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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
    सूक्त - आत्मा देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    तां पू॑षंछि॒वत॑मा॒मेर॑यस्व॒ यस्यां॒ बीजं॑ मनु॒ष्या॒ वप॑न्ति। या न॑ ऊ॒रू उ॑श॒तीवि॒श्रया॑ति॒ यस्या॑मु॒शन्तः॑ प्र॒हरे॑म॒ शेपः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । पूष॑न् । शि॒वऽत॑माम् । आ । ई॒र॒य॒स्व॒ । यस्या॑म् । बीज॑म् । म॒नु॒ष्या᳡: । वप॑न्ति । या । न॒: । ऊ॒रू इति॑ । उ॒श॒ति । वि॒ऽश्रया॑ति । यस्या॑म् । उ॒शन्त॑: । प्र॒ऽहरे॑म । शेप॑: ॥२.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां पूषंछिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति। या न ऊरू उशतीविश्रयाति यस्यामुशन्तः प्रहरेम शेपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । पूषन् । शिवऽतमाम् । आ । ईरयस्व । यस्याम् । बीजम् । मनुष्या: । वपन्ति । या । न: । ऊरू इति । उशति । विऽश्रयाति । यस्याम् । उशन्त: । प्रऽहरेम । शेप: ॥२.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 38

    पदार्थ -

    १. हे (पूषन्) = अपनी शक्तियों का उचित पोषण करनेवाले युवक ! तू (तां शिवतमाम्) = उस अतिशयेन मंगलमय स्वभाववाली पत्नी को (एरयस्व) = प्रेरित करनेवाला हो। पति में सन्तान प्राप्ति की कामना हो तो पत्नी को भी उस भावना से युक्त होने के लिए प्रेरित करे। उस पत्नी को तू प्रेरणा देनेवाला हो (यस्याम्) = जिसमें (मनुष्या:) = विचारशील व्यक्ति (बीजं वपन्ति) = सन्तानोत्पत्ति के लिए बीज का वपन करते हैं। २. पत्नी वही ठीक है (या) = जो (उशती) = उत्तम सन्तान की कामनावाली होती हुई (न: ऊरू विश्नयाति) = हमारे ऊरूओं को खोलनेवाली होती है। (यस्याम) = जिसमें पति भी (उशन्त:) = उत्तम सन्तान की कामनावाले होते हुए (शेपं प्रहोम) = जननेन्द्रिय को प्राप्त कराते हैं। सन्तान की कामना से होनेवाला यह बीजवपन 'वीर्यदान' कहलाता है। भोगवत्ति में यही 'वीर्यविनाश' हो जाता है।

    भावार्थ -

    पति 'पूषा' हो, पत्नी शिवतमा'। दोनों उत्तम सन्तान की कामनावाले होकर ही परस्पर सम्बद्ध हों। यह सम्बन्ध पवित्र होता हुआ शक्ति-विनाश का कारण न बनेगा।

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