अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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यत्प॑र॒मम॑व॒मं यच्च॑ मध्य॒मं प्र॒जाप॑तिः ससृ॒जे वि॒श्वरू॑पम्। किय॑ता स्क॒म्भः प्र वि॑वेश॒ तत्र॒ यन्न प्रावि॑श॒त्किय॒त्तद्ब॑भूव ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प॒र॒मम् । अ॒व॒मम् । यत् । च॒ । म॒ध्य॒मम् । प्र॒जाऽप॑ति: । स॒सृ॒जे । वि॒श्वऽरू॑पम् । किय॑ता । स्क॒म्भ: । प्र । वि॒वे॒श॒ । तत्र॑ । यत् । न । प्र॒ऽअवि॑शत् । किय॑त् । तत् । ब॒भू॒व॒ ॥७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्परममवमं यच्च मध्यमं प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्। कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र यन्न प्राविशत्कियत्तद्बभूव ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । परमम् । अवमम् । यत् । च । मध्यमम् । प्रजाऽपति: । ससृजे । विश्वऽरूपम् । कियता । स्कम्भ: । प्र । विवेश । तत्र । यत् । न । प्रऽअविशत् । कियत् । तत् । बभूव ॥७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो कुछ (परमम्) अति ऊँचा, (अवमम्) अति नीचा (च) और (यत्) जो कुछ (मध्यमम्) अति मध्यम (विश्वरूपम्) नाना रूप [जगत्] (प्रजापतिः) प्रजापति [परमेश्वर] ने (ससृजे) रचा था। (कियता) कहाँ तक (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] ने (तत्र) उस [जगत्] में (प्र विवेश) प्रवेश किया था, (यत्) जितने में उस [परमेश्वर] ने (न) नहीं (प्राविशत्) प्रवेश किया है, (तत्) वह (कियत्) कितना (बभूव) था ॥८॥
भावार्थ
परमेश्वर ने उत्तम, मध्यम और नीच स्वभाववाला इतना बड़ा ब्रह्माण्ड प्राणियों के कर्मानुसार रचा है, और वह जगदीश्वर इतना बड़ा है कि सारे ब्रह्माण्ड के अङ्ग-अङ्ग में निरन्तर रम रहा है ॥८॥ यह मन्त्र ऋषिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृ० १३५ में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
८−(यत्) यत् किञ्चित् (परमम्) उच्चतमम् (अवमम्) नीचतमम् (यत् च) (मध्यमम्) मध्यतमम् (प्रजापतिः) परमेश्वरः (ससृजे) उत्पादयामास (विश्वरूपम्) नानाविधं जगत् (कियता) किं परिमाणेन (स्कम्भः) सर्वधारकः परमात्मा (प्रविवेश) प्रविष्टवान् (तत्र) जगति (यत्) यत्परिमाणं जगत् (न) निषेधे (प्राविशत्) प्रविष्टवान् परमेश्वरः (कियत्) किं परिमाणम् (तत्) जगत् (बभूव) ववृते ॥
विषय
परम, अवम, व मध्यम' सृष्टि उस असीम प्रभु में
पदार्थ
१. (यत्) = जो (परमम्) = उत्कृष्ट सात्त्विक, (अवमम्) = निकृष्ट तामस्, (यत् च मध्यमम्) = और जो मध्यम राजस् (विश्वरूपम्) = सब भिन्न-भिन्न रूपोंवाला वस्तुजगत् (प्रजापतिः ससृजे) = प्रजापालक प्रभु ने उत्पन्न किया है। ('ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवैति तान् विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि । तत्र') = उस सारे वस्तु-जगद्रूप ब्रह्माण्ड में (स्कम्भ:) = वे सर्वाधार प्रभु (कियता प्रविवेश) = कितने अंश में प्रविष्ट हुए हैं? प्रभु का (यत्) = जो अंश (न प्राविशत्) = यहाँ नहीं प्रविष्ट हुआ, ('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि') = इस पुरुषसूक्त के वाक्य के द्वारा स्पष्ट है कि प्रभु के एकदेश में ही सारा ब्रह्माण्ड स्थित है, प्रभु के तीन अंश तो इससे ऊपर ही हैं|
भावार्थ
प्रभु ने 'सात्त्विक, राजस् व तामस्' त्रिविध वस्तुजगत्वाले इस ब्रह्माण्ड को रचा है। यह सारा ब्रह्माण्ड उसके एक देश में ही है-उसका त्रिपाद् तो अपने प्रकाशमय स्वरूप में ही स्थित है। एवं, स्थान के दृष्टिकोण से वे प्रभु असीम हैं।
