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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यं बल्ब॑जं॒न्यस्य॑थ॒ चर्म॑ चोपस्तृणी॒थन॑। तदा रो॑हतु सुप्र॒जा या क॒न्या वि॒न्दते॒पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । बल्ब॑जम् । नि॒ऽअस्य॑थ । चर्म॑ । च॒ । उ॒प॒ऽस्तृ॒णी॒थन॑ । तत् । आ । रो॒ह॒तु॒ । सु॒ऽप्र॒जा: । या । क॒न्या᳡ । वि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यं बल्बजंन्यस्यथ चर्म चोपस्तृणीथन। तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दतेपतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । बल्बजम् । निऽअस्यथ । चर्म । च । उपऽस्तृणीथन । तत् । आ । रोहतु । सुऽप्रजा: । या । कन्या । विन्दते । पतिम् ॥२.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
विषय - 'मृगचर्म पर तृणासन बिछा' उसपर बैठकर अग्निहोत्र करना
पदार्थ -
१. (चर्म च उपस्तृणीथन) = जो तुम मृगचर्म बिछाते हो और उसपर (यम्) = जिस (बल्बजम्) = तणासन को (न्यस्यथ) = स्थापित करते हो, (तत्) = उस आसन पर (सुप्रजा:) = यह उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली (कन्या) = कन्या (या पतिं विन्दते) = जो अभी-अभी पति को प्राप्त करती है, (आरोहतु) = आरोहण करे। इस आसन पर वह उपविष्ट हो। २. हे पुरुष! तु (रोहिते चर्मणि अधि) = रोहित मृग के चर्म [मृगचर्म] पर (बल्बजम् उपस्तृणीहि) = इस तृणासन को बिछा दे। (तत्र) = उस आसन पर उपविश्य बैठकर (सुप्रजा:) = उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली यह कन्या (इमम् अग्रिं सर्पयतु) इस अग्नि का पूजन करे। घर में अग्निहोत्र करना आवश्यक है। यह घर के रोगकृमियों को नष्ट करके स्वास्थ्य का साधक होता है।
भावार्थ -
गृहपत्नी मृगचर्म पर तृणासन बिछाकर, उसपर बैठे। वहाँ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठकर प्रतिदिन अग्रिहोत्र अवश्य करे। यह अग्निहोत्र घर की नीरोगता का साधक है।
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