यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 86
आ॒न्त्राणि॑ स्था॒लीर्मधु॒ पिन्व॑माना॒ गुदाः॒ पात्रा॑णि सु॒दुघा॒ न धे॒नुः। श्ये॒नस्य॒ पत्रं॒ न प्ली॒हा शची॑भिरास॒न्दी नाभि॑रु॒दरं॒ न मा॒ता॥८६॥
स्वर सहित पद पाठआ॒न्त्राणि॑। स्था॒लीः। मधु॑। पिन्व॑मानाः। गुदाः॑। पात्रा॑णि। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। न। धे॒नुः। श्ये॒नस्य॑। पत्र॑म्। न। प्ली॒हा। शची॑भिः। आ॒स॒न्दीत्या॑ऽस॒न्दी। नाभिः॑। उ॒दर॑म्। न। मा॒ता ॥८६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आन्त्राणि स्थालीर्मधु पिन्वमाना गुदाः पात्राणि सुदुघा न धेनुः । श्येनस्य पत्रन्न प्लीहा शचीभिरासन्दी नाभिरुदरन्न माता ॥
स्वर रहित पद पाठ
आन्त्राणि। स्थालीः। मधु। पिन्वमानाः। गुदाः। पात्राणि। सुदुघेति सुऽदुघा। न। धेनुः। श्येनस्य। पत्रम्। न। प्लीहा। शचीभिः। आसन्दीत्याऽसन्दी। नाभिः। उदरम्। न। माता॥८६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
युक्तिमता पुरुषेण शचीभिः स्थालीरग्नेरुपरि निधायौषधिपाकान् विधाय, तत्र मधु प्रक्षिप्य, भुक्त्वाऽऽन्त्राणि पिन्वमाना गुदाः पात्राणि भोजनार्थानि सुदुघा धेनुर्न प्लीहा श्येनस्य पत्रं न माता नासन्दी नाभिरुदरं पुष्येत्॥८६॥
पदार्थः
(आन्त्राणि) उदरस्था अन्नपाकाधारा नाडीः (स्थालीः) यासु पच्यन्तेऽन्नानि (मधु) मधुरगुणान्वितमन्नम् (पिन्वमानाः) सेवमानाः प्रीतिहेतवः। पिवि सेवने च। (गुदाः) गुह्येन्द्रियाणि (पात्राणि) यैः पिबन्ति तानि (सुदुघा) सुष्ठु सुखेन दुह्यत इति। दुहः कप् घश्चेति कर्मणि कप्। (न) इव (धेनुः) गौः (श्येनस्य) (पत्रम्) पक्षः (न) इव (प्लीहा) (शचीभिः) प्रज्ञाकर्मभिः (आसन्दी) समन्तात् रसप्रापिका (नाभिः) शरीरमध्यस्था (उदरम्) (न) इव (माता)॥८६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उत्तमैः सुसंस्कृतैरन्नै रसैः शरीरमरोगीकृत्य प्रयतन्ते, तेऽभीष्टं सुखं लभन्ते॥८६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
युक्ति वाले पुरुष को योग्य है कि (शचीभिः) उत्तम बुद्धि और कर्मों से (स्थालीः) दाल आदि पकाने के बर्त्तनों को अग्नि के ऊपर धर ओषधियों का पाक बना (मधु) उसमें सहत डाल भोजन करके (आन्त्राणि) उदरस्थ अन्न पकाने वाली नाडि़यों को (पिन्वमानाः) सेवन करते हुए प्रीति के हेतु (गुदाः) गुदेन्द्रियादि तथा (पात्राणि) जिनसे खाया-पिया जाय, उन पात्रों को (सुदुघा) दुग्धादि से कामना सिद्ध करने वाली (धेनुः) गाय के (न) समान (प्लीहा) रक्तशोधक लोहू का पिण्ड (श्येनस्य) श्येन पक्षी के तथा (पत्रम्) पांख के (न) समान (माता) और माता के (न) तुल्य (आसन्दी) सब ओर से रस प्राप्त करानेहारी (नाभिः) नाभि नाड़ी (उदरम्) उदर को पुष्ट करती है॥८६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य लोग उत्तम संस्कार किये हुए उत्तम अन्न और रसों से शरीर को रोगरहित करके प्रयत्न करते हैं, वे अभीष्ट सुख को प्राप्त होते हैं॥८६॥
विषय
प्लीहा आदि भीतरी अंगों की तुलना ।
भावार्थ
( श्येनस्य) बाज के समान तीव्र वेग से शत्रु पर आक्रमणकारी राजा की ( स्थालीः) राज्य स्थापन की शक्तियां (आन्त्राणि) शरीर में आँतों के समान राष्ट्ररूप ऐश्वर्य का भीतर ही उपयोग करती हैं । वे (पात्राणि) पालन करने वाले अधिकारी शासकों के पद, शरीर में (मधु पिन्वमाना:) अन्न रस को शरीर में पहुँचा देने वाले (गुदाः) गुदागत स्थूल नाड़ियों के समान, आनन्द या मधु ऐश्वर्यं को सर्वत्र पहुँचाने हारे हैं और ( सुदुघा) ऐश्वर्यों की देने वाली यह पृथ्वी (धेनुः न) दुधार गौ के समान है । शरीर मैं (प्लीहा न) तिल्ली जिस प्रकार शरीरस्थ विकारों