भाषार्थ
(यत्) जो (परमम्) अति दूर, (अवमम्) नीचे, (यत च) और जो (मध्यमम्) मध्यस्थान में (विश्वरूपम्) नानारूप [जगत्] (प्रजापतिः ससृजे) प्रजाओं के पति ने सृष्ट किया हैं, रचा है, (तत्र) उसमें (कियता) कितने परिमाण से (स्कम्भः प्रविवेश) स्कम्भ प्रविष्ट हुआ है, (यत् न) जितने में नहीं (प्राविशत्) प्रविष्ट हुआ (तद्) वह (कियत् बभूव) कितना है।
टिप्पणी
[यजुर्वेद में कहा है कि "पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि" (३१।३), अर्थात् सब भूत-भौतिक जगत्, उस चतुष्पात् पुरुष का एकपाद मात्र है, त्रिपाद् रूप में वह निज द्योतमानरूप में विद्यमान रहता है, जिस का कि मरण धर्मा जगत् के साथ सम्बन्ध नहीं होता। यह अमृतरूप है]।
मन्त्रार्थ
(प्रजापतिः-यत्-विश्वरूपं परमं मध्यमं यत्-च-अवमं विससृजे) वह समष्टिरूप वायु "य एष वायुः प्रजापतिः तस्मिन् त्रै एभेऽन्तरिक्ष समन्ते पर्यक्त" (शतः ८।३।४।१५) मध्यस्थानीयदेवता प्रजापतिः"प्रजानां पाता वा पालयिता वा (निरुक्त १०।४४) उस विश्वरूप में हैं ऐसे परम द्यलोक-सूर्यादि-मध्यम अन्तरिक्ष लोक गत चन्द्रादि श्रवम-पृथिवीजातीय लोक अपने आश्रय में विशेष गतिमान करता है (स्कम्भः कियता-तत्-प्रविवेश) स्कम्भ-सर्वाधार देव कितने अर्थात् कुछ अल्प अंश से ही उसमें प्रविष्ट है उस सर्वाधार के अनन्त होने से (यत् न प्राविशत् तत् कियत्-बभूव) जो प्रविष्ट नहीं हुआ वह कितना असीम है "पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतंदिवि ॥८॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Of the highest, lowest and the middle order of the form of the universe which Prajapati, cosmic progenitor, created, how much does Skambha, the sustaining divine, pervade therein, and how much is that which it does not pervade? (Prajapati and Skambha are one and the same divinity, Prajapati, the creative, and Skambha, the pervasive sustaining aspect.)
Translation
Whatever the highest, the lowest and the intermediate was created by the Lord of creation (prajāpati) in all forms - in how much of that the Skambha entered? And how much was that which he did not enter ?
Translation
In that universe, which is wearing all the forms the Lord of the Universe created in the high heavenly region, which He created in the middle region, and which he created in lower region how far the Skambha, the Supporting Divine Power portion of Him entered? What remained which did not enter in the World?
Translation
That universe which the All-pervading God created, wearing all forms, the highest midmost, lowest, how far did God penetrate within it? What portion did he leave unpenetrated?
Footnote
God is vaster than the universe, which is but a part of Him ‘All created worlds are only a part of God’ Yajur, chapter 31.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(यत्) यत् किञ्चित् (परमम्) उच्चतमम् (अवमम्) नीचतमम् (यत् च) (मध्यमम्) मध्यतमम् (प्रजापतिः) परमेश्वरः (ससृजे) उत्पादयामास (विश्वरूपम्) नानाविधं जगत् (कियता) किं परिमाणेन (स्कम्भः) सर्वधारकः परमात्मा (प्रविवेश) प्रविष्टवान् (तत्र) जगति (यत्) यत्परिमाणं जगत् (न) निषेधे (प्राविशत्) प्रविष्टवान् परमेश्वरः (कियत्) किं परिमाणम् (तत्) जगत् (बभूव) ववृते ॥
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