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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 58
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    वृषा॑ मती॒नांप॑वते विचक्ष॒णः सूरो॒ अह्नां॑ प्र॒तरी॑तो॒षसां॑ दि॒वः। प्रा॒णः सिन्धू॑नांक॒लशाँ॑ अचिक्रद॒दिन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑मावि॒शन्म॑नी॒षया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । म॒ती॒नाम् । प॒व॒ते॒ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण: । सूर॑: । अह्ना॑म् । प्र॒ऽतरी॑ता । उ॒षसा॑म् । दि॒व: । प्रा॒ण: । सिन्धू॑नाम् । क॒लशा॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । इन्द्र॑स्य । हार्दि॑म् । आ॒ऽवि॒शन् । म॒नी॒षया॑ ॥४.५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा मतीनांपवते विचक्षणः सूरो अह्नां प्रतरीतोषसां दिवः। प्राणः सिन्धूनांकलशाँ अचिक्रददिन्द्रस्य हार्दिमाविशन्मनीषया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । मतीनाम् । पवते । विऽचक्षण: । सूर: । अह्नाम् । प्रऽतरीता । उषसाम् । दिव: । प्राण: । सिन्धूनाम् । कलशान् । अचिक्रदत् । इन्द्रस्य । हार्दिम् । आऽविशन् । मनीषया ॥४.५८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 58
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृषा) परमऐश्वर्यवान्, (विचक्षणः) विशेष दृष्टिवाला परमेश्वर (मतीनाम्) बुद्धियों का (पवते) पवित्रकारी है, [जैसे] (सूरः) सूर्य (दिवः) [अपने] प्रकाश से (अह्नाम्)दिनों का और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं का (प्रतरीता) फैलानेवाला है। (सिन्धूनाम्)नदियों के (प्राणः) प्राण [चेष्टा देनेवाले उस परमेश्वर] ने (मनीषया)बुद्धिमत्ता से (इन्द्रस्य) सूर्य के (हार्दिम्) हार्दिक शक्ति में (आविशन्)प्रवेश करके (कलशान्) कलसों [घड़ों समान मेघों] को (अचिक्रदत्) गुंजाया है ॥५८॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अपनेप्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे ही परमात्मा अपने ज्ञान सेआज्ञाकारी भक्तों की बुद्धियों को निर्मल करता है, वही परमेश्वर सूर्य के भीतरआकर्षण गुण देकर मेघों में गर्जन उत्पन्न करता और जल बरसाता है ॥५८॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−९।८६।१९ और सामवेद में पू० ६।७।६ तथा उ० २।१।१७॥

    टिप्पणी

    ५८−(वृषा) वृषु सेचने परमैश्वर्ये च-कनिन्। परमैश्वर्यवान्। इन्द्रः। परमेश्वरः (मतीनाम्) बुद्धिनाम् (पवते) शोधको भवति (विचक्षणः) विशेषेण द्रष्टा (सूरः)प्रेरकः सूर्यः (अह्नाम्) दिनानाम् (प्रतरीता) तरतेस्तृच्। वॄतो वा। पा० ७।२।३८।इति इडागमस्य दीर्घः। प्रवर्धयिता (दिवः) स्वप्रकाशात् (प्राणः) प्राणयिता।चेष्टयिता (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (कलशान्) कलशसदृशान् मेघान् (अचिक्रदत्) क्रदआह्वानरोदनयोः-णिचि लुङि रूपम्। प्रतिध्वनिं कारितवान् (इन्द्रस्य) सूर्यस्य (हार्दिम्) अ० ६।८९।१। हृद्-इञ्। हार्दिकां शाक्तिम् (आविशन्) प्रविशन् (मनीषया)बुद्धिमत्तया ॥

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    विषय

    वृषा मतीनाम

    पदार्थ

    १. (विचक्षण:) = वह सर्वद्रष्टा (सूरः) = सबको कर्मों में प्रेरित करनेवाल 'सूर्यसम दीस ज्योतिवाला' ब्रह्म हमारी (मतीनां वृषा) = बुद्धियों को शक्ति से सिक्त करनेवाला है। यह प्रभु (पवते) = बुद्धि देकर हमारे जीवनों को पवित्र करते हैं। ये प्रभु हमारे (अहाम्) = दिनों के (उषसाम्) = उषाकालों के (दिव:) = ज्ञान के प्रकाश के (प्रतरीता) = बढ़ानेवाले हैं। हमें दीर्घजीवन और प्रकाशमय जीवन प्राप्त कराते हैं। २. ये प्रभु हमारे जीवनों में (सिन्धूनाम्) = ज्ञानप्रवाहों के (प्राण:) = प्राण हैं। प्रभुकृपा से ही हमारे जीवनों में ये ज्ञानप्रवाह चलते हैं। (इन्द्रस्य) = एक जितेन्द्रिय पुरुष के (हार्दिम्) = हदय में (मनीषया) = बुद्धि के साथ (आविशन्) = प्रवेश करते हुए प्रभु (कलशान् अचिक्रदत्) = सोलह कलाओं के आधारभूत इन शरीरों को प्रभु के आह्वानवाला बनाते हैं। प्रभुकृपा से ही हममें प्रभु के आह्वान की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।

