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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 65
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यदा॑स॒न्द्यामु॑प॒धाने॒ यद्वो॑प॒वास॑ने कृ॒तम्। वि॑वा॒हे कृ॒त्यां यांच॒क्रुरा॒स्नाने॒ तां नि द॑ध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒ऽस॒न्द्योम् । उ॒प॒ऽधाने॑ । यत् । वा॒ । उ॒प॒ऽवास॑ने । कृ॒तम् । वि॒ऽवा॒हे । कृ॒त्याम । याम् । च॒क्रु: । आ॒ऽस्नाने॑ । ताम् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥२.६५॥
स्वर रहित मन्त्र
यदासन्द्यामुपधाने यद्वोपवासने कृतम्। विवाहे कृत्यां यांचक्रुरास्नाने तां नि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आऽसन्द्योम् । उपऽधाने । यत् । वा । उपऽवासने । कृतम् । विऽवाहे । कृत्याम । याम् । चक्रु: । आऽस्नाने । ताम् । नि । दध्मसि ॥२.६५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 65
विषय - आ-स्नान
पदार्थ -
१. (यत्) = जो (आसन्धाम्) = कुर्सी में बैठने के उपकरणभूत आसन में, (उपधाने) = तकिये में, (यत् वा) = अथवा उपवासने अग्नि के प्रचलन में [kindling of fire] (कृतम्) = दोष उत्पन्न कर दिया गया है अथवा (विवाहे) = विवाह के सारे कार्यक्रम में (यां कृत्यां चक:) = जिस छेदन-भेदन की क्रिया को दुष्ट लोग कर देते हैं (ताम्) = उस सबको (आस्नाने निदध्मसि) = [षण शौचे] सर्वत: शोधन प्रक्रिया के द्वारा [निधा-put down. remove. end] समास करते हैं। २. कुर्सी को एकबार हाथ से ठीक प्रकार हिलाकर तभी उसपर बैठना चाहिए इससे उसमें कुछ विकार होगा तो उसका पता लग जाएगा। सिरहाने व बिस्तरे को भी एकबार झाड़ लेना ठीक है। अग्नि प्रज्वलन में तो सावधानी नितान्त आवश्यक है ही। विवाह के अवसर पर जागरूकता के अभाव में अधिक हानि हो जाने की सम्भावना होती ही है।
भावार्थ -
कुर्सी पर बैठने, तकिये पर सिर रखने, अग्नि के प्रज्वलन व विवाह-कार्य के समय जागरूक होते हुए शोधन आवश्यक है, अन्यथा हानि की सम्भावना बनी रहती है।
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