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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 39
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - उपरिष्टाज्ज्योतिर्जगती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    यस्मै॒ हस्ता॑भ्यां॒ पादा॑भ्यां वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ चक्षु॑षा। यस्मै॑ दे॒वाः सदा॑ ब॒लिं प्र॒यच्छ॑न्ति॒ विमि॒तेऽमि॑तं स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मै॑ । हस्ता॑भ्याम् । पादा॑भ्याम् । वा॒चा । श्रोत्रे॑ण । चक्षु॑षा । यस्मै॑ । दे॒वा: । सदा॑ । ब॒लिम् । प्र॒ऽयच्छ॑न्ति । विऽमि॑ते । अमि॑तम् । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा। यस्मै देवाः सदा बलिं प्रयच्छन्ति विमितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मै । हस्ताभ्याम् । पादाभ्याम् । वाचा । श्रोत्रेण । चक्षुषा । यस्मै । देवा: । सदा । बलिम् । प्रऽयच्छन्ति । विऽमिते । अमितम् । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 39
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मै) जिस [परमेश्वर] को, (यस्मै) जिस [परमेश्वर] को (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों से, (पादाभ्याम्) दोनों पैरों से, (वाचा) वाणी से, (श्रोत्रेण) श्रोत्र से और (चक्षुषा) दृष्टि से (देवाः) विद्वान् लोग (विमिते) विविध प्रकार मापे गये [जगत्] में (अमितम्) अपरिमित (बलिम्) सन्मान (सदा) (प्रयच्छन्ति) देते हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥३९॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग हाथ पाँव आदि अमूल्य उपकारी अङ्गों को पाकर संसार में उपकार करके परमात्मा का अत्यन्त आदर करते हैं ॥३९॥

    टिप्पणी

    ३९−(यस्मै यस्मै) परमात्मने नित्यम् (हस्ताभ्याम्) (पादाभ्याम्) (वाचा) वाण्या (श्रोत्रेण) श्रवणेन (चक्षुषा) दृष्ट्या (देवाः) विद्वांसः (सदा) (बलिम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। वल प्राणने धान्यावरोधने च-इन्। यद्वा, वर्णेर्बलिश्चाहिरण्ये। उ० ४।१२४। वर्ण स्तुतौ, विस्तारे दीपनादिषु-इन्, धातोर्बल इत्यादेशः। राजकरम्। सत्कारम् (प्रयच्छन्ति) ददति (विमिते) विविधपरिमिते जगत् (अमितम्) अपरिमितम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २२ ॥

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    विषय

    अङ्ग-प्रत्यङ्गों द्वारा प्रभु-पूजन

    पदार्थ

    १. (यस्मै) = जिसके लिए और (यस्मै) = जिसके लिए ही (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (हस्ताभ्याम्) = हार्थों से, (पादाभ्याम्) = पावों से (वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा) = वाणी, श्रोत्र व आँख से (सदा) = सदा (बलिम्) = पूजा [worship] को (प्रयच्छन्ति) = प्राप्त कराते हैं, और वस्तुत: इस पूजा के कारण ही देव बन पाते हैं। इन देवों के सब कार्य प्रभु-पूजन के लिए ही होते हैं। जो प्रभु (विमिते) = विविधरूपों में बने हुए इस मित [परिमित] संसार में (अमितम्) = असीम-अपरिमित व अनन्त है, (तम्) = उन्हीं को (स्कम्भं ब्रूहि) = सर्वाधार कहो। (सः एव) = वे ही (स्वित्) = निश्चय से (कतमः) = अतिशयेन आनन्दमय हैं।

    भावार्थ

    देवपुरुषों की सब अङ्गों से होनेवाली क्रियाएँ प्रभु-पूजन के रूप में होती हैं। इस परिमित संसार में वे अपरिमित प्रभु ही अतिशयेन आनन्दमय हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्मै) जिस के प्रति (हस्ताभ्याम्) हाथों द्वारा (पादाभ्याम्) पैरों द्वारा (वाचा, श्रोत्रेण, चक्षुषा) वाणी, श्रोत्र और चक्षु द्वारा (यस्मै) जिस के प्रति (देवाः) दिव्य कोटि के लोग (सदा बलिम्) सदा भेंट (प्रयच्छन्ति) देते हैं, (विमिते अमितम्) परिमित जगत् में अपरिमित (तम्) उस को (स्कम्भम् ब्रूहि) तू स्कम्भ कह (कतमः स्वित्, एव, सः) अर्थ देखो मन्त्र (४)

    टिप्पणी

    ["यस्मै" दो बार पठित है, इसका अभिप्राय है कि केवल जिस स्कम्भ के लिये भेंट करते हैं अन्य किसी के लिये नहीं। देवकोटि के महान् आत्मा, निज कर्मेंद्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो कर्म करते हैं, उसे स्कम्भ के प्रति समर्पित कर, उस के फल की आकाङ्क्षा नहीं करते]।

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    मन्त्रार्थ

    (देवा:-यस्मै हस्ताभ्यां पदाभ्यां वाचा श्रोत्रेण-चक्षुषा) मुमुक्षु विद्वान् जन जिस जगदाधार परमात्मा के लिये उसकी प्राप्ति के लिये हाथों से दान अन्य का त्राण, पैरों से यथार्थ गमन, वाणी से सत्य भाषण-स्तुति, कानों से प्रवचन सद्गुण श्रवण आँख, से सद्दर्शन कर्म का आचरण करते हैं (यस्मै सदा बलि प्रयच्छन्ति) जिसके लिये स्वात्मभाव को या उपासना को सदा समर्पित करते हैं (विमिते श्रमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्वित्-एव सः) विविध रूप से निर्मित जगत् में अनिर्मित कारण जगदा धार को बता-विचार वह कौनसा या अत्यन्त सुखद है ॥३६॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    To which all divinities of nature and humanity in the world, bound within the Unbound, offer homage, to which they offer homage with hands, feet, words, ear and eye, of that Skambha, pray, speak to me, which one, for sure, is that? Say it is Skambha, only that one of all, which is the ultimate centre and circumference of existence.

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    Translation

    To whom, with their two hands, with two feet, with speech, with hearing, and with vision, to whom the measureless the enlightened ones always offer unmeasured tribute; tell me of that Skambha; which of so many, indeed, is He ?

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    Translation

    Who out of many powers, tell me O learned! is the Skambha, the All-supporting Divine Power to whom the learned men pay unmeasured tribute with folded hands, with disciplined feet, with voice, with ears and with closed eyes in the vast place of meditation.

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    Translation

    Who out of many, tell me, is that All-pervading God, To Whom the learned with hands, with feet, and voice, and ear, and eye present tribute. Who is Infinite in the finite universe?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३९−(यस्मै यस्मै) परमात्मने नित्यम् (हस्ताभ्याम्) (पादाभ्याम्) (वाचा) वाण्या (श्रोत्रेण) श्रवणेन (चक्षुषा) दृष्ट्या (देवाः) विद्वांसः (सदा) (बलिम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। वल प्राणने धान्यावरोधने च-इन्। यद्वा, वर्णेर्बलिश्चाहिरण्ये। उ० ४।१२४। वर्ण स्तुतौ, विस्तारे दीपनादिषु-इन्, धातोर्बल इत्यादेशः। राजकरम्। सत्कारम् (प्रयच्छन्ति) ददति (विमिते) विविधपरिमिते जगत् (अमितम्) अपरिमितम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २२ ॥

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