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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 75
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
प्र बु॑ध्यस्वसु॒बुधा॒ बुध्य॑माना दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय। गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । बु॒ध्य॒स्व॒ । सु॒ऽबुधा॑ । बुध्य॑माना । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । गृ॒हान् । ग॒च्छ॒ । गृ॒हऽप॑त्नी । यथा॑ । अस॑: । दी॒र्घम् । ते॒ । आयु॑: । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥२.७५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र बुध्यस्वसुबुधा बुध्यमाना दीर्घायुत्वाय शतशारदाय। गृहान्गच्छ गृहपत्नीयथासो दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । बुध्यस्व । सुऽबुधा । बुध्यमाना । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । गृहान् । गच्छ । गृहऽपत्नी । यथा । अस: । दीर्घम् । ते । आयु: । सविता । कृणोतु ॥२.७५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 75
विषय - सुबुधा-बुध्यमाना
पदार्थ -
१. पत्नी को अन्तिम आशीर्वाद व शिक्षा इस रूप में दी जाती है कि (प्रबुध्यस्व) = तू प्रकृष्ट बोधवाली हो। (सुबुधा) = उत्तम बुद्धिवाली तू (बुध्यमाना) = समझदार बन। इसप्रकार तू शतशारदाय (दीर्घायुत्वाय) = शत वर्षों के दीर्घजीवन के लिए हो। २. (गृहान् गच्छ) = पति के गृह को तू प्राप्त हो (यथा) = जिससे तू (गृहपत्नी असः) = गृहपत्नी बने। तु वस्तुत: घर का उत्तमता से रक्षण करनेवाली हो। (सविता) = वह सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभु (ते आयु:) = तेरे आयुष्य को (दीर्घकृणोतु) = दीर्घ करे ।
भावार्थ -
पत्नी उत्तम बोधवाली होती हुई सब कार्यों को समझदारी से करे। पतिगृह को प्राप्त होकर वस्तुतः गृहपत्नी बने। प्रभु-स्मरणपूर्वक कार्यों को करती हुई दीर्घजीवन प्राप्त करे ।
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