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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    कस्मा॒दङ्गा॑द्दीप्यते अ॒ग्निर॑स्य॒ कस्मा॒दङ्गा॑त्पवते मात॒रिश्वा॑। कस्मा॒दङ्गा॒द्वि मि॑मी॒तेऽधि॑ च॒न्द्रमा॑ म॒ह स्क॒म्भस्य॒ मिमा॑नो॒ अङ्ग॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कस्मा॑त् । अङ्गा॑त् । दी॒प्य॒ते॒ । अ॒ग्नि: । अ॒स्य॒ । कस्मा॑त् । अङ्गा॑त् । प॒व॒ते॒ । मा॒त॒रिश्वा॑ । कस्मा॑त् । अङ्गा॑त् । वि । मि॒मी॒ते॒ । अधि॑ । च॒न्द्रमा॑: । म॒ह: । स्क॒म्भस्य॑ । मिमा॑न: । अङ्ग॑म् ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्मादङ्गाद्दीप्यते अग्निरस्य कस्मादङ्गात्पवते मातरिश्वा। कस्मादङ्गाद्वि मिमीतेऽधि चन्द्रमा मह स्कम्भस्य मिमानो अङ्गम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कस्मात् । अङ्गात् । दीप्यते । अग्नि: । अस्य । कस्मात् । अङ्गात् । पवते । मातरिश्वा । कस्मात् । अङ्गात् । वि । मिमीते । अधि । चन्द्रमा: । मह: । स्कम्भस्य । मिमान: । अङ्गम् ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [सर्वव्यापक ब्रह्म] के (कस्मात् अङ्गात्) कौन से अङ्ग से (अग्निः) अग्नि (दीप्यते) चमकता है, (कस्मात् अङ्गात्) कौन से अङ्ग से (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला [वायु] (पवते) झोंके लेता है। (कस्मात् अङ्गात्) कौन से अङ्ग से (महः) विशाल (स्कम्भस्य) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] के (अङ्गम्) अङ्ग [स्वरूप] को (मिमानः) मापता हुआ (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (वि) विविध प्रकार (अधि मिमीते) [अपना मार्ग] मापता रहता है ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(कस्मात् अङ्गात्) (दीप्यते) प्रकाशते (अग्निः) प्रसिद्धो वह्निः (अस्य) परमेश्वरस्य (पवते) पवते गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। आकाशे गन्ता वायुः (वि) विविधम् (मिमीते) मानं करोति स्वमार्गस्य (अधि) उपरि (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (महः) महतः (स्कम्भस्य) स्कभि प्रतिबन्धे-अच्। स्तम्भस्य। सर्वधारकस्य परमेश्वरस्य (मिमानः) मानं कुर्वाणः (अङ्गम्) स्वरूपम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    कौन-से अङ्ग से 'अग्नि, वायु व चन्द्र' का निर्माण?

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस स्कम्भ-सर्वाधार-प्रभु के (कस्मात् अङ्गात्) = किस अङ्ग से अग्रिः दीप्यते अग्नि दीप्त होती है? (मातरिश्वा) = वायु (कस्मात् अङ्गात् पवते) = किस अङ्ग से बहनेबाला होता है? (चन्द्रमा:) = यह आहादजनक ज्योतिबाला चन्द्र (महः स्कम्भस्य) = उस पूजनीय [महान्] सर्वाधार प्रभु के (अङ्गम् मिमान:) = स्वरूप को प्रकट करता हुआ-प्रभु की महिमा का प्रकाश करता हुआ-(कस्मात् अङ्गात्) = किस अङ्ग से (वि) = विविध प्रकार से (अधिमिमीते) = अपना मार्ग मापता रहता है? यह कभी सोलह कलाओंवाला व कभी निष्कल दीखता है। यह व्यवस्था भी कितनी कौतूहलकारी है।

    भावार्थ

    ब्रह्मजिज्ञासु जिज्ञासा करता है कि उस स्कम्भ में किन-किन अङ्गों से इन 'अग्नि, वायु व चन्द्रमा' आदि देवों का प्रकाश होता है?

