Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    0

    असच्छा॒खां प्र॒तिष्ठ॑न्तीं पर॒ममि॑व॒ जना॑ विदुः। उ॒तो सन्म॑न्य॒न्तेऽव॑रे॒ ये ते॒ शाखा॑मु॒पास॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒त्ऽशा॒खाम् । प्र॒ऽतिष्ठ॑न्तीम् । प॒र॒मम्ऽइ॑व । जना॑: । वि॒दु: । उ॒तो इति॑ । सत् । म॒न्य॒न्ते॒ । अव॑रे । ये । ते॒ । शाखा॑म् । उ॒प॒ऽआस॑ते ॥७.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असच्छाखां प्रतिष्ठन्तीं परममिव जना विदुः। उतो सन्मन्यन्तेऽवरे ये ते शाखामुपासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत्ऽशाखाम् । प्रऽतिष्ठन्तीम् । परमम्ऽइव । जना: । विदु: । उतो इति । सत् । मन्यन्ते । अवरे । ये । ते । शाखाम् । उपऽआसते ॥७.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (जनाः) पामर जन (प्रतिष्ठन्तीम्) फैलती हुई (असच्छाखाम्) असत् [अनित्य कार्यरूप जगत्] की व्याप्ति को (परमम् इव) परम उत्कृष्ट पदार्थ के समान (विदुः) जानते हैं। (उतो) और (ये) जो (अवरे) पीछे होनेवाले, [कार्यरूप जगत्] में (सत्) सत् [नित्य कारण] को (मन्यन्ते) मानते हैं, वे [लोग] (ते) तेरी (शाखाम्) व्याप्ति को (उपासते) भजते हैं ॥२१॥

    भावार्थ

    अज्ञानी मनुष्य कार्यरूप संसार को परम अवधि मानते हैं, परन्तु ज्ञानी मनुष्य कार्यरूप जगत् में कारण को खोजकर आदि कारण परमात्मा की व्याप्ति को साक्षात्कार करते हैं ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(असच्छाखाम्) अनित्यस्य कार्यरूपजगतो व्याप्तिम् (प्रतिष्ठन्तीम्। प्रकर्षेण विस्तारेण वर्तमानाम् (परमम्) उत्कृष्टमवधिम् (इव) यथा (जनाः) पामरलोकाः (विदुः) जानन्ति (उतो) अपि च (सत्) नित्यं कारणम् (मन्यन्ते) जानन्ति (अवरे) पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा। पा० ७।१।१६। स्मिन् इत्यस्याभावः। पश्चाद्वर्तिनि काले कार्यरूपजगति (ये) विद्वांसः (ते) तव, परमेश्वरस्य (शाखाम्) शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। व्याप्तिम् (उपासते) भजन्ते ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'असत् शाखा' का उपासन

    पदार्थ

    १. अदृश्य होने से प्रकृति 'अ-सत्' कहलाती है तथा यह दृश्य जगत् 'सत्' कहा गया है। संसार-वृक्ष की शाखाएँ ऊपर-नीचे फैली हैं ('अधश्चोर्ध्व प्रसृतास्तस्य शाखाः')। इस वृक्ष का मूल वह 'असत्' प्रकृति है। यह अनन्त शाखाओंवाला संसार बड़े दृढ़ मूलवाला है। यह हमारे हृदयों में प्रतिष्ठित-सा हो जाता है। (प्रतिष्ठन्तीम्) = हृदयों में प्रकर्षेण अपना स्थान बनाती हुई इन (असत् शाखाम्) = प्रकृतिमूलक वृक्ष-शाखाओं को ही (जना:) = सामान्य लोग (परमं इव विदुः सर्वोत्तम) = सा जानते हैं। २. (उतो) = और (ये) = जो (शाखाम्) = इस संसारवृक्ष-शाखा की (उपासते) = उपासना करते हैं (ते अवरे) = वे निम्न श्रेणी के लोग इसे ही (सत् मन्यन्ते) = श्रेष्ठ समझते हैं। इसी में उलझे हुए वे जन्म-मरण के चक्र से ऊपर नहीं उठ पाते।

