यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 93
अङ्गा॑न्या॒त्मन् भि॒षजा॒ तद॒श्विना॒त्मान॒मङ्गैः॒ सम॑धा॒त् सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य रू॒पꣳ श॒तमा॑न॒मायु॑श्च॒न्द्रेण॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ दधा॑नाः॥९३॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गा॑नि। आ॒त्मन्। भि॒षजा॑। तत्। अ॒श्विना॑। आ॒त्मान॑म्। अङ्गैः॑। सम्। अ॒धा॒त्। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। श॒तमा॑न॒मिति॑ श॒तऽमा॑नम्। आयुः॑। च॒न्द्रे॑ण। ज्योतिः॑। अ॒मृत॑म्। दधा॑नाः ॥९३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गान्यात्मन्भिषजा तदश्विनात्मानमङ्गैः समधात्सरस्वती । इन्द्रस्य रूपँ शतमानमायुश्चन्द्रेण ज्योतिरमृतन्दधानाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अङ्गानि। आत्मन्। भिषजा। तत्। अश्विना। आत्मानम्। अङ्गैः। सम्। अधात्। सरस्वती। इन्द्रस्य। रूपम्। शतमानमिति शतऽमानम्। आयुः। चन्द्रेण। ज्योतिः। अमृतम्। दधानाः॥९३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! भिषजाऽश्विना सिद्धसाधकौ विद्वांसौ यथा सरस्वत्यात्मन् स्थिरा सत्यङ्गानि योगाङ्गान्यनुष्ठायात्मानं समधात्, तथैवाङ्गैर्यदिन्द्रस्य रूपमस्ति, तत् संदध्याताम्। यथा योगं दधानाः शतमान-मायुर्धरन्ति, तथा चन्द्रेणऽमृतं ज्योतिर्दध्यात्॥९३॥
पदार्थः
(अङ्गानि) योगाङ्गानि (आत्मन्) आत्मनि (भिषजा) सद्वैद्यवदरोगौ (तत्) (अश्विना) सिद्धसाधकौ (आत्मानम्) (अङ्गैः) योगाङ्गैः (सम्) (अधात्) समादधाति (सरस्वती) योगिनी स्त्री (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (रूपम्) (शतमानम्) शतमसंख्यं मानं यस्य तत् (आयुः) जीवनम् (चन्द्रेण) आनन्देन (ज्योतिः) प्रकाशम् (अमृतम्) (दधानाः) धरन्तः॥९३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रोगिणः सद्वैद्यं प्राप्यौषधं पथ्यं च सेवित्वा नीरोगा भूत्वाऽऽनन्दन्ति, तथा योगजिज्ञासवो योगिन इममवाप्य योगाङ्गान्यनुष्ठाय निष्क्लेशा भूत्वा सततं सुखिनो भवन्ति॥९३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (भिषजा) उत्तम वैद्य के समान रोगरहित (अश्विना) सिद्ध साधक दो विद्वान् जैसे (सरस्वती) योगयुक्त स्त्री (आत्मन्) अपने आत्मा में स्थित हुई (अङ्गानि) योग अङ्गों का अनुष्ठान करके (आत्मानम्) अपने आत्मा को (समधात्) समाधान करती है, वैसे ही (अङ्गैः) योगाङ्गों से जो (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्य का (रूपम्) रूप है, (तत्) उस का समाधान करें। जैसे योग को (दधानाः) धारण करते हुए जन (शतमानम्) सौ वर्ष पर्यन्त (आयुः) जीवन को धारण करते हैं, वैसे (चन्द्रेण) आनन्द से (अमृतम्) अविनाशी (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा का धारण करो॥९३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रोगी लोग उत्तम वैद्य को प्राप्त हो, औषध और पथ्य का सेवन करके, रोगरहित होकर आनन्दित होते हैं, वैसे योग को जानने की इच्छा करने वाले योगी लोग इस को प्राप्त हो, योग के अङ्गों का अनुष्ठान कर और अविद्यादि क्लेशों से दूर होके निरन्तर सुखी होते हैं॥९३॥
विषय
योग द्वारा शरीर-शोधन और चिकित्सा के समान ही राष्ट्र का शोधन और चिकित्सा । अंगों की सप्ताङ्गों से तुलना | पक्षान्तर में गृहस्थ का वर्णन ।
भावार्थ
