अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 24
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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यत्र॑ दे॒वा ब्र॑ह्म॒विदो॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठमु॒पास॑ते। यो वै तान्वि॒द्यात्प्र॒त्यक्षं॒ स ब्र॒ह्मा वेदि॑ता स्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । दे॒वा: । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठम् । उ॒प॒ऽआस॑ते । य: । वै । तान् । वि॒द्यात् । प्र॒ति॒ऽअक्ष॑म् । स: । ब्र॒ह्मा । वेदि॑ता । स्या॒त् ॥७.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र देवा ब्रह्मविदो ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। यो वै तान्विद्यात्प्रत्यक्षं स ब्रह्मा वेदिता स्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । देवा: । ब्रह्मऽविद: । ब्रह्म । ज्येष्ठम् । उपऽआसते । य: । वै । तान् । विद्यात् । प्रतिऽअक्षम् । स: । ब्रह्मा । वेदिता । स्यात् ॥७.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यत्र) जहाँ पर (देवाः) विजयी (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सब से बड़े वा सब से श्रेष्ठ] (ब्रह्म) ब्रह्म को (उपासते) भजते हैं। [वहाँ] (यः) जो (वै) ही (तान्) उन [ब्रह्मज्ञानियों] को (प्रत्यक्षम्) प्रत्यक्ष करके (विद्यात्) जान लेवे, (सः) वह (ब्रह्मा) ब्रह्मा [महापण्डित] (वेदिता) ज्ञाता [जानकर] (स्यात्) होवे ॥२४॥
भावार्थ
जो विद्वान् ब्रह्मज्ञानियों से ईश्वरज्ञान प्राप्त करते हैं, वे ही संसार में तत्त्वदर्शी विद्वान् होते हैं ॥२४॥
टिप्पणी
२४−(यत्र) यस्मिन् देशे (देवाः) विजयिनः (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (ज्येष्ठम्) म० १७। वृद्धतमम्। उत्कृष्टतमम् (उपासते) पूजयन्ति (यः) (वै) एव (तान्) (ब्रह्मविदः) (विद्यात्) जानीयात् (प्रत्यक्षम्) समक्षम् (सः) जिज्ञासुः (ब्रह्मा) महापण्डितः (वेदिता) ज्ञाता (स्यात्) ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यत्र ) = जहाँ पर ( ब्रह्मविदः देवा: ) = ब्रह्मज्ञानी देव ( ज्येष्ठम् ब्रह्म ) = सबसे बड़े और श्रेष्ठ ब्रह्म को ( उपासते ) = भेजते हैं वहाँ ( यो वै ) = जो ही ( तान् प्रत्यक्षम् ) = उन ब्रह्मज्ञानियों को प्रत्यक्ष करके ( विद्यात् ) = जान लेवे ( सः ) = वह ( ब्रह्मा ) = महापण्डित ( वेदिता ) = ज्ञाता ( स्यात् ) = होवे ।
भावार्थ
भावार्थ = जो विद्वान् पुरुष ब्रह्मज्ञानियों से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं वे ही संसार में तत्त्वदर्शी महापण्डित विद्वान् होते हैं । बिना गुरु परम्परा के कोई भी वेद व परमात्मा के जाननेवाला नहीं हो सकता ।
विषय
ब्रह्मविद् देवों के सम्पर्क में
पदार्थ
१. (यत्र) = जहाँ (देवाः) = देववृत्ति के (ब्रह्मविदः) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्म) = उस प्रभु को ही (ज्येष्ठम्) = सर्वश्रेष्ठरूप में (उपासते) = उपासित करते हैं-प्रभु को ही ज्येष्ठ मानकर पूजित करते हैं, वहाँ (य:) = जो भी (वै) = निश्चय से (तान्) = उन ब्रह्मज्ञानियों को (प्रत्यक्षं विद्यात्) = प्रत्यक्ष जानता है उनके सम्पर्क में आकर उनसे ज्ञान का श्रवण करता है, (स:) = वह भी (ब्रह्म) = सर्वोत्तम सात्विक व्यक्ति बनता है और (वेदिता स्यात्) = ज्ञानी होता है।
भावार्थ
ब्रह्मविद् देव तो ब्रह्म को 'ज्येष्ठ' रूप में उपासित करते ही हैं, उनके सम्पर्क में आकर उनसे दिये गये ज्ञान का श्रोता भी सात्त्विक व ज्ञानी बनता है।
भाषार्थ
