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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 68
सूक्त - आत्मा
देवता - विराट् पुरउष्णिक्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
कृ॒त्रिमः॒कण्ट॑कः श॒तद॒न्य ए॒षः। अपा॒स्याः केश्यं॒ मल॒मप॑ शीर्ष॒ण्यं लिखात् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒त्रिम॑: । कण्ट॑क: । श॒तऽद॑न् । य: । ए॒ष: । अप॑ । अ॒स्या: । केश्य॑म् । मल॑म् । अप॑ । शी॒र्ष॒ण्य᳡म् । लि॒खा॒त् ॥२.६८॥
स्वर रहित मन्त्र
कृत्रिमःकण्टकः शतदन्य एषः। अपास्याः केश्यं मलमप शीर्षण्यं लिखात् ॥
स्वर रहित पद पाठकृत्रिम: । कण्टक: । शतऽदन् । य: । एष: । अप । अस्या: । केश्यम् । मलम् । अप । शीर्षण्यम् । लिखात् ॥२.६८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 68
विषय - कृत्रिम कण्टक
पदार्थ -
१. (यः) = जो (एष:) = यह (शतदन) = सैकड़ों दाँतोंवाली (कृत्रिमः) = शिल्पियों द्वारा निर्मित (कण्टक:) = कंघी है, वह (अस्याः) = इस वधू के (केश्यम्) = केशों में होनेवाले (शीर्षण्यं मलम्) = सिर के मल को (अपलिखात्) = दूर व सुदूर कर दे। २. कंघी से बाहर से सिर-शुद्धि इसप्रकार हो जाती है कि उसमें किसी प्रकार की जुएँ आदि पड़कर क्लेश का कारण नहीं बन पातीं। जहाँ अन्तःशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है, वहाँ बाह्यशुद्धि उसमें सहायक बनती है।
भावार्थ -
सिर के बालों को कंघी से शुद्ध कर लेना आवश्यक है। इससे मल-सञ्चित होकर केशों में जुएँ आदि पड़ने की आशंका नहीं रहती।
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