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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    बृ॒हन्तो॒ नाम॒ ते दे॒वा येऽस॑तः॒ परि॑ जज्ञि॒रे। एकं॒ तदङ्गं॑ स्क॒म्भस्यास॑दाहुः प॒रो जनाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हन्त॑: । नाम॑ । ते । दे॒वा: । ये । अस॑त: । परि॑ । ज॒ज्ञि॒रे । एक॑म् । तत् । अङ्ग॑म् । स्क॒म्भस्य॑ । अस॑त् । आ॒हु॒: । प॒र: । जना॑: ॥७.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहन्तो नाम ते देवा येऽसतः परि जज्ञिरे। एकं तदङ्गं स्कम्भस्यासदाहुः परो जनाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहन्त: । नाम । ते । देवा: । ये । असत: । परि । जज्ञिरे । एकम् । तत् । अङ्गम् । स्कम्भस्य । असत् । आहु: । पर: । जना: ॥७.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 25
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे [कारणरूप] (देवाः) दिव्य पदार्थ (नाम) अवश्य (बृहन्तः) बड़े हैं, (ये) जो (असतः) असत् [अनित्य कार्यरूप जगत्] से (परि जज्ञिरे) सब ओर प्रकट हुए हैं। (जनाः) लोग (परः) परे [कारण से परे] (तत्) उस (असत्) असत् [अनित्य कार्यरूप जगत्] को (स्कम्भस्य) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] का (एकम्) एक (अङ्गम्) अङ्ग (आहुः) वे [विद्वान्] बताते हैं ॥२५॥

    भावार्थ

    ब्रह्मज्ञानी लोग जानते हैं कि कार्यरूप जगत् से कारणरूप जगत् अति अधिक है और परमेश्वर उससे भी अधिक है ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(बृहन्तः) महान्तः (नाम) अवश्यम् (ते) प्रसिद्धाः (देवाः) कारणरूपदिव्यपदार्थाः (ये) (असतः) अनित्यात् कार्यरूपजगतः (परि) सर्वतः (जज्ञिरे) प्रादुर्बभूवुः (एकम्) अल्पमित्यर्थः (तत्) (अङ्गम्) (स्कम्भस्य) परमेश्वरस्य (असत्) अनित्यं कार्यं जगत् (आहुः) कथयन्ति (परः) परस्तात् (जनाः) विद्वांसः ॥

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    विषय

    देव-असत्-स्कम्भ [पर-परतर-परतम]

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (असत:) = अव्यक्त प्रकृति से (परिजज्ञिरे) = प्रादुर्भूत हुए हैं, (ते देवा:) = ये सूर्य, वायु, अग्नि आदि देव भी (बृहन्तः नाम) = निश्चय से बृहत् हैं। इन सूर्य आदि देवों की महिमा भी महान् है। इन देवों का कारणभूत वह (असत्) = अव्याकृत [अदृश्य-सा] प्रधान [प्रकृति] (पर:) = इन सब देवों से उत्कृष्ट है। कारणात्मना वह प्रधान इन कार्यभूत सूर्यादि देवों से उत्कृष्ट होना ही चाहिए। (जना:) = ज्ञानी लोग (तत्) = उस असत् को भी (स्कम्भस्य) = सर्वाधार प्रभु का एक (अङ्गं आहुः) = एक अङ्ग ही कहते हैं। वह अङ्गी स्कम्भ तो इस अङ्गभूत असत् से कितना ही महान् है, ('त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः')

    भावार्थ

    सूर्य,वायु, अग्नि देव महान् हैं। इनका कारणभूत 'असत्' [प्रधान-प्रकृति] इनसे पर है। वह असत् भी सर्वाधार प्रभु का एक अङ्ग ही है।

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    भाषार्थ

    (ते देवाः) वे देव (बृहन्तः) परिमाण में बड़े होते हैं (ये) जो कि (असतः परि) अनभिव्यक्त प्रकृति से (जज्ञिरे) पैदा होते हैं। (जनाः) विद्वज्जन (स्कम्भस्य) स्कम्भ के (परः) परे के (तत् एकम् अङ्गम्) उस एक अङ्ग को (असत्) अनभिव्यक्त रूप (आहुः) कहते हैं।

    टिप्पणी

    [प्रकृति से जो दिव्यपदार्थ पैदा होते हैं वे परिमाणों में बड़े होते हैं। पश्चात् उन के विभाजन से अल्पाल्प परिमाणों वाले अन्य दिव्यपदार्थ पैदा होते हैं, जैसे कि प्रकृति से महत्-तत्त्व पैदा हुआ, पश्चात् विराट्-अवस्था पैदा हुई, फिर द्युलोक, तत्पश्चात् सूर्य और सूर्य से ग्रह, और ग्रहों से चन्द्रमा -ये उत्तरोत्तर अल्पाल्प परिमाणों वाले होते जाते हैं। असत् है प्रकृति, अनभिव्यक्ता प्रकृति। यह स्कम्भ का एक मुख्य अङ्ग है, उस प्रकृति से चन्द्रमा, सूर्य, अन्तरिक्ष, भूमि आदि भी अङ्गरूप प्रकट होते हैं (यजु० (३१।१० - १३,२२)। परः = प्रकृतिरूपी अङ्ग- चन्द्रमा आदि अङ्गों से उत्पत्तिकाल की अपेक्षया परस्तात् काल का है; अतिदूर काल का है]।

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    मन्त्रार्थ

    (असत:-ये परिजज्ञिरे) असत्-अव्यक्त प्रकृतिनामक उपादान से सर्वतः उत्पन्न हुये हैं (ते बृद्दन्तः नाम देवाः) वे दिव्य गुणवाले पदार्थ संख्या में बहुत हैं (स्कम्भस्य तत् एकं अङ्ग परः-असत्-जनाः-आहुः) सर्वाधार परमात्मा का वह एक अङ्गदेश है जो कि परः-अत्यन्त असत् अव्यक्त प्रकृतिनामक है ऐसा सज्जन लोग कहते हैं ॥२५॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Great indeed are those Devas which were born of primordial Prakrti. Sages say that that (Premordial Prakrti) is only one limb of Skambha. That primordial Prakrti, Asat is beyond the Devas. And Skambha is beyond that too.

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    Translation

    Great (brhantah) are called those bounties of Nature, that have sprung from the non-existent (asatah). That non-existent is just a part of the Skambha, so the wise man say.

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    Translation

    These are the cosmic elements named as Brihat which springs up from Asat, the non-manifested material cause, The born men say that one part of Skambha the Supporting Divine Power is non-manifested material cause.

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    Translation

    Great, verily, are those forces of Nature which sprang from Matter. The wise say that the impermanent created world is a part of the All-pervading God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(बृहन्तः) महान्तः (नाम) अवश्यम् (ते) प्रसिद्धाः (देवाः) कारणरूपदिव्यपदार्थाः (ये) (असतः) अनित्यात् कार्यरूपजगतः (परि) सर्वतः (जज्ञिरे) प्रादुर्बभूवुः (एकम्) अल्पमित्यर्थः (तत्) (अङ्गम्) (स्कम्भस्य) परमेश्वरस्य (असत्) अनित्यं कार्यं जगत् (आहुः) कथयन्ति (परः) परस्तात् (जनाः) विद्वांसः ॥

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