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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
    सूक्त - आत्मा देवता - उपरिष्टात् निचृत बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    या मे॑प्रि॒यत॑मा त॒नूः सा मे॑ बिभाय॒ वास॑सः। तस्याग्रे॒ त्वं व॑नस्पते नी॒विंकृ॑णुष्व॒ मा व॒यं रि॑षाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । मे॒ । प्रि॒यऽत॑मा । त॒नू: । सा । मे॒ । बि॒भा॒य॒ । वास॑स: । तस्य॑ । अग्ने॑ । त्वम् । व॒न॒स्प॒ते॒ । नी॒विम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । मा । व॒यम् । रि॒षा॒म॒ ॥२.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या मेप्रियतमा तनूः सा मे बिभाय वाससः। तस्याग्रे त्वं वनस्पते नीविंकृणुष्व मा वयं रिषाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । मे । प्रियऽतमा । तनू: । सा । मे । बिभाय । वासस: । तस्य । अग्ने । त्वम् । वनस्पते । नीविम् । कृणुष्व । मा । वयम् । रिषाम ॥२.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 50

    पदार्थ -

    १. 'कन्धे पर बोझ पड़ना' एक शब्दप्रयोग है, जिसका भाव कन्धे पर एक उत्तरदायित्व का आ जाना है। एक युवक के कन्धे पर अब एक युवति का यह वस्त्र आ पड़ा है तो वह 'उसके उत्तरदायित्व की वृद्धि हो जाती है', इतना ही नहीं अपितु उसके भोगविलास में डूब जाने की आशंका भी बढ़ जाती है, अतः युवक कहता है कि या-जो (मे प्रियतमा तनूः) = मेरा यह (प्रियतम) = प्यारा व सुन्दर प्रतीत होनेवाला शरीर है, (मे सा) = मेरा वह शरीर (वाससः बिभाय) = इस मेरे कन्धे पर आ जानेवाले वस्त्र से भयभीत होता है। मुझे भय प्रतीत होता है कि कहीं विलास में पड़कर मैं इस प्रियतम तनू को बिकृत न कर बैहूँ। हे (वनस्पते) = यज्ञस्तम्भ [sacrificial post] (त्वम्) = तू (अग्ने) = पहले (तस्य) = उसके वस्त्र की (नीविं कृणुष्व) = ग्रन्थि [Knat] को कर। पहले वह वस्त्र तेरे साथ बँधे और बाद में मेरे साथ। यज्ञस्तम्भ के साथ युवति के वस्त्र-बन्धन का भाव यह कि इस युवक-युवति का सम्बन्ध मिलकर यज्ञ करने के लिए हो। यज्ञीय वृत्ति के होने पर हम विलासमय जीवन में न डूबेंगे और इसप्रकार (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न होंगे। पति-पत्नी तो यज्ञमय जीवन होने पर हिंसित होंगे ही नहीं, ऐसा होने पर उनके सन्तान भी उत्तम होंगे। यही भाव 'वयम्' इस बहुचनान्त शब्द से संकेतित हो रहा है।

    भावार्थ -

    एक युवति का वस्त्र एक युवक के कन्धे पर पड़ता है तो उस समय यह सम्बन्ध की पवित्रता को बनाये रखने के लिए इस वस्त्र-ग्रन्थि को पहले यज्ञस्तम्भ से करता है, अर्थात् प्रभु से यही प्रार्थना करता है कि हमारा यह सम्बन्ध यज्ञिय हो। हम मिलकर यज्ञ करते हुए विलासी वृत्ति से बचे रहें। इसप्रकार हम स्वस्थ हों और उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से अगले मन्त्र में कहेंगे कि स्त्रियाँ अपने अतिरिक्त समय को वस्त्रों को कातने व बुनने में व्यतीत करें।

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