(भिषजौ) समस्त रोगों की चिकित्सा करने वाले (अश्विनौ) सद्वैद्य जिस प्रकार ( आत्मन् ) देह मैं (अङ्गानि ) अंगों को ( सम् अधाताम् ) ठीक-ठीक जोड़ देते हैं और जिस प्रकार ( अश्विनौ ) शरीर में व्यापक प्राण और अपान दोनों ( आत्मन् ) आत्मा के समक्ष (अंगानि) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों को सम्बद्ध किये रहते हैं ( तत् ) उसी प्रकार (अश्विना) व्यापक सामर्थ्य वाले स्त्री और पुरुष या मुख्य दो अधिकारी ( आत्मन् ) आत्मदेह रूप राष्ट्र में (अङ्गानि ) राज्य के अंगों को जोड़ते हैं । और (सरस्वती) उत्तम ज्ञान से युक्त स्त्री के समान राजसभा और राज्य में विद्या - शिक्षा की व्यवस्था (अङ्गैः) राज्य के अंगों के साथ ( आत्मानम् ) आत्मा के समान राजा को (सम अधात् ) संयुक्त करती है । पूर्वोक दो अश्विगण और सरस्वती तीनों (चन्द्रेण ) चन्द्र के बल से (अमृतं ज्योतिः) अमृतमय सुखप्रद ज्योति के समान (चन्द्रेण) आह्लादकारी राजा या राज्य के साथ (अमृतम्) अविनाशी, सुखप्रद अन्न आदि समृद्धि और (ज्योति:) परम तेज को (दधानाः) धारण करते हुए (इन्द्रस्य) शत्रुनाशक राजा के ( रूपम् ) स्वरूप को और (आयुः) जीवन को ( शतमानम् ) सौगुणा अथवा सौ वर्षों के परिमाण वाला कर देते हैं । अध्यात्म में - ( अश्विनौ अङ्गानि आत्मन् ) प्राण और अपान दोनों का अभ्यास योग के अंगों को सुसम्पन्न करता है । ( सरस्वती आत्मानम् अङ्गैः सम् अधात् ) सरस्वती, वेदवाणी का स्वाध्याय आत्मा को योगाङ्गों -से युक्त करता है । प्राणायाम और स्वाध्याय दोनों (इन्द्रस्य रूपं शतमानम् आयुः) जीव की आयु को सौ वर्षों का कर देते हैं । वे (चन्द्रेण ) आह्लादजनक वीर्य या सोमचक्र के साथ (अमृतं ज्योतिः दधानाः) अमृत- आत्म ज्योति को धारण कराते हैं । 'अंगानि ' - मन्त्राङ्गानि - सहायाः साधनोपाया: विभागो देशकालयोः । विनिपात-प्रतीकारे मन्त्रः पञ्चांग इष्यते । सप्ताङ्गानि - स्वाम्यमात्य सुहृत्-कोश-राष्ट्र-दुर्ग बलानि च । नीतिशास्त्र ॥ योग के अष्टांग - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अश्व्यादयः । अश्विनौ देवते । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
शतमानम् आयुः 'प्रसाद प्रकाश-प्रभाव'
पदार्थ
१. उपासक के, जितेन्द्रिय पुरुष के, (अङ्गानि) = अङ्ग (आत्मन्) = सदा आत्मा में होते हैं, अर्थात् यह सब अङ्गों से उन उन क्रियाओं को करता हुआ परमात्मा को भूलता नहीं । २. (तत् अश्विना) = प्राणापान (भिषजा) = इसके वैद्य होते हैं। प्राणापान की शक्ति की वृद्धि के कारण यह नीरोग बना रहता है। ३. (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठातृदेवता, अर्थात् ज्ञानी बनकर यह अङ्गैः योगाङ्गों के द्वारा (आत्मानम्) = उस परमात्मा को समधात् सम्यक् धारण करता है, स्वाध्याय करता है और इस स्वाध्यायरूप क्रियायोग से यह अपने को परमात्मा से जोड़ने का प्रयत्न करता है । ४. (इन्द्रस्य) = इस प्रकार इस जितेन्द्रिय पुरुष का रूपम् रूप यह होता है कि यह [क] (शतमानम् आयुः) = सौ वर्ष से मपी आयु को प्राप्त करता है। [ख] (चन्द्रेण ज्योति:) = मानस आह्लाद के साथ ज्ञान की ज्योतिवाला होता है और [ग] ये उपासक (अमृतं दधानाः) = विषयों के पीछे न मरने की वृत्ति को तथा नीरोगता व अमरता को धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष अपने अङ्गों को आत्मा में स्थापित करने का प्रयत्न करता है, प्राणापान-शक्ति की वृद्धि से नीरोग होता है, ज्ञान व योगाङ्गों से प्रभु से मेल करता है, सौ वर्ष तक जीता है, प्रसन्न रहता है, ज्योतिर्मय व विषयों के पीछे न मरनेवाला होता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे रोगी उत्तम वैद्याकडून औषध घेऊन पथ्यसेवन करतात व रोगरहित होऊन आनंदी बनतात. तसे योगजिज्ञासू लोक योगांगाचे अनुष्ठान करून अविद्या इत्यादी क्लेश दूर करून सदैव सुखी होतात.