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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
सूक्त - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
आ रो॑ह च॒र्मोप॑सीदा॒ग्निमे॒ष दे॒वो ह॑न्ति॒ रक्षां॑सि॒ सर्वा॑। इ॒ह प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑अ॒स्मै सु॑ज्यै॒ष्ठ्यो भ॑वत्पु॒त्रस्त॑ ए॒षः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒ । चर्म॑ । उप॑ । सी॒द॒ । अ॒ग्निम् । ए॒ष: । दे॒व: । ह॒न्ति॒ । रक्षां॑सि । सर्वा॑ । इ॒ह । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒ । पत्ये॑ । अ॒स्मै । सु॒ऽज्यै॒ष्ठ्य: । भ॒व॒त् । पु॒त्र: । ते॒ । ए॒ष: ॥२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोह चर्मोपसीदाग्निमेष देवो हन्ति रक्षांसि सर्वा। इह प्रजां जनय पत्येअस्मै सुज्यैष्ठ्यो भवत्पुत्रस्त एषः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोह । चर्म । उप । सीद । अग्निम् । एष: । देव: । हन्ति । रक्षांसि । सर्वा । इह । प्रऽजाम् । जनय । पत्ये । अस्मै । सुऽज्यैष्ठ्य: । भवत् । पुत्र: । ते । एष: ॥२.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 24
विषय - अग्निहोत्र से रोगकृमि-विनाश
पदार्थ -
१. हे गृहपनि! तू (चर्म आरोह) = इस मृगचर्म के आसन पर आरोहण कर। (अग्निं उपसीद्) = इसपर बैठकर तु अग्नि की उपासना कर। प्रभु-स्मरणपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाली बन। (एषः देवः) = यह रोगों को पराजित करने की भावनावाला [दिव् विजिगीषायाम्] अग्निदेव सर्वा रक्षांसि हन्ति सब रोगकृमियों का निवारण कर डालता है। २. (इह) = इस रोगशून्यगृह में (अस्मै पत्यै) = इस पति के लिए-इस पति के वंश के अविच्छेद के लिए (प्रजां जनय) = सन्तानों को जन्म देनेवाली हो। (एषः ते पुत्र:) = यह तेरा पुत्र (सुज्यैष्ठयः भवत्) = उत्तम ज्येष्ठतावाला हो [शोभनं ज्यैष्ठयम्] यह ज्ञान, बल व धन की दृष्टि से आगे बढ़ा हुआ हो।
भावार्थ -
गृहपत्नी घर में नियमितरूप से अग्निहोत्र करती हुई घर को रोगकृमिरहित बनाए। वहाँ पर उत्तम सन्तान को जन्म दे। वह सन्तान ज्ञान, बल व धन' की दृष्टि से अच्छी प्रकार से बढ़नेवाला हो।
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