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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - यक्ष्मनाशनी
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
येव॒ध्वश्च॒न्द्रं व॑ह॒तुं यक्ष्मा॑ यन्ति॒ जनाँ॒ अनु॑। पुन॒स्तान्य॒ज्ञिया॑दे॒वा न॑यन्तु॒ यत॒ आग॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठये । व॒ध्व᳡: । च॒न्द्रम् । व॒ह॒तुम् । यक्ष्मा॑: । यन्ति॑ । जना॑न् । अनु॑ । पुन॑: । तान् । य॒ज्ञिया॑: । दे॒वा: । नय॑न्तु । यत॑: । आऽग॑ता: ॥१.१०।
स्वर रहित मन्त्र
येवध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनाँ अनु। पुनस्तान्यज्ञियादेवा नयन्तु यत आगताः ॥
स्वर रहित पद पाठये । वध्व: । चन्द्रम् । वहतुम् । यक्ष्मा: । यन्ति । जनान् । अनु । पुन: । तान् । यज्ञिया: । देवा: । नयन्तु । यत: । आऽगता: ॥१.१०।
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
विषय - रोगनिवारण
पदार्थ -
१.(ये यक्ष्मा) = जो रोग (जनान् अनु) = मनुष्यों को प्राप्त होने के (पश्चात् वध्वः चन्द्रं वहतुम्) = वधू के आहादमय, सुन्दर शरीर-रथ को भी (यन्ति) = प्राप्त होते हैं, (तान्) = उन रोगों को (यज्ञियाः देवा:) = आदरणीय विद्वान् पुरुष (पुन:) = फिर वहाँ (नयन्तु) = प्राप्त कराएँ, (यतः आगताः) = जहाँ से कि ये आये थे। २. पुरुष का जीवन कुछ भी भोगप्रधान हुआ तो शरीर में 'यक्ष्मा' का प्रवेश हो जाता है। पुरुष से यह रोग वधू को भी प्राप्त हो जाता है। आदरणीय विद्वान् अतिथियों का 1यह कर्तव्य होता है कि जिस कारण से ये रोग उत्पन्न होते हैं उनका ठीक से ज्ञान देकर उन कारणों को दूर करने के लिए प्रेरित करें। मुख्य बात यही है कि पति-पत्नी का जीवन भोगप्रधान न हो जाए।
भावार्थ -
मनुष्य भोगप्रवण होते ही रोगों को आमन्त्रित करता है। ये रोग पत्नी को भी प्राप्त हो जाते हैं। घर में अतिथिरूपेण आने-जानेवाले विद्वानों का कर्तव्य होता है कि वे रोग कारणों का ज्ञान देकर रोगों को दूर करने में सहायक हों।
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