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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    उत्ति॑ष्ठे॒तःकिमि॒च्छन्ती॒दमागा॑ अ॒हं त्वे॑डे अभि॒भूः स्वाद्गृ॒हात्। शू॑न्यै॒षी नि॑रृते॒याज॒गन्धोत्ति॑ष्ठाराते॒ प्र प॑त॒ मेह रं॑स्थाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒ । इ॒त: । किम् । इ॒च्छन्ती॑ । इ॒दम् । आ । अ॒गा॒: । अ॒हम् । त्वा॒ । ई॒डे॒ । अ॒भि॒ऽभू: । स्वात् । गृ॒हात् । शू॒न्य॒ऽए॒षी । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । या । आ॒ऽज॒गन्ध॑ । उत् । ति॒ष्ठ॒ । अ॒रा॒ते॒ । प्र । प॒त॒ । मा । इह । रं॒स्था॒: ॥१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठेतःकिमिच्छन्तीदमागा अहं त्वेडे अभिभूः स्वाद्गृहात्। शून्यैषी निरृतेयाजगन्धोत्तिष्ठाराते प्र पत मेह रंस्थाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठ । इत: । किम् । इच्छन्ती । इदम् । आ । अगा: । अहम् । त्वा । ईडे । अभिऽभू: । स्वात् । गृहात् । शून्यऽएषी । नि:ऽऋते । या । आऽजगन्ध । उत् । तिष्ठ । अराते । प्र । पत । मा । इह । रंस्था: ॥१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 19

    पदार्थ -

    १.हे (निर्ऋते) = अलक्ष्मि! तू (इत: उत्तिष्ठ) = यहाँ से खड़ी हो। (किं इच्छन्ति इदं आ अगा:) = क्या चाहती हुई तू इस घर में आई है। (अहं त्वा ईडे) = मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि तू चुपके-से चली जा। (अभिभूः स्वात् गृहात्) = मैं अपने घर से तेरा पराभव करनेवाला हूँ। तुझे इस घर से अवश्य बहिष्कृत करूँगा। २. (शून्यैषी) = घर को सुना करना चाहती हुई (या) = जो तू (आजगन्ध) = यहाँ आई है, वह तू (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ी हो। हे (अराते) = अदान की वृत्ति, कृपणते! (प्रपत) = यहाँ से भाग जा। (इह मा रंस्था) = यहाँ तू रमण करनेवाली न हो।

    भावार्थ -

    पति-पत्नी यह दृढ़ निश्चय करें कि उनके घर में अलक्ष्मी व अराति [अदानवृत्ति] का निवास नहीं होगा।

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