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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    अङ्गि॑रसा॒मय॑नं॒पूर्वो॑ अ॒ग्निरा॑दि॒त्याना॒मय॑नं॒ गार्ह॑पत्यो॒ दक्षि॑णाना॒मय॑नं दक्षिणा॒ग्निः। म॑हि॒मान॑म॒ग्नेर्विहि॑तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ सम॑ङ्गः॒ सर्व॒ उप॑ याहि श॒ग्मः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्ग‍ि॑रसाम् । अय॑नम् । पूर्व॑: । अ॒ग्नि । आ॒दि॒त्याना॑म् । अय॑नम् । गार्ह॑ऽपत्य । दक्षि॑णानाम् । अय॑नम् । द॒क्षि॒ण॒ऽअ॒ग्नि: । म॒हि॒मान॑म् । अ॒ग्ने: । विऽहि॑तस्य । ब्रह्म॑णा । सम्ऽअ॑ङ्ग: । सर्व॑: । उप॑ । या॒हि॒ । श॒ग्म: ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गिरसामयनंपूर्वो अग्निरादित्यानामयनं गार्हपत्यो दक्षिणानामयनं दक्षिणाग्निः। महिमानमग्नेर्विहितस्य ब्रह्मणा समङ्गः सर्व उप याहि शग्मः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्ग‍िरसाम् । अयनम् । पूर्व: । अग्नि । आदित्यानाम् । अयनम् । गार्हऽपत्य । दक्षिणानाम् । अयनम् । दक्षिणऽअग्नि: । महिमानम् । अग्ने: । विऽहितस्य । ब्रह्मणा । सम्ऽअङ्ग: । सर्व: । उप । याहि । शग्म: ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अङ्गिरसाम्)महर्षियों का (अयनम्) मार्ग (पूर्वः) पूर्वीय (अग्निः) अग्नि है, (आदित्यानाम्) [उन्हीं] अखण्ड व्रतवाले ब्रह्मचारियों का (अयनम्) मार्ग (गार्हपत्यः) गृहपति कीअग्नि है, (दक्षिणानाम्) [उन्हीं] कार्यकुशलों का (अयनम्) मार्ग (दक्षिणाग्निः)दक्षिणवाली अग्नि है। (ब्रह्मणा) ब्रह्मा [चारों वेद जाननेवाले] कर के (विहितस्य) स्थापित (अग्नेः) अग्नि की (महिमानम्) महिमा को (समङ्गः) दृढ़ाङ्ग, (सर्वः) सम्पूर्ण [चित्तवाला] और (शग्मः) शक्तिमान् होकर तू (उप याहि) सर्वथाप्राप्त कर ॥८॥

    भावार्थ

    यज्ञ में ब्रह्मा कीस्थापित पूर्वाग्नि, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि को प्रकाशित करने से विद्वान् लोगआत्मिक उन्नति करके सब प्रकार शक्तिमान् होवें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(अङ्गिरसाम्) महर्षीणाम् (अयनम्) मार्गः (पूर्वः) पूर्वायां दिशि वर्तमानः (अग्निः) होमाग्निः (आदित्यानाम्) अखण्डब्रह्मचारिणाम् (अयनम्) मार्गम् (गार्हपत्यः) गृहपति−ञ्य।गृहिपतिना संयुक्तो यज्ञाग्निः (दक्षिणानाम्) द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। दक्षवृद्धौ शीघ्रार्थे च-इनन्। दक्षाणां कार्यकुशलानाम् (दक्षिणाग्निः) दक्षिणादिशिवर्तमानोऽग्निः (महिमानम्) महत्त्वम् (अग्नेः) भौतिकस्य (विहितस्य) यथाविधिस्थापितस्य (ब्रह्मणा) चतुर्वेदज्ञेन (समङ्गः) संहतावयवः। दृढाङ्गः (सर्वः)समस्तः। समाहितचित्तः (उप याहि) सर्वथा प्राप्नुहि (शग्मः) युजिरुचितिजां कुश्च।उ० १।१४६। शक्लृ शक्तौ-मक् कस्य गः। शक्तः। समर्थः ॥

