestower of fame. Abhayasani, bestower of freedom from fear, i. e. security. Dhatta, may you all (plural), God and all the bounties of Nature confer. Also, O pitaraḥ, elders (or the departed fathers).

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    बंगाली (1)

    विषय

    সন্তানৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
    সন্তানদেরকে কী করা উচিত এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(অগ্নিঃ) অগ্নির সমান প্রকাশমান পতি (মে) আমার জন্য (বহুলাম্) বহু সুখদাত্রী (প্রজাম্) প্রজাকে (করোতু) করুক (মে) আমার যে (ইদম্) এই (প্রজাননম্) উৎপত্তি করিবার নিমিত্ত (হবিঃ) দেওয়া-নেওয়ার যোগ্য (দশবীরম্) দশ সন্তানের উৎপন্নকারী (সর্বগণম্) সব সমুদায় সহিত (আত্মসনি) যাহাতে আত্মার সেবন (প্রজাসনি) প্রজার সেবন (পশুসনি) পশুর সেবন (লোকসনি) লোকসমূহের উত্তম প্রকার সেবন এবং (অভয়সনি) অভয়ের দানরূপ কর্ম হয় সেই সন্তানকে করিবে সে (স্বস্তয়ে) সুখের জন্য (অস্তু) হউক । হে মাতা-পিতা ইত্যাদি ব্যক্তিগণ আপনারা (অস্মাসু) আমাদের মধ্যে প্রজা (অন্নম্) অন্ন (পয়ঃ) দুধ ও (রেতঃ) বীর্য্যকে (ধত্ত) ধারণ কর ॥ ৪৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে স্ত্রী-পুরুষ পূর্ণ ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা সকল বিদ্যার শিক্ষাকে সংগ্রহ করিয়া পরস্পর প্রীতিপূর্বক স্বয়ম্বর বিবাহ করিয়া ঋতুগামী হইয়া বিধিপূর্বক প্রজা উৎপন্ন করে । তাহাদের এই প্রজা গুণযুক্ত হইয়া মাতা-পিতাদিকে সর্বদা সুখী করে ॥ ৪৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒দꣳ হ॒বিঃ প্র॒জন॑নং মেऽঅস্তু॒ দশ॑বীর॒ꣳ সর্ব॑গণᳬं স্ব॒স্তয়ে॑ ।
    আ॒ত্ম॒সনি॑ প্রজা॒সনি॑ পশু॒সনি॑ লোক॒সন্য॑ভয়॒সনি॑ ।
    অ॒গ্নিঃ প্র॒জাং ব॑হু॒লাং মে॑ করো॒ত্বন্নং॒ পয়ো॒ রেতো॑ऽঅ॒স্মাসু॑ ধত্ত ॥ ৪৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইদং হবিরিত্যস্য বৈখানস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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