अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 42
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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त॒न्त्रमेके॑ युव॒ती विरू॑पे अभ्या॒क्रामं॑ वयतः॒ षण्म॑यूखम्। प्रान्या तन्तूं॑स्ति॒रते॑ ध॒त्ते अ॒न्या नाप॑ वृञ्जाते॒ न ग॑मातो॒ अन्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत॒न्त्रम् । एके॒ इति॑ । यु॒व॒ती इति॑ । विरू॑पे इति॒ विऽरू॑पे । अ॒भि॒ऽआ॒क्राम॑म् । व॒य॒त॒: । षट्ऽम॑यूखम् । प्र । अ॒न्या । तन्तू॑न् । ति॒रते॑ । ध॒त्ते । अ॒न्या । न । अप॑ । वृ॒ञ्जा॒ते॒ इति॑ । न । ग॒मा॒त॒: । अन्त॑म् ॥७.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्त्रमेके युवती विरूपे अभ्याक्रामं वयतः षण्मयूखम्। प्रान्या तन्तूंस्तिरते धत्ते अन्या नाप वृञ्जाते न गमातो अन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठतन्त्रम् । एके इति । युवती इति । विरूपे इति विऽरूपे । अभिऽआक्रामम् । वयत: । षट्ऽमयूखम् । प्र । अन्या । तन्तून् । तिरते । धत्ते । अन्या । न । अप । वृञ्जाते इति । न । गमात: । अन्तम् ॥७.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(एके) अकेली-अकेली दो (युवती) युवा स्त्रियाँ [वा संयोग-वियोग स्वभाववाली] (विरूपे) विरुद्ध स्वरूपवाली [दिन और रात्रि की वेलाएँ] (अभ्याक्रामम्) परस्पर चढ़ाई करके (षण्मयूखम्) छह [पूर्वादि चार और ऊपर नीचे की दो दिशाओं] में परिमाण वा गतिवाले (तन्त्रम्) तन्त्र [जाल अर्थात् काल] को (वयतः) बुनती हैं। (अन्या) कोई एक (तन्तून्) तन्तुओं [तागों अर्थात् प्रकाश वा अन्धकार] को (प्र तिरते) फैलाती है, (अन्या) दूसरी [उन्हें] (धत्ते) समेट धरती है। वे दोनों [उन्हें] (न अप वृञ्जाते) न छोड़ बैठती हैं (न) न (अन्तम्) अन्त तक (गमातः) पहुँचती हैं ॥४२॥
भावार्थ
जैसे दिन और राति की वेलाएँ परस्पर विरुद्ध अर्थात् श्वेत और काली होकर भी प्रीतिपूर्वक परमेश्वर की आज्ञा में चलकर संसार में परिगणनीय काल बनाती हैं, वैसे ही सब मनुष्य परस्पर मित्र होकर ईश्वर की आज्ञापालन में सदा तत्पर रहें ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(तन्त्रम्) तनु विस्तारे-ष्ट्रन्। विस्तारम्। कालरूपजालम् (एके) एकैके (युवती) तरुणस्त्रियौ यथा। संयोगवियोगस्वभावे (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (अभ्याक्रामम्) आभीक्ष्ण्ये णमुल् च। पा० ३।४।२२। अभि+आङ्+क्रमु पादविक्षेपे-णमुल्। परस्परमतिक्रम्य (वयतः) तन्तुरूपेण विस्तारयतः (षण्मयूखम्) माङ ऊखो मय च। उ० ५।२५। माङ् माने ऊख, धातोर्मयादेशः यद्वा मय गतौ-ऊख। षट्सु दिक्षु मयूखो मानं गतिर्वा यस्य तत् (अन्या) एका (तन्तून्) प्रकाशान्धकाररूपाणि सूत्राणि (प्रतिरते) वर्धयति। विस्तारयति (धत्ते) धरति (अन्या) (न) निषेधे (अप वृञ्जाते) अपत्यजतः (न) (गमातः) लङर्थे लेट्। गच्छतः। प्राप्नुतः (अन्तम्) सीमाम् ॥
विषय
विरूपे युवती
पदार्थ
१. (एके) = कोई दो (युवती) = एक-दूसरे से नित्य संगत [यु मिश्रणे] (विरूपे) = तमः व प्रकाशमय विरुद्धरूपवाली उषा व रात्रिरूप तरुणियाँ (अभ्याक्रामम्) = बार-बार आ-आ और जा-जाकर (पण्मयूखम्) = छह दिशाओं व छह ऋतुओंवाले विश्वरूप (तन्त्रम्) = जाल को (वयतः) = बुन रही हैं। २. इनमें से (अन्या) = एक उषारूप युवति (तन्तून) = सूर्यकिरणरूप तन्तुओं को (प्रतिरते) = फैलाती है, (अन्या) = दूसरी रात्रिरूप युवति (धत्ते) = उन सब किरणों को अपने अन्दर समेट लेती है। (न अपवृकञ्जाते) = वे दोनों कभी अपने कार्य को नहीं छोड़ती-विश्राम नहीं लेती, (न अन्तं गमातः) = न ही कार्य के अन्त तक पहुँचती हैं। उषा और रात्रि के रूप में यह कालचक्र चलता ही रहता है।
भावार्थ
उषा व रात्रिरूप युवतियों द्वारा छह ऋतुओंवाला कालरूप जाल बुना जा रहा है, निरन्तर बुना जा रहा है-पर यह बुनाई चल ही रही है-इसका कहीं अन्त ही नहीं आता।
भाषार्थ
(एके) दो कोई (विरूपे) विरुद्धरूपों वाली (युवती) युवतियां (अभ्याकामम्) एक-दूसरे की ओर पादविक्षेप करती हुई, आती हुई (षणमयूखम्) ६ मयूखों वाले (तन्त्रम्) पट को (वयतः) बुनती हैं। (अन्या) एक (तन्तून्) तन्तुओं को (प्रतिरते) फैलाती है, (अन्या) दूसरी (धत्ते) निज में उसे धारण कर लेती है, (न अपवृञ्जाते) न तो इस कर्म से वे अलग होती हैं (न अन्तम् गमातः) और न इस कर्म की समाप्ति को प्राप्त होती हैं। षण्मयूखम् = ६ खूंटे। खूटों पर ताना तान कर पट बुना जाता है। संसारपट के बुनने में ६ दिशाएं, ६ खूटे हैं। ६ दिशाएं = पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ध्रुवा और ऊर्ध्वा।
