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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 28
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    हि॑रण्यग॒र्भं प॑र॒मम॑नत्यु॒द्यं जना॑ विदुः। स्क॒म्भस्तदग्रे॒ प्रासि॑ञ्च॒द्धिर॑ण्यं लो॒के अ॑न्त॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्य॒ऽग॒र्भम् । प॒र॒मम् । अ॒न॒ति॒ऽउ॒द्यम् । जना॑: । वि॒दु॒: । स्क॒म्भ: । तत् । अग्रे॑ । प्र । अ॒सि॒ञ्च॒त् । हिर॑ण्यम् । लो॒के । अ॒न्त॒रा ॥७.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यगर्भं परममनत्युद्यं जना विदुः। स्कम्भस्तदग्रे प्रासिञ्चद्धिरण्यं लोके अन्तरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽगर्भम् । परमम् । अनतिऽउद्यम् । जना: । विदु: । स्कम्भ: । तत् । अग्रे । प्र । असिञ्चत् । हिरण्यम् । लोके । अन्तरा ॥७.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 28
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (जनाः) लोग (हिरण्यगर्भम्) तेज के गर्भ [आधार परमेश्वर] को (परमम्) सर्वोत्कृष्ट [प्रणव वा ओ३म्] और (अनत्युद्यम्) सर्वथा अकथनीय [ईश्वर] (विदुः) जानते हैं। (स्कम्भः) उस स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] ने (अग्रे) पहिले ही पहिले (तत्) उस (हिरण्यम्) तेज को (लोके अन्तरा) संसार के भीतर (प्र असिञ्चत्) सींच दिया है ॥२८॥

    भावार्थ

    सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के गुण और सामर्थ्य मनुष्य की कथनशक्ति से बाहिर हैं। सृष्टि के प्रादुर्भाव में केवल परमेश्वर का ही तेज अर्थात् सामर्थ्य दीख पड़ता है ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(हिरण्यगर्भम्) अ० ४।२।७। तेजसो गर्भमाधारम् (परमम्) सर्वोत्कृष्टं प्रणवम् (अनत्युद्यम्) वद व्यक्तायां वाचि-क्यप्। सर्वतोऽकथनीयं परमात्मानम् (जनाः) विद्वांसः (स्कम्भः) स्तम्भः। सर्वधारकः परमेश्वरः (तत्) पूर्वोक्तम् (अग्रे) सृष्ट्यादौ (प्र) प्रकर्षेण (असिञ्चत्) सिक्तवान् (हिरण्यम्) प्रकाशम् (लोके) (अन्तरा) मध्ये ॥

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    विषय

    हिरण्यगर्भ

    पदार्थ

    १. (जना:) = ज्ञानी लोग (हिरण्यगर्भम्) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] सम्पूर्ण ज्योति जिसके गर्भ में है, उस प्रभु को (परमम्) = सर्वोत्कृष्ट व (अनति-उद्यम्) = 'जिसका स्तवन अत्युक्त हो ही नहीं सकता' ऐसा (विदुः) = जानते हैं। वे प्रभु 'वाचाम् अगोचर' हैं-बाणी का विषय बन ही नहीं सकते। २. वे (स्कम्भ:) = सर्वाधार प्रभु (अग्रे) = सृष्टि के प्रारम्भ में (तत् हिरण्यम्) = उस ज्योति को (लोके अन्तरा) = इस लोक के अन्दर (प्रासिञ्चत) = सींचते हैं। सूर्य, विद्युत् व अग्नि' आदि ज्योतियों को वे प्रभु ही तो बनाते हैं। ('त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी')

    भावार्थ

    प्रभु हिरण्यगर्भ हैं-परम है-अनत्युध हैं। वे सर्वाधार प्रभु ही इस लोक में सूर्य आदि ज्योतियों का स्थापन करते हैं।

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    भाषार्थ

    (जनाः) विद्वज्जन (परमम्) सर्वोच्च (हिरण्यगर्भम्) हिरण्यगर्भ को (अनत्युद्यम्) अनतिकथनीय (विदुः) जानते हैं। (स्कम्भः) स्कम्भ ने (अग्रे) पुराकाल में (लोके अन्तरा) लोक में (तत् हिरण्यम्) उस हिरण्य को (प्रासिञ्चत्) प्रकर्ष रूप में सींचा था।

    टिप्पणी

    [हिरण्य का अर्थ है सुवर्ण, सोना-धातु। ब्रह्माण्ड में सूर्यादि ज्योतिर्मय पदार्थ हिरण्यरूप हैं। स्कम्भ अर्थात् सर्वाधार परमेश्वर हिरण्यगर्भ है। क्योंकि ये सब ज्योतिर्मय सूर्यादि उस के गर्भ में विद्यमान हैं। स्कम्भ अनत्युद्य है, अनतिवदनीय है, इसके सम्बन्ध में अधिक कहा नहीं जा सकता। अनन्त गुणकर्मों के कारण अल्पज्ञ मनुष्य इसके स्वरूप को पूर्णतया कह नहीं सकते। सृष्टि की सर्जनावस्था में, किसी समय ये हिरण्यमय अर्थात् ज्योतिर्मय सूर्यादि चमकते वायवीय रूपों में थे। शनैः शनैः ये चमकते वायवीय रूप चमकते "आपः" रूप में परिणत हुए। यह आपः रूप सर्वत्र फैला हुआ था। इसे “हिरण्यं प्रासिञ्चत्" द्वारा कथित किया है। मानो इसे स्कम्भ ने लोक में सींचा है]।

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    मन्त्रार्थ

    (जनाः परमम्-अनत्युद्यम् हिरण्यगर्भविदुः) साधारण जन पर में होने वाले अनतिक्रमण करके प्रथमता से वक्तव्य हिरण्यगर्भ नामवाले सृष्टि से पूर्व होने वाले को जानते हैं, परन्तु (स्कम्भः अग्रे लोके अन्तरा तत् हिरण्यं प्रासिञ्चत्) जगदाधारभूत परमात्मा सृष्टि से पूर्व लोकनीय-दर्शनीय हिरण्यगर्भ के अन्दर हिरण्य को सींचता है जिस से हिरण्यगर्भ उत्पन्न होता है ॥२८॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Knowledgeable people know Hiranyagarbha, the golden womb of creation, highest and beyond description. It is Skambha that generated the creative Prakrti and formed the golden blue-print of the universe in the very beginning of creative evolution in the world of existence.

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    Translation

    People know the golden fetus (hiranyagarham) as the supreme and indescribable; it was the Skambha, that first seeded that golden fetus in the universe.

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    Translation

    People know the Hiranyagarbha, the nebulous state of the world as supreme one and inexpressible but it is Skambha, who in the beginning pours out the gold or golden light in the form of Hiranyagarbha in the midst of the worlds.

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    Translation

    Men know God as Supreme and Inexpressible. In the beginning, in the midst of the world, God poured the brilliant power of creation in Matter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(हिरण्यगर्भम्) अ० ४।२।७। तेजसो गर्भमाधारम् (परमम्) सर्वोत्कृष्टं प्रणवम् (अनत्युद्यम्) वद व्यक्तायां वाचि-क्यप्। सर्वतोऽकथनीयं परमात्मानम् (जनाः) विद्वांसः (स्कम्भः) स्तम्भः। सर्वधारकः परमेश्वरः (तत्) पूर्वोक्तम् (अग्रे) सृष्ट्यादौ (प्र) प्रकर्षेण (असिञ्चत्) सिक्तवान् (हिरण्यम्) प्रकाशम् (लोके) (अन्तरा) मध्ये ॥

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