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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 33
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    यस्ते॒ रसः॒ सम्भृ॑त॒ऽओष॑धीषु॒ सोम॑स्य शुष्मः॒ सुर॑या सु॒तस्य॑। तेन॑ जिन्व॒ यज॑मानं॒ मदे॑न॒ सर॑स्वतीम॒श्विना॒विन्द्र॑म॒ग्निम्॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। रसः॑। सम्भृ॑त॒ इति॒ सम्ऽभृ॑तः। ओष॑धीषु। सोम॑स्य। शुष्मः॑। सुर॑या। सु॒तस्य॑। तेन॑। जि॒न्व॒। यज॑मानम्। मदे॑न। सर॑स्वतीम्। अ॒श्विनौ॑। इन्द्र॑म्। अ॒ग्निम् ॥३३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते रसः सम्भृत ओषधीषु सोमस्य शुष्मः सुरया सुतस्य । तेन जिन्व यजमानम्मदेन सरस्वतीमश्विनाविन्द्रमग्निम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। रसः। सम्भृत इति सम्ऽभृतः। ओषधीषु। सोमस्य। शुष्मः। सुरया। सुतस्य। तेन। जिन्व। यजमानम्। मदेन। सरस्वतीम्। अश्विनौ। इन्द्रम्। अग्निम्॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    किम्भूता जना धन्या इत्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यस्त ओषधीषु वर्त्तमानस्य सुतस्य सोमस्य सुरया सम्भृतः शुष्मो रसोऽस्ति, तेन मदेन यजमानं सरस्वतीमश्विनाविन्द्रमग्निञ्च जिन्व॥३३॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) तव (रसः) आनन्दः (सम्भृतः) सम्यग्धृतः (ओषधीषु) सोमलतादिषु (सोमस्य) अशुंमदादिसंज्ञस्य चतुर्विंशतिधा भिद्यमानस्य (शुष्मः) शुष्मं बलं विद्यते यस्मिन् सः (सुरया) शोभनदानशीलया स्त्रिया (सुतस्य) निष्पादितस्य (तेन) (जिन्व) प्रीणीहि (यजमानम्) सर्वेभ्यः सुखं ददमानम् (मदेन) आनन्दप्रदेन (सरस्वतीम्) प्रशस्तविद्यायुक्तां स्त्रियम् (अश्विनौ) विद्याव्याप्तावध्यापकोपदेशकौ (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्तं सभासेनेशम् (अग्निम्) पावकवच्छत्रुदाहकं योद्धारम्॥३३॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो जना महौषधिसारं स्वयं संसेव्यान्यान् सेवयित्वा सततमानन्दं वर्द्धयेयुस्ते धन्याः सन्ति॥३३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कैसे पुरुष धन्यवाद के योग्य हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! (यः) जो (ते) आपका (ओषधीषु) सोमलतादि ओषधियों में वर्त्तमान (सुतस्य) सिद्ध किये हुए (सोमस्य) अंशुमान् आदि चौबीस प्रकार के भेद वाले सोम का (सुरया) उत्तम दानशील स्त्री ने (सम्भृतः) अच्छे प्रकार धारण किया हुआ (शुष्मः) बलकारी (रसः) रस है, (तेन) उस (मदेन) आनन्ददायक रस से (यजमानम्) सब को सुख देने वाले यजमान (सरस्वतीम्) उत्तम विद्यायुक्त स्त्री (अश्विनौ) विद्याव्याप्त अध्यापक और उपदेशक (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त सभा और सेना के पति (अग्निम्) पावक के समान शत्रु को जलानेहारे योद्धा को (जिन्व) प्रसन्न कीजिये॥३३॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् मनुष्य महौषधियों के सारों को आप सेवन कर अन्यों को सेवन कराके निरन्तर आनन्द बढ़ावें, वे धन्यवाद के योग्य हैं॥३३॥

