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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 44
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - एकावसाना पञ्चपदा निचृत्पदपङ्क्तिर्द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    इ॒मे म॒यूखा॒ उप॑ तस्तभु॒र्दिवं॒ सामा॑नि चक्रु॒स्तस॑राणि॒ वात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । म॒यूखा॑: । उप॑ । त॒स्त॒भु॒: । दिव॑म् । सामा॑नि । च॒क्रु॒: । तस॑राणि । वात॑वे ॥ ७.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे मयूखा उप तस्तभुर्दिवं सामानि चक्रुस्तसराणि वातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । मयूखा: । उप । तस्तभु: । दिवम् । सामानि । चक्रु: । तसराणि । वातवे ॥ ७.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 44
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमे) इन (मयूखाः) ज्ञानप्रकाशों ने (दिवम्) आकाश [ब्रह्माण्ड] को (उप तस्तभुः) धारण किया था और (तसराणि) विस्तारों को (वातवे) पाने के लिये (सामानि) मोक्षज्ञानों को (चक्रुः) बनाया था ॥४४॥

    भावार्थ

    सूक्तोक्त ईश्वरीय ज्ञानों द्वारा यह सब संसार स्थित है, और इन्हीं की पूर्ण प्राप्ति से मनुष्य मोक्षसुख द्वारा अपना विस्तार करते हैं ॥४४॥

    टिप्पणी

    ४४−(इमे) सूक्तोक्ताः (मयूखाः) माङ ऊखो मय च। उ० ५।२५। माङ् माने ऊख, धोतोर्मयादेशः, यद्वा, मय गतौ ऊख। मयूखाः, रश्मिनाम-निघ० १।५। ज्ञानप्रकाशाः (उप) (तस्तभुः) नलोपः। तस्तम्भुः। दधुः (दिवम्) आकाशम्। तत्रत्यब्रह्माण्डम् (सामानि) म० २०। मोक्षज्ञानानि (चक्रुः) कृतवन्तः (तसराणि) तन्यृषिभ्यां क्सरन्। उ० ३।७५। तनु विस्तारे क्सरन्, कित्त्वादनुनासिकलोपः। विस्तारान् (वातवे) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। वा गतिगन्धनयोः-तवेन्। प्राप्तुम् ॥

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    विषय

    मयूखा:-सामानि

    पदार्थ

    १. (इमे) = ये (मयूखा:) = ज्ञानरश्मियाँ (दिवं उपतस्तभुः) = मस्तिष्करूप धुलोक को थामनेवाली बनती हैं। जब साधक प्रभु से रचे हुए इस सृष्टियज्ञ को समझने का प्रयत्न करता है, तब उसका मस्तिष्क धीमे-धीमे ज्ञानरश्मियों से दीस हो उठता है। ये ज्ञानी पुरुष (सामानि) = साममन्त्रों द्वारा उपासनाओं को (चक्रु:) = करते हैं। ये साम (तसराणि) = [तस् उपक्षये] सब दुःखों का उपक्षय करनेवाले होते हैं, तथा (वातवे) = गति द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाले होते हैं [वा गतिगन्धनयोः]।

    भावार्थ

    साधक लोग ज्ञान द्वारा मस्तिष्क को दीस करते हुए उपासना द्वारा सब बुराइयों व दु:खों को दूर करते हैं।

    आठवें सूक्त का ऋषि 'कुत्स' है [कुथ हिंसायाम्]-सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला। यह प्रभु-स्मरण करता हुआ ही ऐसा बन पाता है। यह स्तवन करता हुआ कहता है कि -

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    भाषार्थ

    (इमे) इन (मयूखाः) ज्ञानरश्मियों ने (दिवम्) ज्योतिर्मय नाक का (उपतस्तभुः) थामा हुआ है, इन ज्ञानरश्मियों ने (वातवे) बाना बुनने के लिये (सामानि) सामगानों को (तसराणि) वेमा (चक्रुः) किया है।

    टिप्पणी

    [नाक अर्थात् मोक्ष पट के लिये "ज्ञान" है ताना और उपासना है बाना और सामगान हैं तसर अर्थात् वेमा। तसर या वेमा को हिन्दी में "ढरकी" और "सर" कहते हैं। यह बुनने का उपकरण है जिस द्वारा ताना में बाना बुना जाता है, पिरोया जाता है। ज्ञान के सम्बन्ध में कहा है कि "ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः" अर्थात् "ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती"। उपासना है "ध्येय के समीप बैठना" उप+आसना, "समीप उपविष्ट" होना। जब तक ज्ञानी ध्येय परमेश्वर के समीप बैठकर उस का साक्षात् नहीं कर लेता तब तक उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। इस उपासना का साधन है "सामवेद के भक्तिगान"]।

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    मन्त्रार्थ

    (इमे मयूखाः-दिवम्-उपतस्तभुः ) ये मयूख-रश्मियाँ "मयूखाः-रश्मयः” निघ० १।५) जैसे द्युलोक को ऊपर उठाए हुये हैं ऐसे 'रस, रक्त, मांस, स्नाव, हड्डी, मज्जा' मयूख भी शरीर को सम्हाल रही है (वातवे तसराणि सामानि चक्रुः) संसार और शरीर को चुनने-तानने को सूक्ष्मरूप तन्तुतत्त्वत्र को समभाव से करते हैं - यथावत् करते हैं ॥ ४४ ॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    These dimensions of space and time and the rays of the light of omniscience uphold the warp and woof of existence unto the heavens of light, and they create the Samans of knowledge and divine devotion and joy and also the shuttles for weaving of the web of existence for man’s rise to the heaven of joy beyond pleasure and pain.

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    Translation

    These pegs hold heaven steady. They have made the Saman Chants the shuttles for weaving.

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    Translation

    These pegs, (6 directions) have held the heavenly region and the Samans, have turned them into shuttles for weaving.

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    Translation

    These rays have buttressed up the Sun. The Sarnans serve as threads for weaving this world.

    Footnote

    Samans: Cloud, Air, Speech, Mind, Ear.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(इमे) सूक्तोक्ताः (मयूखाः) माङ ऊखो मय च। उ० ५।२५। माङ् माने ऊख, धोतोर्मयादेशः, यद्वा, मय गतौ ऊख। मयूखाः, रश्मिनाम-निघ० १।५। ज्ञानप्रकाशाः (उप) (तस्तभुः) नलोपः। तस्तम्भुः। दधुः (दिवम्) आकाशम्। तत्रत्यब्रह्माण्डम् (सामानि) म० २०। मोक्षज्ञानानि (चक्रुः) कृतवन्तः (तसराणि) तन्यृषिभ्यां क्सरन्। उ० ३।७५। तनु विस्तारे क्सरन्, कित्त्वादनुनासिकलोपः। विस्तारान् (वातवे) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। वा गतिगन्धनयोः-तवेन्। प्राप्तुम् ॥

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