    भावार्थ

    ये सर्वद्रष्टा प्रभु हमारी बुद्धियों को शक्ति से सिक्त करते हैं-हमें दीर्घ व प्रकाशमय जीवन प्राप्त कराते हैं। प्रभुकृपा से हमारे जीवन में ज्ञानप्रवाह चलते हैं और हम प्रभुकृपा से ही प्रभु-प्रवण वृत्तिवाले बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (विचक्षणः) विविध जगत् का द्रष्टा परमेश्वर (मतीनाम्) वेदों द्वारा सत्यज्ञानों की (वृषा) वर्षा करता, और तद्-द्वारा (पवते) जीवनों को पवित्र करता है। वह (अह्नाम्) दिनों के निर्माता (सूरः) सूर्य के समान ज्योतिर्मय है, और प्रेरक है। वह (उषसां दिवः) उषाकालों और दिनों को (प्रतरीता) बढ़ाता है। (सिन्धूनाम्) रस-रक्त का स्यन्दन करनेवाली नस-नाड़ियों का (प्राणः) प्राणरूप है। वह (मनीषया) स्वेच्छया (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (हार्दिम्) हृदय के अन्तःस्थ प्रदेश में (आविशन्) प्रवेश करता हुआ, या निज सत्ता द्वारा उसे प्रभावित करता हुआ; (कलशान्) उस के पांचों कोशों में (अचिक्रदत्) अन्तर्नाद करता है, उन्हें गुञ्जा देता है।

    टिप्पणी

    [विचक्षणः= विचक्षते, अभिविपश्यन्ति (निरु० १२।३।२७)। सूरः= सूर्य, तथा प्रेरक। दिवः = दिन, सूर्य जो उषाकालों और दिनों को घटाता-बढ़ाता है, यह तन्निष्ठ परमेश्वरीय शक्ति द्वारा ही होता है। इन्द्रस्य=इन्द्र का अर्थ है-जीवात्मा। इसीलिये जीवात्मा की शक्तियों को "इन्द्रिय" कहते हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Lord Almighty, giver of showers of the wealth and knowledge of existence, all watching guard and protector, light of the days, augmentor of the light of dawns and heavens, life energy of flowing floods, makes the clouds roar and, having entered the heart core of the soul with the light of intelligence and awareness, vibrates, sanctifies and volubly enlivens the five koshas of the soul.

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    Translation

    There purifies itself the conspicuous bull of the prayers, the sun of days, lengthener out of dawns, of the sky; the breath of the rivers hath made the jars to resound loudly; entering Indra’s heart with skill.

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    Translation

    The Lord who is the possessor of highest discriminating powers, and the pourer of all prosperities purifies the visions (of men). He is the originator of nights and days, dawns and dusks and heavenly region. He is the vital force of speeches. He makes the clouds roar through His wisdom he pervades inner most part of Indra, the individual soul.

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    Translation

    The soul, the showerer of various mental powers and seer of manifold learning, the mover of days, light and dawns, the very breath of the sense-organs, that ever flow like streams towards their objects of perception, setting in motion these bodies, enters the heart by the mental energy.

    Footnote

    The verse enumerates the manifold powers of the mind of man, by cultivating which he can attain to sublime heights also see Rig, 9.86.1.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५८−(वृषा) वृषु सेचने परमैश्वर्ये च-कनिन्। परमैश्वर्यवान्। इन्द्रः। परमेश्वरः (मतीनाम्) बुद्धिनाम् (पवते) शोधको भवति (विचक्षणः) विशेषेण द्रष्टा (सूरः)प्रेरकः सूर्यः (अह्नाम्) दिनानाम् (प्रतरीता) तरतेस्तृच्। वॄतो वा। पा० ७।२।३८।इति इडागमस्य दीर्घः। प्रवर्धयिता (दिवः) स्वप्रकाशात् (प्राणः) प्राणयिता।चेष्टयिता (सिन्धूनाम्) नदीनाम् (कलशान्) कलशसदृशान् मेघान् (अचिक्रदत्) क्रदआह्वानरोदनयोः-णिचि लुङि रूपम्। प्रतिध्वनिं कारितवान् (इन्द्रस्य) सूर्यस्य (हार्दिम्) अ० ६।८९।१। हृद्-इञ्। हार्दिकां शाक्तिम् (आविशन्) प्रविशन् (मनीषया)बुद्धिमत्तया ॥

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