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    विषय

    'सरस्वती' और 'अश्विनौ' की वृद्धि का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( सुरया सुतस्य ) उत्तम रूप से दान देने योग्य राज्यलक्ष्मी से अभिषिक्त हुए (सोमस्य ) सबके प्रेरक (ते) तुझ राजा का (यः) जो (रसः) रस, बल, (ओषधिषु) रोगनिवारक ओषधियों, वीर्य को धारण करने वाली सेनाओं और प्रजाओं में ( संभृतः ) एकत्र संगृहीत है ((तेन) उस ( मदेन) हर्षकारी बल से (यजमानम् ) दानशील प्रजाजन को, (सरस्वतीम् ) ज्ञानवती विद्वत्सभा को और (अश्विनौ) राष्ट्र के स्त्री पुरुषों को, दो मुख्य अधिकारी राजा रानी या और राजा मन्त्री दोनों को और ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् शत्रुनाशक सेनापति और (अग्निम् ) ज्ञानवान् आचार्य एवं अग्रणी पुरुष को (जिन्ब) तृप्त कर । अर्थात् प्रजाओं के धन से राजा वैश्यों को, विद्वानों को, प्रजा के स्त्री-पुरुषों और सेनापति आदि का पालन करे । शत० १२ । ८ । १ ॥ ४ ॥

    टिप्पणी

    '० मश्विना इन्द्र' इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    सुरया - सोम

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (ते) = तेरा (ओषधीषु) = ओषधियों में (रसः) = रस (सम्भृतः) = धारण किया गया है और उस रस के द्वारा (सुरया) = आत्मनियन्त्रण के साथ सुतस्य सोमस्य = उत्पन्न किये गये सोम [वीर्यशक्ति] का (शुष्मः) = शत्रु-शोषक बल है तेन उस सोम के बल से (यजमानम्) = प्रभु के साथ अपना सम्पर्क करनेवाले इस यज्ञशील पुरुष को (मदेन) = आनन्द व उल्लास से (जिन्व) = प्रीणित कर । २. प्रभु ने वनस्पतियों में एक रस की स्थापना की है। यह रस उत्तम सोम का उत्पादक होता है, इस सोम को यदि आत्मनियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति अपने में ही सुरक्षित रखता है तब यह सोम इस 'यजमान' के जीवन को आनन्दित करनेवाला होता है, वास्तव में यह सुरक्षित सोम ही उसे यजमान = प्रभु के साथ सङ्गत करनेवाला बनाता है। इस प्रभु- सम्पर्क से यजमान का जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो उठता है । ३. यह नियन्त्रित सोम इस यजमान को [क] (सरस्वतीम्) = ज्ञान की अधिदेवता ही बना देता है, यह बड़ा ज्ञानी बनता है। [ख] (अश्विनौ) = इस सोम के रक्षण से पुरुष प्राणापान शक्ति का पुञ्ज बनता है। [ग] (इन्द्रम्) = इन्द्रियों की शक्तिवाला होता है तथा [घ] (अग्निम्) = सब दोषों का ध्वंस करके आगे बढ़नेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ओषधियों के सेवन से सोम को शरीर में उत्पन्न करें। आत्मनियन्त्रण के द्वारा इस सोम की रक्षा करें। यह सुरक्षित सोम हमें आनन्द से प्रीणित करे। हमें यह प्रभु के मेलवाला [यजमान], ज्ञानी [सरस्वती], दीर्घजीवी [अश्विनौ], शक्तिसम्पन्न इन्द्रियोंवाला [इन्द्र] तथा दोषदहनपूर्वक आगे बढ़नेवाला [अग्नि] बनाता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे विद्वान लोक महा औषधांचे सार स्वतः सेवन करतात व इतरांनाही सेवन करण्यास उद्युक्त करतात ते नेहमी आनंद वाढवित असतात आणि धन्यवादास पात्र ठरतात.

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    विषय

    कशी माणसें धन्यवादास पात्र आहेत, या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, (यः) जो (ते) आपण (ओषधीषु) सोमलता आदी औषधींमधून (सुतस्य) काढलेला आणि (सोमस्य) अंशुमान आदी चोवीस प्रकारच्या सोम वनस्पतीतून निष्पादित केलेला आणि (सुरया) उत्तम दानशीला स्त्रीद्वारे (सम्भृतः) व्यवस्थितपणे धारण केलेला (सांभाळून ठेवलेला) (शुष्मः) बलदायी (रसः) रस आहे, (तेन) त्या (मदेन) आनंददायी रसाने आपण (यजमानम्‌) सर्वांना सुख देणाऱ्या यजमानाला (प्रसन्न करा) तसेच (सरस्वतीम्‌) उत्तम विद्यायुक्त स्त्रीला आणि (अश्विनौ) विद्यावान अध्यापकाला व उपदेशाला (प्रसन्न करा) याशिवाय आपण (इन्द्रम्‌) ऐश्वर्यशाली सभापतीला अथवा सैन्याधीशाला तसेच (अग्निम्‌) अग्नीप्रमाणे शत्रूला जाळणाऱ्या योद्धावीराला (हा सोमरस देऊन) त्या सर्वांना (जिन्व) आनंदित करा ॥33॥