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    विषय

    अङ्गिरस-आदित्य-दक्षिण

    पदार्थ

    १. (अङ्गिरसाम्) = प्राणशक्तिसम्पन्न-अथवा प्राणों की आराधना करनेवाले ब्रह्मचारियों का (अयनम्) = शरण [रक्षक] (पूर्वः अग्नि:) = यह आहवनीय अग्नि है। आहवनीय अग्नि 'आचार्य' है [गुरुराहवनीयस्तु]। यह विद्यार्थी का पूरण करने से 'पूर्व अग्नि' कहा गया है। यह विद्यार्थी को संयमी बनाकर प्राणशक्तिसम्पन्न बनाता है। (आदित्यानाम्) = अदीना देवमाता के पुत्रभूत इन गृहस्थों का (अयनम्) = शरण (गार्हपत्यः) = गार्हपत्य अग्नि है। गार्हपत्य अग्नि ठीक प्रज्वलित रहे, अर्थात् गृहस्थ का खान-पान ठीक से चलता जाए तो गृहस्थ में सबके मस्तिष्क ठीक से कार्य करते हैं। गार्हपत्य अग्नि 'पिता' कहलाता है। पिता के ठीक होने पर गृहस्थ में अन्य व्यक्ति भी ठीक बने रहते हैं। सन्तानों पर पिता का बड़ा स्वस्थ प्रभाव पड़ना आवश्यक है। अब गृहस्थ से ऊपर उठकर [दक्ष to grow] वानप्रस्थ में पहुँचनेवाले (दक्षिणानाम्) = चतुर, कुशल पुरुषों का (अयनम्) = शरण (दक्षिणाग्नि:) = दक्षिणाग्नि 'माता' है। एक वानप्रस्थ अब किन्हीं को भी पत्नीभाव से न देखकर सभी को मातृभाव से देखता है। २. संन्यस्त होकर तू ब्रह्मणा विहितस्य वेद द्वारा प्रतिपादित (अग्नेः महिमानम्) = उस प्रभु की महिमा को [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति] समङ्गः सब अंगों से संगत हुआ-हुआ सर्ब:-[whole] पूर्णस्वस्थ व (शग्मः) = सुख-दुःखरहित हुआ-हुआ (उपयाहि) = समीपता से प्राप्त हो। प्रभु की उपासना करता हुआ तू प्रभु की महिमा को प्राप्त करनेवाला हो।

    भावार्थ

    आचार्य हमें प्राणशक्तिसम्पन्न बनाएँ। गृहस्थ में पिता सबको उत्तम गुणों का आदान करनेवाला बनाए। वानप्रस्थ में हम सब नारियों में मातृभावनावाले हों और अन्ततः संन्यास में हम संहत अवयवोंवाले-स्वस्थ व सुखी होते हुए प्रभु की महिमा को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (अङ्गिरसाम्) अङ्गिराओं अर्थात् प्राणायामाभ्यासियों का (अयनम्) मार्ग है (पूर्वः अग्निः) शरीर के पूर्व भाग में स्थित नासिकास्थ प्राणाग्नि, श्वासोच्छ्वासरूपी अग्नि (आदित्यानाम्) आदित्य ब्रह्मचारियों का (अयनम्) मार्ग है (गार्हपत्यः अग्निः) गृहपति बनने का साधनभूत वीर्याग्नि, (दक्षिणानाम्) यज्ञों में दक्षिणाएँ देने वाले सद्गृहस्थों का (अयनम्) मार्ग है (दक्षिणाग्निः) शरीर के दक्षिण भाग में स्थित पचनाग्नि। हे मनुष्य! (ब्रह्मणा) ब्रह्म द्वारा (विहितस्य) विशेषतया स्थापित (अग्नेः) इन अग्नियों की (महिमानम्) महिमा को (उप याहि) उपसनापूर्वक तू प्राप्त हो। और (समङ्गः) अंगों से संयुक्त हुआ, (सर्वः) और सम्पूर्णाङ्ग होकर तू (शग्मः) शान्ति और सुख को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [अङ्गिरसाम्=“आङ्गिरसः अङ्गानां हि रसः, प्राणो वा अङ्गानां रसः” (बृह० उप० १.३.१९)। प्राण यतः शरीर के पूर्व भाग अर्थात् नासिका तथा मुख में हैं, अतः इस प्राणाग्नि को “पूर्वाग्नि” कहा है। यह प्राण अग्नि है, क्योंकि प्राणों तथा प्राणयाम के अभ्यास से इन्द्रियों के मल दग्ध हो जाते हैं। “तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्” (मनु० ६.७१)। यह नासिका-प्राण जब मुख में उतरता है, तब इसे “अयास्य” प्राण कहते हैं। अयते आस्ये इति अयास्यः। पूर्वः=in front of (आप्टे)। आदित्यानाम्=आदित्य ब्रह्मचारियों का अयन अर्थात् मार्ग है “वीर्याग्नि”, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा है। वीर्य अग्निरूप है, चूंकि वीर्यवानों के मुख वीर्यरक्षा के कारण तेजस्वी हो जाते हैं। वीर्य द्वारा मनुष्य गृहपति बनता है। दक्षिणानाम्=यज्ञों में दक्षिणा देने वाले गृहस्थियों का अयन अर्थात् जीवनमार्ग है “दक्षिणाग्नि”। “यस्मिन् पचन्ति स दक्षिणाग्निः” (अथर्व० ९.६(२).१३)। अर्थात् जिस में पकाते हैं, वह दक्षिणाग्नि है। आध्यात्मिक दृष्टि में अन्न-पाचक अग्नि दक्षिणाग्नि है। अन्नपाचक अग्नि शरीर के दक्षिण भाग में है। उदर का मुख, डिओडीनम, आन्तें, यकृत् ये पाचक अंग शरीर के दक्षिण भाग में विद्यमान हैं। गृहस्थियों को पौष्टिक अन्न खाना चाहिए, और उसे पचा सकने की शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। तभी वे गृहस्थ धर्म का पालन कर सकते हैं। ब्रह्मणा=ब्रह्म ने मनुष्य को उपर्युक्त तीन अग्नियाँ प्रदान की हैं। इनके स्वस्थ रहने पर मनुष्य सर्वाङ्गपुष्टि प्राप्त कर शान्ति और सुख का भागी बनता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    The original and primeval fire of cosmic yajna, Purvagni, is the love and ambition of Angirasas, vibrant scholars. Garhapatyagni, home fire of yajna, is the way of the Adityas, brilliant Brahmacharis settled as Grhasthis. And Dakshinagni, fire for pure being and creative generosity, is the way of generous people of knowledge, creative action and wide experience as on way to Vanaprastha. O man, grow whole, full and perfect, attain to the power and grandeur of Agni prescribed in the Veda, and realise the ultimate peace and freedom of life.

