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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    उप॑ स्तृणीहि॒बल्ब॑ज॒मधि॒ चर्म॑णि॒ रोहि॑ते। तत्रो॑प॒विश्य॑ सुप्र॒जा इ॒मम॒ग्निं स॑पर्यतु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । बल्ब॑जम् । अधि॑ । चर्म॑णि । रोहि॑ते । तत्र॑ । उ॒प॒ऽविश्य॑ । सु॒ऽप्र॒जा: । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । स॒प॒र्य॒तु ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप स्तृणीहिबल्बजमधि चर्मणि रोहिते। तत्रोपविश्य सुप्रजा इममग्निं सपर्यतु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । स्तृणीहि । बल्बजम् । अधि । चर्मणि । रोहिते । तत्र । उपऽविश्य । सुऽप्रजा: । इमम् । अग्निम् । सपर्यतु ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 23

    पदार्थ -

    १. (चर्म च उपस्तृणीथन) = जो तुम मृगचर्म बिछाते हो और उसपर (यम्) = जिस (बल्बजम्) = तणासन को (न्यस्यथ) = स्थापित करते हो, (तत्) = उस आसन पर (सुप्रजा:) = यह उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली (कन्या) = कन्या (या पतिं विन्दते) = जो अभी-अभी पति को प्राप्त करती है, (आरोहतु) = आरोहण करे। इस आसन पर वह उपविष्ट हो। २. हे पुरुष! तु (रोहिते चर्मणि अधि) = रोहित मृग के चर्म [मृगचर्म] पर (बल्बजम् उपस्तृणीहि) = इस तृणासन को बिछा दे। (तत्र) = उस आसन पर उपविश्य बैठकर (सुप्रजा:) = उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली यह कन्या (इमम् अग्रिं सर्पयतु) इस अग्नि का पूजन करे। घर में अग्निहोत्र करना आवश्यक है। यह घर के रोगकृमियों को नष्ट करके स्वास्थ्य का साधक होता है।

    भावार्थ -

    गृहपत्नी मृगचर्म पर तृणासन बिछाकर, उसपर बैठे। वहाँ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठकर प्रतिदिन अग्रिहोत्र अवश्य करे। यह अग्निहोत्र घर की नीरोगता का साधक है।

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