    भावार्थ

    भावार्थ - औषधीशास्त्राचे विद्वान जे ज्ञाते महौषधीचे सार काढून स्वतः सेवन करतात आणि अन्यजनांनादेखील सेवन करण्यासाठी देतात आणि अशाप्रकारे सर्वांच्या मनात आनंदाची वृद्धी करतात, ते निश्चयाने धन्यवादासाठी पात्र आहेत (आम्ही त्या औषधास्त्राच्या विद्वानांना धन्यवाद देतो.) ॥33॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, the strong essence of Soma, duly collected by a charitable lady is drawn from plants. With that gladdening essence impel with joy, the sacrificer, the learned lady, the scholarly teachers and preachers, the supreme king and Commander, and the hero that burns the foe like fire.

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    Meaning

    Spirit of life, Indra, of your essence which is contained in the herbs and plants, that which is extracted from the soma plants and reinforced with energy (by cleansing and distillation) is most powerful and exhilarating. With that elixir of life, delight and inspire the yajamana, Sarasvati, lady of learning, Ashvinis, scholars and students of health and medicine, Indra, the ruler and administrators, and Agni, the leader and defenders of the land.

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    Translation

    O cure-plant, with your essence, that lies in medicinal herbs, and with your strength, when pressed out with fermented drink, may you delight the sacrificer, the Doctress, the twin-healers, the resplendent one and the adorable leader as well. (1)

    Notes

    The commentators interpret this verse as addressed to surā, while it can easily be interpreted as addressed to Soma. Soma, a plant with intoxicating and gladdening juice, con sidered to be having medicinal properties; cure-plant. Surayā sutasya, brewed with liquor. Jinva, प्रीणीहि, delight.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কিম্ভূতা জনা ধন্যা ইত্যাহ ॥
    কেমন পুরুষ ধন্যবাদের যোগ্য এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্! (য়ঃ) যে (তে) আপনার (ওষধীষু) সোমলতাদি ওষধি সকলের মধ্যে বর্ত্তমান (সুতস্য) নিষ্পাদিত (সোমস্য) অংশুমানাদি চব্বিশ প্রকার ভেদযুক্ত সোমের (সুরয়া) উত্তম দানশীলা স্ত্রী (সম্ভৃতঃ) উত্তম প্রকার ধারণ কৃত (শুষ্মঃ) বলকারী (রসঃ) রস আছে । (তেন) সেই (মদেন) আনন্দদায়ক রস দ্বারা (য়জমানম্) সকলের সুখ প্রদানকারী যজমান (সরস্বতীম্) উত্তম বিদ্যাযুক্ত স্ত্রী (অশ্বিনৌ) বিদ্যাব্যাপ্ত অধ্যাপক ও উপদেশক (ইন্দ্রম্) ঐশ্বর্য্যযুক্ত সভা এবং সেনাপতি (অগ্নিম্) পাবকসম শত্রুকে দহনকারী যোদ্ধাকে (জিন্ব) প্রসন্ন করুন ॥ ৩৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে বিদ্বান্ মনুষ্য মহৌষধির সারকে স্বয়ং সেবন করিয়া অপরকে সেবন করাইয়া সর্বদা আনন্দ বৃদ্ধি করিবেন তিনি ধন্যবাদের যোগ্য ॥ ৩৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্তে॒ রসঃ॒ সম্ভৃ॑ত॒ऽওষ॑ধীষু॒ সোম॑স্য শুষ্মঃ॒ সুর॑য়া সু॒তস্য॑ ।
    তেন॑ জিন্ব॒ য়জ॑মানং॒ মদে॑ন॒ সর॑স্বতীম॒শ্বিনা॒বিন্দ্র॑ম॒গ্নিম্ ॥ ৩৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্তে রস ইত্যস্য হৈমবর্চির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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