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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    दे॒वाय॒ज्ञमृ॒तवः॑ कल्पयन्ति ह॒विः पु॑रो॒डाशं॑ स्रु॒चो य॑ज्ञायु॒धानि॑।तेभि॒र्याहि॑ प॒थिभि॑र्देव॒यानै॒र्यैरी॑जा॒नाः स्व॒र्गं य॑न्ति लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । य॒ज्ञम् । ऋ॒तव॑: । क॒ल्प॒य॒न्ति॒ । ह॒वि: । पु॒रो॒डाश॑म् । स्रु॒च: । य॒ज्ञ॒ऽआ॒यु॒धानि॑ । तेभि॑: । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: । यै: । ई॒जा॒ना: । स्व॒:ऽगम् । यन्ति॑ । लो॒कम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवायज्ञमृतवः कल्पयन्ति हविः पुरोडाशं स्रुचो यज्ञायुधानि।तेभिर्याहि पथिभिर्देवयानैर्यैरीजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । यज्ञम् । ऋतव: । कल्पयन्ति । हवि: । पुरोडाशम् । स्रुच: । यज्ञऽआयुधानि । तेभि: । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: । यै: । ईजाना: । स्व:ऽगम् । यन्ति । लोकम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) विद्वान् लोगऔर (ऋतवः) सब ऋतुएँ (यज्ञम्) यज्ञ [हवन आदि श्रेष्ठ व्यवहार], (हविः) हवि [होमीय वस्तु], (पुरोडाशम्) पुरोडाश [मोहनभोग आदि], (स्रुचः) स्रुचाओं [हवन केचमचों] और (यज्ञायुधानि) यज्ञ के अस्त्र-शस्त्रों [उलूखल, मूसल, सूप आदि] को (कल्पयन्ति) रचते हैं। [हे मनुष्य !] (तेभिः) उन (देवयानैः) विद्वानों के चलनेयोग्य (पथिभिः) मार्गों से (याहि) तू चल, (यैः) जिन [मार्गों] से (ईजानाः) यज्ञकर चुकनेवाले लोग (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (लोकम्) समाज में (यन्ति) पहुँचतेहैं ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग सब ऋतुओंमें योग्य सामग्री द्वारा यज्ञ करके श्रेष्ठ कर्म करते रहें और सबसे कराते रहें, क्योंकि श्रेष्ठ कर्म समाप्त कर लेनेवाले ही आनन्द पद के अधिकारी होते हैं॥२॥

    टिप्पणी

    २−(देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) यजनीयं व्यवहारम् (ऋतवः) वसन्तादिकालाश्च (कल्पयन्ति) रचयन्ति (हविः) हु दानादानादनेषु-इसि। हवनीयद्रव्यम् (पुरोडाशम्) अ०९।६(१)१२। पुरो अग्रे दाश्यते दीयते। दाशृ दाने-घञ्, दस्य डः।संस्कृतान्नविशेषम् (स्रुचः) चिक् च। उ० २।६। स्रु गतौ−चिक् प्रत्ययः।यज्ञचमसान् (यज्ञायुधानि) यज्ञसाधनान्यस्त्रशस्त्रादीनि (तेभिः) तैः (याहि) गच्छ (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (यैः) पथिभिः (ईजानाः) म० १।समाप्तयज्ञाः पुरुषाः (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (यन्ति) गच्छन्ति (लोकम्) समाजम् ॥