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    Translation

    The track of the Angirases is the eastern fire; the Adityas track is the householder’s fire; the track of the sacrificial gifts,is the southem fire; do thou, with thy limbs, whole powerful, go unto the greatness of Agni (as)disposed by brahman.

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    Translation

    The first fire is the path and means of highly enlightened men, the fire of house-hold is the way and means of the learned men known as Adityas and Dakshinagni is the way and means of those who are matured in knowledge. O man, you being celebrated in knowledge and actions, matured and strong know the grandeur of this fire which is prescribed for the Yajna by the Veda.

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    Translation

    God is the refuge of the sages. God is the refuge of the Aditya Brahmchanes. God is the refuge of the powerful. Realize thou the greatness of God as described in the Vedas, being full of knowledge, mentally alert, and powerful.

    Footnote

    Purva Agni is the name of God, as He is Primordial, Most Efficient cause, Foremost Leader of all, and Lustrous like the Sun in the East. Garhpatya Agni is the name of God, as He is the Ruler of the universe as a householder is of his family. Dakshina Agni is the name of God, as he is the Bestower of power and kinetic energy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अङ्गिरसाम्) महर्षीणाम् (अयनम्) मार्गः (पूर्वः) पूर्वायां दिशि वर्तमानः (अग्निः) होमाग्निः (आदित्यानाम्) अखण्डब्रह्मचारिणाम् (अयनम्) मार्गम् (गार्हपत्यः) गृहपति−ञ्य।गृहिपतिना संयुक्तो यज्ञाग्निः (दक्षिणानाम्) द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। दक्षवृद्धौ शीघ्रार्थे च-इनन्। दक्षाणां कार्यकुशलानाम् (दक्षिणाग्निः) दक्षिणादिशिवर्तमानोऽग्निः (महिमानम्) महत्त्वम् (अग्नेः) भौतिकस्य (विहितस्य) यथाविधिस्थापितस्य (ब्रह्मणा) चतुर्वेदज्ञेन (समङ्गः) संहतावयवः। दृढाङ्गः (सर्वः)समस्तः। समाहितचित्तः (उप याहि) सर्वथा प्राप्नुहि (शग्मः) युजिरुचितिजां कुश्च।उ० १।१४६। शक्लृ शक्तौ-मक् कस्य गः। शक्तः। समर्थः ॥

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