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे एक सिद्ध विद्वान आणि दुसरा साधक विद्वान, असे दोघे जण (भिषजा) उत्तम वैद्याप्रमाणे नीरोग राहून (योगाच्या आठ अंगांचे अनुष्ठान करतात) आणि जशी एक (सरस्वती) योगसाधिका स्त्री (आत्मन्) आत्म्यात स्थिर होऊन, (ध्यानस्य होऊन) (अङ्गानि) योगाच्या आठ अंगांचे अनुष्ठान करून (आत्मानम्) आपला आत्मा (समधात्) संतुष्ट वा आनंदित करते, तद्वत् इतर जनांनी देखील (अङ्गैः) योगांगाद्वारा (इद्रस्य) आत्मिक ऐश्वर्याच्या (रूपम्) रूपाने (तत्) व त्या योगाद्वारा संतुष्ट व्हावे. ज्याप्रमाणे योगीजन (दधानाः) योगसाधना करून (शतमानम्) शंभर वर्षापर्यन्त (आयुः) आयू धारण करतात, तद्वत (इतरांनीदेखील) (चन्द्रेण) आनंददायी (अमृतम्) अविनाशी अशा (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वराला आपल्या हृदयीं धारण करावे ॥93॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसे रोगीजन उत्तम वैद्याजवळ जाऊन त्यांच्याकडून औषधे घेतात आणि पथ्यसेवनादीद्वारा नीरोग होऊन आनंदित होतात, त्याप्रमाणे योगविद्या जाणण्यासठी इच्छुक लोक उत्तम योग्याजवळ जाऊन योगाच्या अष्टांगाचे पालन करतात व त्याद्वारे अविद्यादीक्लेशापासून दूर राहून सुखी होत असतात ॥93॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a woman devoted to yoga, engrossed in deep meditation, practising the limbs of yoga puts her soul in contemplation, so should husband and wife free from disease like a good physician, practise the parts of yoga and attain to the beauty of supremacy. As men practising yoga live for a hundred years, so should we, full of happiness, realise the immortal nature of the soul.
Meaning
Thus do the Ashvinis, bio-engineers of nature, structure limbs for the soul, and thus does Sarasvati, divine mother, join the soul with the limbs, creating a living Indra of a hundred years of age blest with the immortal light and beauty of the moon.
Translation
The twin healers, the physicians, put his body and soul together and the divine Doctress joins his limbs with the soul. Thus they give to the aspirant his form, a life of hundred years, and the light immortal from the moon. (1)
Notes
Angāni ātmani, joined his limbs with the body. Ātmānam angaiḥ, joined the soul with his limbs or the body. Śatamānam ayuḥ, a life-span having a measure of a hun dred years. Amṛtam jyotiḥ, the light immortal.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (ভিষজা) উত্তম বৈদ্যের সমান রোগরহিত (অশ্বিনাঃ) সিদ্ধ সাধক দুই বিদ্বান্ যেমন (সরস্বতী) যোগযুক্ত স্ত্রী (আত্মন্) নিজ আত্মায় স্থিত (অঙ্গানি) যোগের অনুষ্ঠান করিয়া (আত্মানম্) নিজ আত্মাকে (সমধাৎ) সমাধান করে সেইরকমই (অঙ্গৈঃ) যোগাঙ্গ সকল দ্বারা যাহা (ইন্দ্রস্য) ঐশ্বর্য্যের (রূপম্) রূপ (তৎ) তাহার সমাধান করিবে যেমন যোগকে (দধানাঃ) ধারণ করিয়া লোকেরা (শতমানম্) শতবর্ষ পর্য্যন্ত (আয়ুঃ) জীবনকে ধারণ করে সেইরূপ (চন্দ্রেণ) আনন্দপূর্বক (অমৃতম্) অবিনাশী (জ্যোতিঃ) প্রকাশস্বরূপ পরমাত্মার ধারণ কর ॥ ঌ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন রোগীগণ উত্তম বৈদ্যকে প্রাপ্ত হইয়া এবং ঔষধ ও পথ্যের সেবন করিয়া রোগরহিত হইয়া আনন্দিত হয় সেইরূপ যোগকে জানার ইচ্ছাকারী যোগীগণ ইহা প্রাপ্ত হইয়া যোগের অনুষ্ঠান করিয়া এবং অবিদ্যাদি ক্লেশ হইতে দূর হইয়া নিরন্তর সুখী হয় ॥ ঌ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অঙ্গা॑ন্যা॒ত্মন্ ভি॒ষজা॒ তদ॒শ্বিনা॒ত্মান॒মঙ্গৈঃ॒ সম॑ধা॒ৎ সর॑স্বতী ।
ইন্দ্র॑স্য রূ॒পꣳ শ॒তমা॑ন॒মায়ু॑শ্চ॒ন্দ্রেণ॒ জ্যোতি॑র॒মৃতং॒ দধা॑নাঃ ॥ ঌ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অঙ্গানীত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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