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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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    इन्द्रे॑ लो॒का इन्द्रे॒ तप॒ इन्द्रे॑ऽध्यृ॒तमाहि॑तम्। इन्द्रं॒ त्वा वे॑द प्र॒त्यक्षं॑ स्क॒म्भे सर्वं॒ प्रति॑ष्ठितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ । लो॒का: । इन्द्रे॑ । तप॑: । इन्द्रे॑ । अधि॑ । ऋ॒तम् । आऽहि॑तम् । इन्द्र॑म् । त्वा॒ । वे॒द॒। प्र॒ति॒ऽअक्ष॑म् । स्क॒म्भे । सर्व॑म्‌ । प्रति॑ऽस्थितम् ॥७.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रे लोका इन्द्रे तप इन्द्रेऽध्यृतमाहितम्। इन्द्रं त्वा वेद प्रत्यक्षं स्कम्भे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रे । लोका: । इन्द्रे । तप: । इन्द्रे । अधि । ऋतम् । आऽहितम् । इन्द्रम् । त्वा । वेद। प्रतिऽअक्षम् । स्कम्भे । सर्वम्‌ । प्रतिऽस्थितम् ॥७.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रे) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा] में (लोकाः) सब लोक, (इन्द्रे) इन्द्र में (तपः) तप [ऐश्वर्य वा सामर्थ्य] (इन्द्रे अधि) इन्द्र में ही (ऋतम्) सत्य शास्त्र (आहितम्) सब प्रकार ठहरा है। (त्वा) तुझको (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान्] (प्रत्यक्षम्) प्रत्यक्ष (वेद) जानता हूँ, (स्कम्भे) स्कम्भ [धारण करनेवाले, तुझ] में (सर्वम्) सब [जगत्] (प्रतिष्ठितम्) परस्पर ठहरा है ॥३०॥

    भावार्थ

    इन्द्र अर्थात् परमेश्वर में सब सूर्य आदि लोक और सब पदार्थ वर्तमान हैं, उसी को मनुष्य स्कम्भ कहते हैं ॥३०॥

    टिप्पणी

    ३०−(इन्द्रे) परमैश्वर्यवति जगदीश्वरे (स्कम्भे) सर्वधारके (प्रतिष्ठितम्) परस्परं स्थितम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    इन्द्रः-स्कम्भः

    पदार्थ

    १. (सूर्यात् पुरा) = सूर्योदय से पूर्व ही, सूर्योदय से क्या? (उषस: पुरा) = उषाकाल से भी पहले नाना-'इन्द्र, स्कम्भ' आदि नामों से एक साधक (नाम जोहवीति) = उस शत्रुओं को नमानेवाले प्रभु को पुकारता है। इस 'नाम-जप' से प्रेरणा प्राप्त करके (यत्) = जब (अज:) = सब बुराइयों को क्रियाशीलता द्वारा परे फेंकनेवाला जीव [अज गतिक्षेपणयोः] (प्रथमम्) = उस सर्वाग्रणी व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु के (संबभूव) = साथ होता है, अर्थात् प्रभु से अपना मेल बनाता है, तब (स:) = वह अज (ह) = निश्चय से (स्वराज्यम् इयाय) = स्वराज्य प्राप्त करता है-अपना शासन करनेवाला बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। वह उस स्वराज्य को प्राप्त करता है (यस्मात्) = जिससे (परम्) = बड़ा (अन्यत्) = दूसरा (भूतम्) = पदार्थ (न अस्ति) = नहीं हैं।

    भावार्थ

    जब एक साधक ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का स्मरण करता है तब वह बुराइयों को दूर करके प्रभु के साथ मेलवाला होता है। यह प्रभु-सम्पर्क इसे इन्द्रियों का स्वामी [न कि दास] बनाता है। यह आत्मशासन-स्वराज्य-सर्वोत्तम वस्तु है।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रे लोकाः) इन्द्र में लोक, (इन्द्रे तपः) इन्द्र में तप, (इन्द्रे अधि) इन्द्र में (ऋतम्) ऋत (आहितम्) स्थित है। (इन्द्रम्) हे इन्द्र ! (त्वा) तुझे (प्रत्यक्षम् वेद) प्रत्यक्षरूप में मैं जानता हूं, (स्कम्भे) स्कम्भ में (सर्वम्) सब (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है।

    टिप्पणी

    [इन्द्र को स्कम्भ कहा है। अभिप्राय यह कि इन्द्र और स्कम्भ पर्यायवाची हैं। इन्द्र है परमेश्वर, सर्वैश्वर्यवान्। स्कम्भ है परमेश्वर सर्वाधार।]

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    मन्त्रार्थ

    (इन्द्रे लोकाः-इन्द्रे तपः इन्द्रे-अधि-ऋतम् आहितम्) इन्द्र नामक परमात्मा में लोक इन्द्र में तप इन्द्र में ऋत-ज्ञान आश्रित है (इन्द्रं त्वा प्रत्यक्षं वेद) हे इन्द्र परमात्मन् ! तुझे मैं प्रत्यक्षसाक्षात् जानता हूँ (स्कम्भे सर्व प्रतिष्ठितम्) सर्वाधार परमात्मा में सब प्रतिष्ठित है॥३०॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    The worlds of the universe abide in Indra. Tapas, the forging heat and skill, abides in Indra. Rtam, the law of mutability and formal evolution, abides comprehended and controlled in Indra. Hey Indra, I know you by direct experience. I know all and every thing abides comprehended in Skambha. (Skambha is Indra, and Indra is Skambha.)

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    Translation

    Within the resplendent Lord (Indra) are the worlds (lokāh) contained; within the resplendent Lord is the penance(tapah); within the resplendent Lord thé eternal law (rta) is reposed. O resplendent Lord, I have known you directly (pratyaksam), all of which is contained in the Skambha.

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    Translation

    The Worlds rest on Indra, the Almighty God, the strength of heating the material atoms finds rest in him and the eternal law reclive in Indra. O Indra, the Almighty Lord! I know you as Skambha in whom all of the universe finds its repose.

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    Translation

    On Indra the worlds and penance rest. Vedic knowledge reclines on Indra. O Indra I clearly know Thee, on Thee, skambh rests the whole universe.

    Footnote

    Indra, Skambh: God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(इन्द्रे) परमैश्वर्यवति जगदीश्वरे (स्कम्भे) सर्वधारके (प्रतिष्ठितम्) परस्परं स्थितम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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