अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 27
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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यस्य॒ त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वा अङ्गे॒ गात्रा॑ विभेजि॒रे। तान्वै त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वानेके॑ ब्रह्म॒विदो॑ विदुः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । दे॒वा: । अङ्गे॑ । गात्रा॑ । वि॒ऽभे॒जि॒रे । तान् । वै । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । दे॒वान् । एके॑ । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । वि॒दु॒: ॥७.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त्रयस्त्रिंशद्देवा अङ्गे गात्रा विभेजिरे। तान्वै त्रयस्त्रिंशद्देवानेके ब्रह्मविदो विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । त्रय:ऽत्रिंशत् । देवा: । अङ्गे । गात्रा । विऽभेजिरे । तान् । वै । त्रय:ऽत्रिंशत् । देवान् । एके । ब्रह्मऽविद: । विदु: ॥७.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) यजनीय [पूजनीय परमेश्वर] के (अङ्ग) अङ्ग में [वर्तमान] (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (देवाः) देवों [दिव्य पदार्थों] ने (गात्रा) अपने गातों को (विभेजिरे) अलग-अलग बाँटा था। (तान् वै) उन्हीं (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (देवान्) देवों को (एके) कोई-कोई (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी (विदुः) जानते हैं ॥२७॥
भावार्थ
आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, एक इन्द्र और एक प्रजापति [भावार्थ मन्त्र १३ तथा २३ देखो] परमात्मा में वर्तमान रहकर जगत् के सब प्राणियों का पालन-पोषण और धारण विविध प्रकार करते हैं, इस मर्म को विरले तत्त्ववेत्ता जानते हैं ॥२७॥
टिप्पणी
२७−(यस्य) यज पूजने−ड। यजनीयस्य पूजनीयस्य परमेश्वरस्य (त्रयस्त्रिंशत्) म० १३ (देवाः) दिव्यपदार्थाः (अङ्गे) अवयवे (गात्रा) अवयवान् (विभेजिरे) विभक्तवन्तः (तान्) (वै) एव (त्रयस्त्रिंशत्) (देवान्) (एके) केचित् (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (विदुः) जानन्ति ॥
विषय
महादेव के अङ्गभूत तेतीस देव
पदार्थ
१. (यस्य अङ्गे) = जिस विराट् पुरुष के शरीर में (त्रयस्त्रिंशद् देवा:) = तेतीस देव गात्रा (विभेजिरे) = भिन्न-भिन्न अङ्गों का सेवन करते हैं। विराट् पुरुष के भिन्न-भिन्न अङ्गही ये देव हैं। (तान् त्रयस्त्रिंशद् देवान) = उसे विराट् पुरुष के भिन्न-भिन्न अङ्गभूत तेतीस देवों को (एके ब्रह्मविदः) = केवल ब्रह्मज्ञानी लोग ही (वै) = निश्चय से (विदुः) = जानते हैं।
भावार्थ
तेतीस देवों के आधारभूत वे चौंतीसवें महादेव हैं। सर्वाधार होने से वे 'स्कम्भ' हैं।
भाषार्थ
(त्रयस्त्रिंशद् देवाः) ३३ देवों ने (यस्य अङ्गे) जिसके अङ्ग में से (गात्रा = गात्राणि) निज गात्रों अर्थात् स्वरूपों को (विभेजिरे) विभक्त किया है, (तान्) उन (त्रयस्त्रिंशद् देवान्) ३३ देवों को (एके) केवल या कई (ब्रह्मविदः) वेदवेत्ता या ब्रह्मवेत्ता (वै) ही (विदुः) जानते हैं।
टिप्पणी
[३३ देवों के लिये देखो मन्त्र (१३)]।
मन्त्रार्थ
(यस्य त्रयस्त्रिंशत्-देवाः गात्रा विभेजिरे) जिस सर्वाधार परमात्मा के अङ्ग-अव्यक्त प्रकृति नामक में पूर्वोक तैंतीस देव गात्रभूत विभक्त हो गये हैं (तान्-त्रयस्त्रिंशत्देवान्-वै-एके ब्रह्मविदः-विदुः) उन तेंतीस देवों को कुछेक ब्रह्मवेत्ता जानते हैं ॥२७॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
In whose (i.e., Skambha’s) one divine wing of creation in the evolutionary process, thirty three Devas take their own specific forms and functions, these thirty- three divinities also, in their forms and functions, some Brahma-realised sages know.
Translation
In whose parts of the body, the thirty-three enlightened ones (33 devas) have divided themselves - only they, who have realized the Lord supreme, know those thirty-three enlightened ones.
Translation
The thirty three cosmic elements within His body are disposed as limbs and some learned men who knows about universe and it’s master knows about universe and its master knows those thirty-three cosmic powers.
Translation
The three and thirty forces of Nature constitute a part of Him, disposed as limbs. Only those deeply versed in Holy Lore know these three and thirty forces.
Footnote
Thirty-three forces: Eight Vasus. Eleven Rudras, Twelve Adityas, Indra and Yajna, For detailed explanation see verse 13.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(यस्य) यज पूजने−ड। यजनीयस्य पूजनीयस्य परमेश्वरस्य (त्रयस्त्रिंशत्) म० १३ (देवाः) दिव्यपदार्थाः (अङ्गे) अवयवे (गात्रा) अवयवान् (विभेजिरे) विभक्तवन्तः (तान्) (वै) एव (त्रयस्त्रिंशत्) (देवान्) (एके) केचित् (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (विदुः) जानन्ति ॥
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