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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
सूक्त - आत्मा
देवता - त्र्यवसाना षट्पदा विराट् अत्यष्टि
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
इ॒दं सु मे॑ नरःशृणुत॒ यया॒शिषा॒ दंप॑ती वा॒मम॑श्नु॒तः। ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रस॑श्च दे॒वीरे॒षुवा॑नस्प॒त्येषु॒ येऽधि॑ त॒स्थुः। स्यो॒नास्ते॑ अ॒स्यै व॒ध्वै॑ भवन्तु॒ माहिं॑सिषुर्वह॒तुमु॒ह्यमा॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । सु । मे॒ । न॒र॒: । शृ॒णु॒त॒ । यया॑ । आ॒ऽशिषा॑ । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । वा॒मम् । अ॒श्नु॒त: । ये । ग॒न्ध॒र्वा: । अ॒प्स॒रस॑: । च॒ । दे॒वी: । ए॒षु । वा॒न॒स्प॒त्येषु॑ । ये । अधि॑ । त॒स्थु: । स्यो॒ना: । ते॒ । अ॒स्यै । व॒ध्वै । भ॒व॒न्तु॒ । मा । हिं॒सि॒षु॒: । व॒ह॒तुम् । उ॒ह्यमा॑नम् ॥२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं सु मे नरःशृणुत ययाशिषा दंपती वाममश्नुतः। ये गन्धर्वा अप्सरसश्च देवीरेषुवानस्पत्येषु येऽधि तस्थुः। स्योनास्ते अस्यै वध्वै भवन्तु माहिंसिषुर्वहतुमुह्यमानम् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । सु । मे । नर: । शृणुत । यया । आऽशिषा । दंपती इति दम्ऽपती । वामम् । अश्नुत: । ये । गन्धर्वा: । अप्सरस: । च । देवी: । एषु । वानस्पत्येषु । ये । अधि । तस्थु: । स्योना: । ते । अस्यै । वध्वै । भवन्तु । मा । हिंसिषु: । वहतुम् । उह्यमानम् ॥२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
विषय - गन्धर्वः व देवीः अप्सरसः
पदार्थ -
१. हे (नरः) = मनुष्यो ! (मे) = मेरे (इदम्) = इस वचन को (सुशृणत) = सम्यक् श्रवण करो। इस बचन में उस आशीर्वाद का प्रतिपादन है, (यया आशिषा) = जिस आशीर्वाद से (दम्पती) = पति-पत्नी (वामम्) = सुन्दर गृहस्थ-जीवन को (अश्नुत:) = व्यास करनेवाले होते हैं। (ये गन्धर्वा:) = जो ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाले ज्ञानी पुरुष हैं (च) = और देवी (अप्सरसः) = दिव्य व्यवहारों को सिद्ध करनेवाली [अप्सर] क्रियाशील देवियाँ हैं, (ये) = जो (एषु वानस्पत्येषु) = इन वनस्पतिजनित पदार्थों पर ही (अधितस्थुः) = स्थित होते हैं, अर्थात् जो कभी भी मांसाहार की ओर नहीं झुकते (ते) = वे (अस्यै वध्वै) = इस वधू के लिए (स्योना: भवन्तु) = सुख देनेवाले हों। नवदम्पती के लिए इससे उत्तम आशीर्वाद और क्या हो सकता है कि उनके सास-श्वसुर ज्ञान की हविवाले व क्रियाशील जीवनवाले हों। ये वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करनेवाले हों। इसप्रकार 'सास-श्वसुर' कभी भी कटुता को उत्पन्न नहीं होने देते। २. उल्लिखित 'गन्धर्व और देवी' अप्सराएँ (उह्यमानम्) = युवक व युवति से धारण किये जाते हुए इस गृहस्थ को (मा हिंसिष:) = हिंसित न होने दें। उनका व्यवहार वधूको उत्साहित करनेवाला हो। उत्साहयुक्त हृदयवाली वधू ही गृहस्थ-रथ का सम्यक् वहन कर पाएगी।
भावार्थ -
जिस युवक और युवति को उत्तम सास-श्वसुर प्राप्त होते हैं, वे उत्साहमय जीवनवाले होते हुए गृहस्थ-रथ का सम्यक् वहन कर पाते हैं। श्वसुर ज्ञानरुचिवाला हो, सास यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हो। दोनों ही मांसभोजन से दूर रहें। इससे बढ़कर वधू का सौभाग्य नहीं। इन 'गन्धवों व अप्सराओं' को पाकर युवतियाँ गृहस्थ का सम्यक् वहन कर पाती हैं।
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