    भावार्थ

    सामान्य लोग प्रकृति से उत्पन्न इस संसार-वृक्ष को ही 'परम' समझते हैं, इसे ही वे सत्[ श्रेष्ठ] मानते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (असत् - शाखाम्) शाखाविहीन अर्थात् उत्पत्तिरहित, (प्रतिष्ठन्तीम्) तथा कार्योत्पादनमुखी हो कर प्रस्थान अर्थात् क्रिया करने वाली प्रकृति को (जनाः) कई लोग (परमम्, इव) परम-तत्व के सदृश (विदुः) जानते हैं। (उतो) और (ये) जो (अवरे) अवरकोटि के जन हैं, (ते) वे (सत्) अभिव्यक्त-जगत् को परम तत्त्व (मन्यन्ते) मानते हैं, और (शाखाम्) प्रकृति की शाखाओं की (उपासते) उपासना करते हैं।

    टिप्पणी

    [प्रकृति की दो अवस्थाएं हैं, (१) प्रकृत्यवस्था, अर्थात् साम्यावस्था। (२) और विकृत्यवस्था अर्थात् विषमावस्था। प्रकृत्यवस्था में प्रकृतिरूपबीज न अंकुरित होता, और न शाखाओं वाला होता है। वैज्ञानिक इस प्रकृति को ही “स्वतः परिणामशीला" मानते हैं, और कहते हैं कि प्रकृति, किसी ज्ञानी-प्रेरक के बिना ही स्वयमेव विविध जगत् के रूप में, अर्थात् विषमावस्था में परिणत हुई है। वे प्रकृति को ही परम-तत्त्व के सदृश मानते हैं। परन्तु उन वैज्ञानिकों की अपेक्षा जो अवरकोटि के लोग हैं वे अभिव्यक्त जगत् को परम-तत्व मान कर प्रकृति की शाखाओं की ही उपासना करते रहते हैं। चान्द, सूर्य, मूर्ति आदि अभिव्यक्त पदार्थ शाखारूप हैं, वे इन शाखाओं की उपासना में मस्त रहते हैं]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (प्रतिष्ठन्त सच्छाखां-परमम् इव-जनाः-विदुः) सम्मुख वर्तमान हुई सृष्टि के असत् अर्थात् अव्यक्त प्रवृति की शाखा को परम तत्त्व जैसा ही जन जानते हैं कार्यरूप नश्वर को जानकर इसमें ही रमण नहीं करते (उत-उ-ये-अवर-शाखां-उपासते) अपितु वैसे जो निकृष्ट जन हैं वे तो इस सत् ही मानते हैं वे शाखा सृष्टि को ही सेवन करते हैं ॥२१॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Some people believe that the constant, self- existent, primordial state of Prakrti, wherein there is no germination and no branch, is the supreme reality. Others believe that the germinated, variously branched off mutable state of the world alone is the reality and they recognise and worship it as such. (Both of them do not know the Skambha.)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The non-existing (asat) branch of Him, the people think to be the well-established and, as if, the supreme. And the others, who worship that branch, think it to be existing (sat) and real.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Some persons comprehend the present branch of the non-manifested world as the main material cause of the Universe and some others who analyze this branch from its nearest point accept it as sat, the existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The ignorant count the conspicuous, impermanent created world as a thing supreme. The wise, in the created world, search for the All-pervading God, as the Efficient cause of the universe.

    Footnote

    Secret treasure: Primordial Veda. Thirty-three forces: See verse 13th. Who knoweth: Very few know.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(असच्छाखाम्) अनित्यस्य कार्यरूपजगतो व्याप्तिम् (प्रतिष्ठन्तीम्। प्रकर्षेण विस्तारेण वर्तमानाम् (परमम्) उत्कृष्टमवधिम् (इव) यथा (जनाः) पामरलोकाः (विदुः) जानन्ति (उतो) अपि च (सत्) नित्यं कारणम् (मन्यन्ते) जानन्ति (अवरे) पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा। पा० ७।१।१६। स्मिन् इत्यस्याभावः। पश्चाद्वर्तिनि काले कार्यरूपजगति (ये) विद्वांसः (ते) तव, परमेश्वरस्य (शाखाम्) शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। व्याप्तिम् (उपासते) भजन्ते ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top