टिप्पणी
[ये दो युवतियां हैं सृष्टि-सर्जन शक्ति तथा सृष्टि-प्रलयन शक्ति। सर्जनशक्ति तो संसार के सर्जन के लिये प्रकृतिरूपी तन्तुओं को फैलाती है, और प्रलयन-शक्ति इन तन्तुओं को निज स्वरूप में धारण करती रहती है। ये दोनों अर्थात् उत्पादन और विनाश जगत् में सदा चलते रहते हैं, एक-दूसरे के अभिमुख हो कर आक्रमण करते हैं। पट है संसार-पट। तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।५।५१) में दो युवतियों को "स्वसारौ" कहा है, और "तन्त्रम्" को "सनातनम्', कहा है। इस द्वारा "तन्त्रम्" जगत अर्थात् संसार प्रतीत होता है। संसार पैदा भी होता रहता है, और इसका प्रलय भी होता रहता है - यह सनातन नियम है। उत्पत्ति और प्रलय, ये दोनों विरूप है। ये दोनों "स्वसारौ" हैं, परमेश्वरीय नियम द्वारा स्वयमेव सरण करती रहती हैं, और सर्जन-प्रलय स्वभावतः सदा होते रहते हैं]।
विषय
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
मन्त्रार्थ
(एके विरूपे युवती) एक लक्ष्यवाली भिन्न-भिन्न रूप वाली दो मिश्रण स्वभाववाली रजोवीर्यशक्तियां (परामयूखं तन्त्रम्-अभ्याक्रमं वयतः) रस, रक्त, मांस ये तीन रेतः शक्तियों से तथा स्त्राव - नाडी तन्तु जाल, मज्जा-चर्बी, अस्थी-हड्डी ये तीन वीर्यशक्तियों से । 'इस प्रकार ये छः धातुएं कील के समान जिसमें हैं' ऐसे शरीर तानें वाने को परस्पर सहयोग के साथ बुनती हैं- विस्तृत करती हैं (अन्य तन्तून् प्रतिरते-अन्या धत्ते) उन दोनों में से एक नलिका समान वीर्यशक्ति सन्तानतन्तुओं को बिखेरती है - डालती है उससे भिन्न दूसरी रजः शक्ति सन्धान करती है उनको मिलाती है (न-अपवृञ्जाते न अन्तं गमातः ) एवं ये दोनों शक्तियां सन्तानकार्य से अलग न होती हैं न कार्य का अन्त प्राप्त करती हैं, इस प्रकार संसार प्रवर्तित रहता है ॥४२॥
विशेष
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Two young maidens both different in form and colour, different in form and function, separately yet together facing each other weave the six-dimensional structure and texture of the world of existence. One spins out the threads, the other receives and fits them into form and design. They neither forsake this work nor rest nor do they take it to the end. (The two maidens can be interpreted as day and night or as the creative and consumptive aspects of the process of natural evolution.)
Translation
Two single maidens of diverse appearance, are weaving a six-pegged warp (san-mayukham) approaching it again and again. One of them spreads out the yarns (laritunstirate); the other one lays them. They do not take rest; nor do they come to the end (of their work).
Translation
Singly the two ever young twain of night and day quite different from each other weave the six-pegged (i.e. Six directions including four cornors, above and below) time infrequency. The one of the two draws out the thread and the other lays them. They do not break them and do not reach at an and in their operation.
Translation
Singly the two young Maids (Day and Night) of different colors (bright and dark) approach the six seasoned warp of the year in turns and weave it. The one (day) draws out the threads, the other (night) lays them: they never take rest, they reach no end of labour.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(तन्त्रम्) तनु विस्तारे-ष्ट्रन्। विस्तारम्। कालरूपजालम् (एके) एकैके (युवती) तरुणस्त्रियौ यथा। संयोगवियोगस्वभावे (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (अभ्याक्रामम्) आभीक्ष्ण्ये णमुल् च। पा० ३।४।२२। अभि+आङ्+क्रमु पादविक्षेपे-णमुल्। परस्परमतिक्रम्य (वयतः) तन्तुरूपेण विस्तारयतः (षण्मयूखम्) माङ ऊखो मय च। उ० ५।२५। माङ् माने ऊख, धातोर्मयादेशः यद्वा मय गतौ-ऊख। षट्सु दिक्षु मयूखो मानं गतिर्वा यस्य तत् (अन्या) एका (तन्तून्) प्रकाशान्धकाररूपाणि सूत्राणि (प्रतिरते) वर्धयति। विस्तारयति (धत्ते) धरति (अन्या) (न) निषेधे (अप वृञ्जाते) अपत्यजतः (न) (गमातः) लङर्थे लेट्। गच्छतः। प्राप्नुतः (अन्तम्) सीमाम् ॥
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