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    भाषार्थ

    (अस्य) इसके (कस्मात् अङ्गात्) किस अङ्ग या सामर्थ्य से (अग्निः दीप्यते) अग्नि प्रदीप्त होती है, (कस्मात् अङ्गात्) किस अङ्ग या सामर्थ्य से (मातरिश्वा) अन्तरिक्षस्थ वायु (पवते) गति करती है। (कस्मात् अङ्गात्) किस अङ्ग या सामर्थ्य से (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (अधि विमिमीते) मापता है, (महः स्कम्भस्य) महा-स्कम्भ के (मिमानः अङ्गम्) अङ्ग या सामर्थ्य को मापता हुआ।

    टिप्पणी

    [चन्द्रमा पश्चिम दिशा से उदित होता है, और प्रतिरात्रि पूर्वदिशा की ओर क्रमशः बढ़ता जाता है, मानो वह क्रमशः आगे-आगे बढ़ता हुआ स्कम्भ की महत्ता को मापता है। "मातरिश्वा = मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आश्वनितीति वा, वायुः" (निरुक्त ७।७।२६), मातरिश्वा वायु है, जो कि मातृरूप अन्तरिक्ष में श्वास-प्रश्वास की क्रिया कर रहीं है, या श्वास-प्रश्वास कराती है, अथवा मातृरूप अन्तरिक्ष में "आशु" शीघ्र, "अनिति" प्राणप्रदा हो रही है "अन् प्राणने" (आदादिः)। अथवा मातरिश्वा= मातरि + श्वा (श्वि= टुओश्वि 'गतिवृद्ध्योः, भ्वादिः), जो अन्तरिक्ष में गति करती है, और प्रवृद्ध होती है वह, वायु। अन्तरिक्ष को माता कहा है, क्योंकि अन्तरिक्ष में मेघ आदि का निर्माण होता है]।

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    मन्त्रार्थ

    (अस्य-कस्मात्-अङ्गात् अग्निः-दीप्यते) इस आधाररूप परब्रह्म के किसी भी अङ्ग या प्रदेश से पृथिवी लोक से अग्नि प्रकाशित होता है (कस्मात्-अङ्गात् मातरिश्वा-पवते) किसी एक देश अन्तरिक्ष से वायु गति करता है - प्रवाहित होता है । "पवते गतिकर्मा” (निघ० २।१४) (कस्मात्-अङ्गात्-चन्द्रमा:-अधिविमिमीते) किसी भी देश नाक्षत्रदेश से उसके अधिकृत चन्द्रमा विविध रूप से अपने को व्यक्त करता है (मह:-अङ्गं-मिमानः) और महान् अङ्ग-स्वाङ्ग को विशेष मान देता हुआ सूर्य वर्तता है "सूर्य इति प्रसङ्गात्" ॥२॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    From which part and power of it does fire bum and shine? From which part or power of it does the wind blow across the firmament? From which part, by what power, does the moon traverse the space, covering which part of mighty Skambha?

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    Translation

    From which part of him the fire (agnih) blazes up; from which part blows the impetuous wind (mātarisvan); from which part of him the moon '(candramas) traverses across measuring out a part of the mighty skambha (the support of the universe).

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    Translation

    Out of which part of member of this glows the refulgence of fire and from which member of this proceeds the blowing of the wind. From what part of the Supreme Supporting Divinity moon measuring the destined journey measures out its path?

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    Translation

    Out of which part glows the light of fire? From which blows air? From which doth Moon shine, exhibiting the nature of Mighty God?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(कस्मात् अङ्गात्) (दीप्यते) प्रकाशते (अग्निः) प्रसिद्धो वह्निः (अस्य) परमेश्वरस्य (पवते) पवते गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। आकाशे गन्ता वायुः (वि) विविधम् (मिमीते) मानं करोति स्वमार्गस्य (अधि) उपरि (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (महः) महतः (स्कम्भस्य) स्कभि प्रतिबन्धे-अच्। स्तम्भस्य। सर्वधारकस्य परमेश्वरस्य (मिमानः) मानं कुर्वाणः (अङ्गम्) स्वरूपम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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