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    विषय

    देव यज्ञमय जीवनवाले होते हैं

    पदार्थ

    १. [ऋतवो वै देवाः गो० २.६.६] (ऋतवः देवा:) = नियमित गतिवाले [ऋ गतौ] अथवा दानपूर्वक अदन करनेवाले [हु दानादनयो:] देववृत्ति के व्यक्ति (यज्ञं कल्पयन्ति) = यज्ञ को सिद्ध करते हैं। (हविः) = चरु-आज्य व सोमलक्षण हवि को (पुरोडाशम्) = (पिष्टिमय) = मोहनभोग आदि हव्य विशेषों को (स्त्रुचः) = जुहू आदि यज्ञोपयुक्त चमसादि को, (यज्ञायुधानि) = यज्ञ के साधनभूत सब उपकरणों को ये सिद्ध करते हैं। २. हे साधक! तू (तेभि:) = उन (देवयानः पथिभिः) = देवों से जाने योग्य मार्गों से याहि गतिशील बन। ईजाना: यज्ञशील लोग स्वर्ग लोक (यन्ति) = स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। इनके घर स्वर्गोपम बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-देव यज्ञमय जीवनवाले होते हुए घरों को स्वर्गमय बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (देवाः) याज्ञिकदेव अर्थात् ऋत्विक, और (ऋतवः) भिन्न-भिन्न ऋतुएं (यज्ञम) नाना यज्ञों का (कल्पयन्ति) निर्माण करते हैं, (हविः पुरोडाशं स्रुचः यज्ञायुधानि) अर्थात् भिन्न-भिन्न हवियों का, चावल के आटे से बनी टिक्की का, अग्नि में घी की आहुति डालने के चमचों का, तथा यज्ञों के अन्य नानाविध उपकरणों का। हे यजमान! (देवयानैः) याज्ञिक देवों के (तेभिः) उन (पथिभिः) मार्गों द्वारा तू (स्वर्गं लोकम्) स्वर्ग लोक को (याहि) प्राप्त हो, (यैः) जिन यज्ञसाधनों या मार्गों द्वारा (ईजानाः) यज्ञ करनेवाले यजमान (स्वर्ग लोकं यन्ति) स्वर्ग लोक को निश्चित प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    [ऋतवः=भिन्न-भिन्न ऋतु के अनुसार किये जानेवाले चातुर्मास्य आदि यज्ञ। देवाः=यज्ञों की विधियों का निर्माण करनेवाले, यज्ञविद्याओं के वेत्ता लोग। मन्त्र १ और २ में पितृयाण और देवयान का वर्णन वैदिक है। उपनिषत्काल में इनके स्वरूपों का वर्णन भिन्न प्रकार से हुआ है। स्वर्ग=“स्वर्गनाम सुखविशेषभोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है” (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश) (४२) सत्यार्थप्रकाश।)] यज्ञ द्वारा वृष्टि, ओषधि-अन्नों की परिपुष्टि, रोगनाश, स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि होने पर सुखविशेष होता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Noble, generous and brilliant people of creative mind and the seasons in harmony design and structure the yajnic programmes, they prepare the yajnic inputs, the holy food, the ladles for offering and the entire infrastructure of yajna. With them, by their programmes, and by the paths shown by divinities of nature and humanity, the people who perform yajna rise to the state of peace and paradisal bliss on earth. O man, you too perform yajna and rise.

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    Translation

    The gods, the seasons, arrange the sacrifice, the oblation, the sacrificial cake, the ladles, the implements of sacrifice; with them go thou by roads that the gods travel, by which they that have sacrificed go to the heavenly world.

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    Translation

    The learned man or natural forces, the seasons or the performers of Yajna accomplish the Yajnas, they arrange and manage oblatory substances purodash preparation ladless and other instruments of Yajna. O man, you make your path to be tread through those ways and means which are adopted by elders and through which performers of Yajna attain the life of happiness and enlightenment.

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    Translation

    The learned and the Hotas arrange for the Yajna, butter, cake, ladies, sacrificial utensils. Tread thou the paths travelled by the sages, whereby the righteous performers of sacrifices attain to happiness.

    Footnote

    Hotas: Those who watch the correct performance of a Yajna. Thou: A pious performer of the Yajna.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) यजनीयं व्यवहारम् (ऋतवः) वसन्तादिकालाश्च (कल्पयन्ति) रचयन्ति (हविः) हु दानादानादनेषु-इसि। हवनीयद्रव्यम् (पुरोडाशम्) अ०९।६(१)१२। पुरो अग्रे दाश्यते दीयते। दाशृ दाने-घञ्, दस्य डः।संस्कृतान्नविशेषम् (स्रुचः) चिक् च। उ० २।६। स्रु गतौ−चिक् प्रत्ययः।यज्ञचमसान् (यज्ञायुधानि) यज्ञसाधनान्यस्त्रशस्त्रादीनि (तेभिः) तैः (याहि) गच्छ (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (यैः) पथिभिः (ईजानाः) म० १।समाप्तयज्ञाः पुरुषाः (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (यन्ति) गच्छन्ति (लोकम्) समाजम् ॥

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