(यत्र) जहां, जिस स्थान में (ब्रह्मविदः देवाः) ब्रह्मज्ञानी या वेदज्ञानी देव (ज्येष्ठम्, ब्रह्म) ज्येष्ठ ब्रह्म की (उपासते) उपासना करते हैं, (यः) जो कोई (तान्) उन ब्रह्मज्ञानियों या वेदज्ञों (प्रत्यक्षम्) साक्षात् (विद्यात्) प्राप्त होता है, (सः) वह (वै) वस्तुतः (ब्रह्मा) ब्रह्मा (स्यात्) हो जाता है, और (वेदिता) ब्रह्मवेत्ता हो जाता है।
टिप्पणी
[उपासते = उपासना ब्रह्म की करनी चाहिये, अन्य की नहीं (मन्त्र २१)। सम्भवतः मन्त्र २३ में कथित निधि ब्रह्मरूप निधि हो। ब्रह्मा= वैदिक साहित्य में चतुर्वेदवेत्ता को ब्रह्मा कहते हैं, इस लिये "ब्रह्मविदः" का अर्थ प्रतीत होता है "वेदविदः", जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति चतुर्वेदविद् होकर ब्रह्मा बनता है। वेदों में ब्रह्म की ही उपासना विहित है, यथा "यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति" (ऋ० १।१६४।३९) अतः ब्रह्मविदः अर्थात् वेदविदः - ज्येष्ठब्रह्म के उपासक कहे हैं]
मन्त्रार्थ
(यत्र ब्रह्मविदः-देवा:-ज्येष्ठं ब्रह्म-उपासते) जिस आधार भूत में वर्तमान हुये ब्रह्मवेत्ता विद्वान् उसी को ज्येष्ठ ब्रह्म मानकर उपासना करते हैं (यः-वै तान् प्रत्यक्षं विद्यात्) जो उन उपासना करने वालों को प्रत्यक्ष प्राप्त करे उनकी शिष्यता स्वीकार करे (सः-वेदिता ब्रह्मा स्यात्) वह भी ब्रह्मसाक्षात्कार का लाभ लेने वाला ब्रह्मा हो जावे ॥२४॥
व्यक्तव्य
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Where the divine sages, who know the Supreme Brahma, know and meditate on the Supreme Divinity, there, whoever knows those Brahma-realised souls directly, he would, for sure, know Brahma and become worthy of being Brahma, high-priest of the yajna of Brahma-realisation.
Translation
Where the enlightened ones, who have realized the Lord supreme, worship the eldest Lord supreme, whosever knows them directly and surely, he shall become the knower, the realizer.
Translation
There and then wherein and when the knower of Vedas worship the loftiest Divine Power, the man who distinctively knows these mighty master-minds, may be knower and chief-priest of the yajna.
Translation
Where the sages, versed in sacred lore, worship, the loftiest Power Divine—the man who knows them face to face becomes in their company a learned person, who knows the truth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(यत्र) यस्मिन् देशे (देवाः) विजयिनः (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (ज्येष्ठम्) म० १७। वृद्धतमम्। उत्कृष्टतमम् (उपासते) पूजयन्ति (यः) (वै) एव (तान्) (ब्रह्मविदः) (विद्यात्) जानीयात् (प्रत्यक्षम्) समक्षम् (सः) जिज्ञासुः (ब्रह्मा) महापण्डितः (वेदिता) ज्ञाता (स्यात्) ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
য়ত্র দেবা ব্রহ্মবিদো ব্রহ্ম জ্যেষ্ঠমুপাসতে।
য়ো বৈ তান্বিদ্যাৎ প্রত্যক্ষং স ব্রহ্মা বেদিতা স্যাৎ।।৬৩।।
(অথর্ব ১০।৭।২৪)
পদার্থঃ (য়ত্র) যেখানে (ব্রহ্মবিদঃ দেবাঃ) ব্রহ্মজ্ঞানী বিদ্বানগণ (জ্যেষ্ঠম্ ব্রহ্ম) সকলের চেয়ে শ্রেষ্ঠ ব্রহ্মের (উপাসতে) উপাসনা করেন, সেখানে (য়ো বৈ) যিনি (তান্প্রত্যক্ষম্) সেই ব্রহ্মজ্ঞানীদের প্রত্যক্ষ করে (বিদ্যাৎ) বিদ্যা গ্রহণ করেন, (সঃ) তিনি (ব্রহ্মা) মহাপণ্ডিত তথা (বেদিতা) জ্ঞাতা (স্যাৎ) হয়ে যান।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যে বিদ্বান মানুষ ব্রহ্মজ্ঞানীদের কাছ থেকে ব্রহ্মজ্ঞান গ্রহণ করেন, তিনি এই সংসারে তত্ত্বদর্শী মহাপণ্ডিত বিদ্বান হয়ে যান। তত্ত্বদর্শী গুরুর নিকট জ্ঞান লাভ ছাড়া কেউ বেদ ও পরমাত্মাকে জানতে পারে না ।।৬৩।।
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