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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
सूक्त - देवगण
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
रा॒या व॒यंसु॒मन॑सः स्या॒मोदि॒तो ग॑न्ध॒र्वमावी॑वृताम्। अग॒न्त्स दे॒वः प॑र॒मंस॒धस्थ॒मग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरा॒या । व॒यम् । सु॒ऽमन॑स: । स्या॒म॒ । उत् । इ॒त: । ग॒न्ध॒र्वम् । आ । अ॒वी॒वृ॒ता॒म॒ । अग॑न् । स: । दे॒व: । प॒र॒मम् । स॒धऽस्थ॑म् । अग॑न्म । यत्र॑ । प्र॒ऽति॒रन्ते॑ । आयु॑: ॥२.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
राया वयंसुमनसः स्यामोदितो गन्धर्वमावीवृताम्। अगन्त्स देवः परमंसधस्थमगन्म यत्र प्रतिरन्त आयुः ॥
स्वर रहित पद पाठराया । वयम् । सुऽमनस: । स्याम । उत् । इत: । गन्धर्वम् । आ । अवीवृताम । अगन् । स: । देव: । परमम् । सधऽस्थम् । अगन्म । यत्र । प्रऽतिरन्ते । आयु: ॥२.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 36
विषय - धन+सौमनस
पदार्थ -
१. (वयम्) = हम (राया) = धन के साथ (सुमनसः स्याम) = उत्तम मनवाले भी हों। उत्तम मनोवृत्ति के न होने पर धन हमारे विनाश का ही कारण बनेगा। (इत: उत्) = इधर से ऊपर उठकर-संसार के भोगों से ऊपर उठे हुए (गन्धर्वम्) = हम उस ज्ञान के धारक प्रभु का (आवीवृताम्) = आवर्तन करनेवाले हों-प्रभु-नाम का निरन्तर स्मरण करें। २. (सः देवाः) = वह प्रकाशमय प्रभु परम (सधस्थम्) = सर्वोत्कृष्ट प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थानभूत इस हृदयदेश में (अगन्) = प्राप्त हो। हम भी उस प्रभु के समीप (अगन्म) = प्राप्त हों, (यत्र) = जिसमें स्थित होते हुए (आयुः प्रतिरन्त) = जीवन को प्रकर्षेण पार कर पाते हैं, अत्युत्तम दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं।
भावार्थ -
धन के साथ हम प्रशस्त मनवाले हों, विषयों से ऊपर उठकर प्रभु का स्मरण करनेवाले हों, वे प्रभु हमें हृदयदेश में प्राप्त हों। प्रभु में स्थित हुए-हुए हम प्रकृष्ट दीर्घ जीवन को प्राप्त करें।
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