को नाश करती है उसी प्रकार ( श्येनस्य) बाज के समान शत्रु पर झपटने वाले वीर पुरुष का ( पत्रम् ) तलवार या विजय रथ है । ( नाभिः आसन्दी ) जिस प्रकार शरीर में नाभि केन्द्र है, नाड़ियाँ वहां सब सम्बन्ध हैं उसी प्रकार 'आसन्दी ' राजा के बैठने की गद्दी या राजधानी है। जिस प्रकार (उदरं न माता) शरीर में उदर, पेट समस्त अन्नों को लेकर रस ग्रहण करता और अपरस वा मल को बाहर निकालता है उसी प्रकार राजा की 'माता' उसको उत्पन्न करने वाली 'माता' ज्ञान करने हारी परिषद्, सत्य- असत्य, ग्राह्य-अग्राह्य का विवेक करती है। वह (शचीभिः) अपनी प्रज्ञाओं और शक्तियों से राज्य का सञ्चालन करती है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अश्व्यादयः। सविता | त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अङ्ग-प्रत्यङ्ग
पदार्थ
१. गतमन्त्र के 'सुत्रामा इन्द्र' की (मधु) = मधुरगुणान्वित अन्न को (पिन्वमानाः) = सेवन करती हुई (अन्त्राणि) = [ अन्नपाकाधारा नाड़ी :- द० ] अन्न का परिपाक करनेवाली नाड़ियाँ (स्थाली:) = [यासु पच्यन्ते अन्नानि] उखा [पतीली] होती हैं। जैसे पतीली में अन्न का परिपाक करते हैं, इसी प्रकार इन नाड़ियों में अन्नपाचन क्रिया चलती है। २. (गुदाः) = मल को दूर करनेवाली इन्द्रियाँ ही (पात्राणि) - [ पा रक्षणे] रक्षिका होती हैं। इन इन्द्रियों के ठीक कार्य करने पर ही शरीर का रक्षण निर्भर है। ३. (न) और (धेनुः) = [गौर्नाडी धमनिः धेनुरित्यर्थान्तरम्] नाड़ियाँ व धमनियाँ (सुदुघा) = [दुह प्रपूरणे] उत्तमत्ता से प्रपूरण करनेवाली हैं। शरीर में उस उस स्थान पर आवश्यक रुधिर को पहुँचानेवाली होती हैं। ४. (न) = और (प्लीहा) - तिल्ली (श्येनस्य पत्रम्) = बाज़ के पंख के समान है। प्लीहा का आकार श्येन पंख - सा है। जैसे पंख श्येन की उड़ान का कारण होता है, उसी प्रकार प्लीहा अविकृत होने पर मनुष्य के उत्साह का कारण बनती है, विकृत होकर मनुष्य को उदासीन कर देती है। ५. (शचीभिः) = सब प्रज्ञाओं व कर्मों का अधिष्ठान होने से (नाभिः) = नाभि (आसन्दी) = राजपीठ के समान है, इसी नाभि में सब प्रज्ञान व कर्म सम्बद्ध हैं । ६. (न) = और (उदरम्) = उदर तो (माता) = सम्पूर्ण रुधिर आदि का निर्माण करनेवाला है ही।
भावार्थ
भावार्थ - [क] जिस समय हमारी आँतें अन्न का ठीक परिपाक करेंगी, [ख] गुदा आदि इन्द्रियाँ मल के दूरीकरण से रक्षिका होंगी, [ग] धमनियाँ रुधिरादि का ठीक पूरण करेंगी [घ] प्लीहा अविकृत होकर हमारे उत्थान का कारण बनेगा, [ङ] नाभि सब शक्तियों व प्रज्ञानों का आधार बनेगी और [च] उदर रुधिरादि का निर्माण करेगा, तभी हम पूर्ण स्वस्थ बनेंगे।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालांकार आहे. जी माणसे उत्तम प्रकारे संस्कारित केलेले अन्न व रसांनी शरीर रोगरहित करण्याचा प्रयत्न करतात, ते इष्ट सुख प्राप्त करतात.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - युक्ती (व उपाययोजना जाणणाऱ्या) माणसाने (शचीभिः) उत्तम विचार व श्रेष्ठ कर्म करीत (पद्धती आणि व्यवहाराचे पूर्ण ज्ञान प्राप्त करून) (स्थालीः) दाळ आदी पदार्थ शिजविण्याचे पात्र आगीवर ठेऊन त्यात औषधीचा पाक तयार करावा. (पुन्हा त्या पाकप्त) (मधु) मध मिसळून जेवण करावे. (आन्त्राणि) पोटात अन्नपाचन करणाऱ्या आंत्र अथवा नाडीमधे (पिन्वमानाः) जाऊन ते अन्न (पचन होऊन) पुढील सुखासां (गुदाः) गुदा आदी इन्द्रियांपर्यंत जाते (पात्राण) ज्या पात्रात भोजन केले असेल ती पात्रें स्वच्छ करावीत) (सुद्धा) दूध आदी पुष्टिकारक पदार्थ देऊन जी मनुष्यांच्या इच्छा पूर्ण करते, त्या (धेनुः) गायी (न) प्रमाणे इच्छा पूर्ण करणारा (मानवशरीरात एक अवयव) (प्लीहा) रक्त शुद्ध करणारे आहे, म्हणजे (प्लीहा-पानथरी) या शिवाय (श्येवस्य) श्येन (बहिरीससाणा) पक्ष्याच्या (पत्रम्) पंखा (न) प्रमाणे आणि (माता) (न) मातेप्रमाणे शरीरात (आसन्दी) सर्व प्रकारे शरीराला रस पुरविणाऱ्या ज्या (नाभिः) नाभी आणि नाड्या आहेत, त्या (उदरम्) पोटाला पुष्ट करतात. (यकृत्-प्लीहा, नाडी, हे व इतर अवयव शरीराला अन्नपचन. शुद्धीकरण आणि पोषण या कार्यात साहाय्य करतात) ॥86॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. (श्येनस्य, न आणि माता न, ह्या दोन उपमा आहेत) जे लोक उत्तम प्रकारे तयार केलेल्या शुद्ध पौष्टिक अन्नाचे सेवन करून त्या रसांद्वारे शरीराला नीरोग ठेवण्यासाठी प्रयत्न करतात, ते इच्छित सुख प्राप्त करतात ॥86॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Entrails in the body are the cauldron for cooking food in which honey is mixed, bowels are the pans. This earth the bestower of glory is like a well-milking cow. A hawks wing is the spleen. Navel, the centre of all strength is like the kings cushion. Belly is like a mother.
Meaning
The intestines in the human body system (yajna) are like the cooking pans preparing delicious food for the vital fire. The bowels are like milk-pots or the udders of an abundant milch cow. The spleen, pancreas and liver are powerful defensive organs like the wings of an eagle pouncing on disease-attacks. The navel with its energizing actions is like the royal seat of power. And the stomach, to all the body parts, as the mother- host, distributes holy food among all members of the yajnic family.
Translation
The intestines are cooking pots full of sweet food; the bowels are pans full of food-sap like a good milch-cow. Like a hawk's wing is the spleen; the navel and belly with its mighty functions, is the main base like a mother. (1)
Notes
Gudāḥ, bowels. Pliha, spleen. Āsandi, base. Nabhiḥ, navel.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যুক্তি সম্পন্ন পুরুষের উচিত যে, (শচীভিঃ) উত্তম বুদ্ধি ও কর্ম দ্বারা (স্থালীঃ) ডাইলাদি রন্ধনের বাসনকে অগ্নির উপর রাখিয়া ওষধিসমূহের পাক তৈরী করিবে (মধু) তন্মধ্যে মধু মিশ্রিত ভোজন করিয়া (আন্ত্রাণি) উদরস্থ অন্নপাকাধার নাড়িদেরকে (পিন্বমানা) সেবন করিয়া প্রীতি হেতু (গুদাঃ) গুদেন্দ্রিয়াদি তথা (পাত্রাণি) যদ্দ্বারা পানাহার করা হয় সেই সব পাত্রকে (সুদুঘা) দুগ্ধাদি দ্বারা কামনা সিদ্ধকারী (ধেনুঃ) গাভির (ন) সমান (প্লীহা) রক্তশোধক লৌহপিণ্ড (শ্যেনস্যঃ) শ্যেন পক্ষীর তথা (পত্রম্) পক্ষের (ন) সমান (মাতা) এবং মাতার (ন) তুল্য সব দিক দিয়া রস প্রাপ্তকারী (নাভিঃ) নাভি নাড়ি (উদরম্) উদরকে পুষ্ট করে ॥ ৮৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্যগণ উত্তম সংস্কার কৃত উত্তম অন্ন এবং রসের দ্বারা শরীরকে রোগরহিত রাখিয়া প্রযত্ন করে তাহারা অভীষ্ট সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৮৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ॒ন্ত্রাণি॑ স্থা॒লীর্মধু॒ পিন্ব॑মানা॒ গুদাঃ॒ পাত্রা॑ণি সু॒দুঘা॒ ন ধে॒নুঃ ।
শ্যে॒নস্য॒ পত্রং॒ ন প্লী॒হা শচী॑ভিরাস॒ন্দী নাভি॑রু॒দরং॒ ন মা॒তা ॥ ৮৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আন্ত্রাণীত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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