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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
    सूक्त - आत्मा देवता - प्रस्तार पङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    नवं॒ वसा॑नःसुर॒भिः सु॒वासा॑ उ॒दागां॑ जी॒व उ॒षसो॑ विभा॒तीः। आ॒ण्डात्प॑त॒त्रीवा॑मुक्षि॒विश्व॑स्मा॒देन॑स॒स्परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नव॑म् । वसा॑न: । सु॒र॒भि: । सु॒ऽवासा॑: । उ॒त्ऽआगा॑म् । जी॒व: । उ॒षस॑: । वि॒ऽभा॒ती: । आ॒ण्डात् । प॒त॒त्रीऽइ॑व । अ॒मु॒क्षि॒ । विश्व॑स्मात् । एन॑स: । परि॑॥२.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नवं वसानःसुरभिः सुवासा उदागां जीव उषसो विभातीः। आण्डात्पतत्रीवामुक्षिविश्वस्मादेनसस्परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नवम् । वसान: । सुरभि: । सुऽवासा: । उत्ऽआगाम् । जीव: । उषस: । विऽभाती: । आण्डात् । पतत्रीऽइव । अमुक्षि । विश्वस्मात् । एनस: । परि॥२.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 44

    पदार्थ -

    १. एक गृहस्थ प्रार्थना करता है कि मैं (नवं वसान:) = [नु स्तुतौ] स्तुति को धारण करता हुआ-प्रभु स्मरण को-प्रणवजप को अपना कवच बनाता हुआ (सुरभिः) = सुगन्धित, पापशून्य, यशस्वी जीवनवाला सुवासा:-उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए जीव:-जीवनशक्ति से परिपूर्ण मैं विभाती: उषसा: देदीप्यमान उषाओं में उत् आगाम्-शैय्या से उठ खड़ा होऊँ-बिछौनों को छोड़कर कर्त्तव्यकर्मों में तत्पर होऊँ। २. इसप्रकार सदा उषाकाल में जागता हुआ मैं विश्वस्मात् एनस:-सब पापों से इसप्रकार परि अमुक्षि-दूर होऊ इव-जैसेकि आण्डात्पतत्री-अण्डे से पक्षी मुक्त हो जाता है।

    भावार्थ -

    प्रणवजप करते हुए हम सुगन्धित जीवनवाले बनें, उषाकाल में प्रबुद्ध हों। पाप से सर्वथा मुक्त होकर दीसजीवनवाले हों।

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