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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    रु॒क्मप्र॑स्तरणंव॒ह्यं विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तम्। आरो॑हत्सू॒र्या सा॑वि॒त्री बृ॑ह॒तेसौभ॑गाय॒ कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒क्म॒ऽप्रस्त॑रणम् । व॒ह्यम् । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । बिभ्र॑तम् । आ । अ॒रो॒ह॒त् । सू॒र्या । सा॒वि॒त्री । बृ॒ह॒ते । सौभ॑गाय । कम् ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुक्मप्रस्तरणंवह्यं विश्वा रूपाणि बिभ्रतम्। आरोहत्सूर्या सावित्री बृहतेसौभगाय कम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुक्मऽप्रस्तरणम् । वह्यम् । विश्वा । रूपाणि । बिभ्रतम् । आ । अरोहत् । सूर्या । सावित्री । बृहते । सौभगाय । कम् ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 30

    पदार्थ -

    १. (सूर्या) = सूर्यसम तेजस्विनी, (सावित्री) = उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली यह वधू (बृहते सौभगाय) = महान् सौभाग्य के लिए (कं वह्यम्) = इस सुखप्रद गृहस्थ-रथ पर (आरोहत्) = आरूढ़ हुई है। यह वधू इस गृहस्थ के सौभाग्य को बढ़ानेवाली ही प्रमाणित होगी। २. यह गृहस्थ (रुक्मनप्रस्तरणम्) = देदीप्यमान, शुद्ध व अलंकृत प्रस्तरणों-बिछौनोंबाला है तथा (विश्वा रूपाणि बिभ्रतम्) = [रूप cattle] गौ आदि सब पशुओं से युक्त हो। यहाँ न आवश्यक वस्त्रों की कमी है, न दूध, दही आदि की ही कमी है।

    भावार्थ -

    वधू को 'सूर्या व सावित्री' होना है। वर को ऐसी व्यवस्था करनी है कि घर में न आवश्यक वस्त्रों की कमी हो और न शरीर के लिए आवश्यक दुधादि भोजनों की कमी हो।

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