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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 41
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - आर्षी त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    यो वे॑त॒सं हि॑र॒ण्ययं॑ तिष्ठन्तं सलि॒ले वेद॑। स वै गुह्यः॑ प्र॒जाप॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वे॒त॒सम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । तिष्ठ॑न्तम् । स॒लि॒ले । वेद॑ । स: । वै । गुह्य॑: । प्र॒जाऽप॑ति: ॥७.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वेतसं हिरण्ययं तिष्ठन्तं सलिले वेद। स वै गुह्यः प्रजापतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । वेतसम् । हिरण्ययम् । तिष्ठन्तम् । सलिले । वेद । स: । वै । गुह्य: । प्रजाऽपति: ॥७.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 41
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (सलिले) अन्तरिक्ष में (तिष्ठन्तम्) ठहरे हुए (हिरण्ययम्) तेजोमय (वेतसम्) परस्पर बुने हुए [संसार] को (वेद) जानता है, (सः वै) वह ही (गुह्यः) गुप्त (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥४१॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा समस्त संसार का पालन करता है, वह सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी है ॥४१॥

    टिप्पणी

    ४१−(यः) परमेश्वरः (वेतसम्) वेञस्तुट् च। उ० ३।११८। वेञ् तन्तुसन्ताने यद्वा वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-असच् तुट् च। ऊतं परस्परं स्यूतं संसारम् (हिरण्ययम्) तेजोमयम् (तिष्ठन्तम्) वर्तमानम् (सलिले) म० ३८। अन्तरिक्षे (वेद) जानाति (सः) (वै) एव (गुह्यः) गुह संवरणे-क्यप्। गुहायां स्थितः। गुप्तः (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः ॥

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    विषय

    'सृष्टि व प्रभु' को समझनेवाले में तीन बातें

    पदार्थ

    १. [क] (तस्य) = उसका (तमः अपहतम्) = अन्धकार सुदूर विनष्ट हो जाता है-उसका अज्ञान विनष्ट होकर उसका जीवन प्रकाशमय हो जाता है। [ख] (सः) = वह (पाप्मना) = पाप से (व्यावृत्त:) = दूर [हटा हुआ] होता है। [ग] (तस्मिन्) = उसमें वे (सर्वाणि) = सब (ज्योतीषि) = ज्योतियाँ होती हैं (यानि त्रीणि) = जो तीन (प्रजापतौ) = प्रजारक्षक प्रभु में हैं। ये ज्योतियाँ इसके जीवन में शरीर के स्वास्थ्य की दीसि के रूप में, मन के नैर्मल्य के रूप में तथा मस्तिष्क की ज्ञानज्योति के रूप में प्रकट होती हैं। २. उस व्यक्ति के जीवन में ये ज्योतियों प्रकट होती हैं, (य:) = जोकि (सलिले) = [सत् लीनम् अस्मिन्] यह कार्यजगत् जिसमें लीन होकर रहता है, उस प्रकृति में (तिष्ठन्तम्) = स्थित हुए-हुए (हिरण्ययम्) = इस चमकीले [हिरण्मय] (वेतसम्) = [ऊतं स्यूतं] परस्पर सम्बद्ध लोक लोकान्तरोंवाले संसार को वेद-जानता है और जो यह जानता है कि (स:) = वह (वै) = निश्चय से (प्रजापति:) = प्रजापालक प्रभु (गुह्याः) = मेरी हृदय-गुहा में ही स्थित है। इसप्रकार जाननेवाला व्यक्ति अन्धकार व पाप से दूर होकर ज्योतिर्मय जीवनवाला बनता है।

    भावार्थ

    जो व्यक्ति इस चमकीले, परस्पर सम्बद्ध लोक-लोकान्तरोंवाले, प्रकृतिनिष्ठ संसार को जानता है तथा प्रभु को हृदयस्थ रूपेण प्रतीत करता है, वह अन्धकार से ऊपर उठता है, पाप से दूर होता है तथा प्रभु की ज्योतियों को प्राप्त करके "स्वस्थ, निर्मल व दीप्स' जीवनवाला बनता है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो स्कम्भ (वेतसम्) [पट के सदृश] बुने हुए, (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय जगत् को (सलिले) गति वाले ब्रह्माण्ड में (तिष्ठन्तम्) स्थित हुआ (वेद) जानता है (सः) वह (गुह्यः१) गुप्तस्वरूप स्कम्भ (वै) वास्तव में (प्रजापतिः) प्रजापति है।

    टिप्पणी

    [तमः = अज्ञानान्धकार। स्कम्भ इससे वियुक्त है। अतः वह पाप से भी विमुक्त है। इसलिये यजुर्वेद में उसे अपापविद्धम् कहा है (४०।८)। उस स्कम्भ के आश्रय तीन ज्योतियां हैं (१) पार्थिव ज्योतिः अग्निः (२) अन्तरिक्षस्थ ज्योतिः विद्युत् (३) तथा द्युलोकस्थ ज्योतियां समूहरूप में। मन्त्र में स्कम्भ को ही प्रजापति अर्थात् सृष्टिकर्ता कहा है। सर्वाधार रूप में वह स्कम्भ है, और जगत्कर्तृत्वरूप में वह प्रजापति है। वेतसम् = बुना हुआ, "वेञ् तन्तुसन्ताने" (भ्वादिः; तथा उणा० ३।११८)। सलिले देखो (मन्त्र ३८)। मन्त्र द्वारा यह भी ध्वनित होता है कि जो व्यक्ति अज्ञानान्धकार से रहित हो जाता है वह पापकर्मों के करने से भी निवृत्त हो जाता है]। [१. स्कम्भ रूप में परमेश्वर गुह्य है और प्रजापतिरूप में वह ज्ञान स्वरूप है।]

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    मन्त्रार्थ

    (यः सलिले तिष्ठन्तं हिरण्ययं वेतसं वेद) जो सरणशील महान् संसार में ठहरे हुए हिरण्यय-हिररामय-सौवर्ण-सुनहरे गर्भ ब्रह्माण्डमूल वेतस-लघुतर-छोटे पौधे जैसे प्रसरणशील सन्ततिकर्म को प्राप्त किये हुए हैं (सः वै गुह्यः प्रजापतिः) वह गुहायोग्य-अन्दर व्याप्ति योग्य प्रजापति परमात्मा है वह विविध प्राणियों की उत्पत्ति करता है ॥४१॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    The One who pervades the golden warp and woof of the universe abiding in space and time, that is the mysterious Prajapati existing below the surface reality of it.

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    Translation

    He, who knows the golden reed (hiranya-vetese) that stands in the flood, he, indeed, is the hidden (guhya) Lord of creation.

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    Translation

    Verily He who knows the golden World, the lustrous world woven resting in the material cause, the matter; is the mysterious Lord of the Creation.

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    Translation

    He verily Who knows the shining world that stands in the atmosphere is the mysterious God, the Lord of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४१−(यः) परमेश्वरः (वेतसम्) वेञस्तुट् च। उ० ३।११८। वेञ् तन्तुसन्ताने यद्वा वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-असच् तुट् च। ऊतं परस्परं स्यूतं संसारम् (हिरण्ययम्) तेजोमयम् (तिष्ठन्तम्) वर्तमानम् (सलिले) म० ३८। अन्तरिक्षे (वेद) जानाति (सः) (वै) एव (गुह्यः) गुह संवरणे-क्यप्। गुहायां स्थितः। गुप्तः (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः ॥

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