अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 89
ऋषिः - चन्द्रमा
देवता - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
0
च॒न्द्रमा॑अ॒प्स्वन्तरा सु॑प॒र्णो धा॑वते दि॒वि। न वो॑ हिरण्यनेमयः प॒दं वि॑न्दन्तिविद्युतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठच॒न्द्रमा॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त:। आ । सु॒ऽप॒र्ण: । धा॒व॒ते॒ । दि॒वि । न । व॒:। हि॒र॒ण्य॒ऽने॒म॒य॒: । प॒दम् । वि॒न्द॒न्ति॒ । वि॒ऽद्यु॒त॒: । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य॒ । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥४.८९॥
स्वर रहित मन्त्र
चन्द्रमाअप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि। न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्तिविद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठचन्द्रमा: । अप्ऽसु । अन्त:। आ । सुऽपर्ण: । धावते । दिवि । न । व:। हिरण्यऽनेमय: । पदम् । विन्दन्ति । विऽद्युत: । वित्तम् । मे । अस्य । रोदसी इति ॥४.८९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सूर्यचन्द्र आदि के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(सुपर्णः) सुन्दरपूर्त्ति करनेवाला (चन्द्रमाः) चन्द्रलोक (अप्सु अन्तः) [अपने] जलों के भीतर (दिवि) सूर्य के प्रकाश में (आ धावते) दौड़ता रहता है। (हिरण्यनेमयः) हेप्रकाशस्वरूप परमात्मा में सीमा रखनेवाले (विद्युतः) विविध प्रकाशमान [सब लोको !] (वः) तुम्हारे (पदम्) ठहराव को (न विन्दन्ति) वे [जिज्ञासु लोग] नहीं पातेहैं, (रोदसी) हे पृथिवी और सूर्य के समान स्त्री-पुरुषो ! (मे) मेरे (अस्य) इस [वचन] का (वित्तम्) तुम दोनों ज्ञान करो ॥८९॥
भावार्थ
चन्द्रमा अपने मण्डलके समुद्रों पर सूर्य की किरणों के पड़ने से प्रकाशित होकर अपनी जलमय शीतलकिरणों द्वारा पृथिवी के पदार्थों को पुष्ट करता है, इस के अतिरिक्त परमात्मा कीअनन्त रचनाओं, अनन्त सूर्य पृथिवी आदि लोकों को जिज्ञासु लोग खोजते जाते हैं औरअन्त नहीं पाते। उस जगदीश्वर की महिमा को जानकर सब स्त्री-पुरुष अपना सामर्थ्यबढ़ावें ॥८९॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१०५।१ और सामवेद में पू० ५।३।९। औरपहिले दो पाद यजुर्वेद में हैं−३३।९० ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ इति चतुस्त्रिंशः प्रपाठकः ॥इत्यष्टादशंकाण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासदक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषुलब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये अष्टादशंकाण्डं समाप्तम् ॥
टिप्पणी
८९−(चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (अप्सु) स्वमण्डलस्थेषु जलेषु (अन्तः) मध्ये (आ) समन्तात् (सुपर्णः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। सु+पॄपालनपूरणयोः-न प्रत्ययः। सुष्ठु पूरयिता (धावते) शीघ्रं गच्छति (दिवि) सूर्यस्यप्रकाशे (न) निषेधे (वः) युष्माकम् (हिरण्यनेमयः) हर्यतेः कन्यन् हिर्च। उ०५।४४। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्। नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे-मि प्रत्ययः।हिरण्ये कमनीये प्रकाशस्वरूपे परमात्मनि नेमिः सीमा येषां ते तथाभूतास्तत्सम्बुद्धौ (पदम्) स्थितिम् (विन्दन्ति) लभन्ते (विद्युतः) वि+द्युतदीप्तौ-क्विप्। हे विविधप्रकाशमानलोकाः (वित्तम्) जानीतम्। ज्ञानं कुरुतम् (मे)मम (अस्य) वचनस्य (रोदसी) हे द्यावापृथिव्याविव प्रजे स्त्रीपुरुषौ ॥
विषय
'चन्द्रमा+सुपर्ण, नकि हिरण्यनेमि'
पदार्थ
१. (चन्द्रमा) = गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति अंहकारशून्य मनोवृत्तिवाला होता है, (अप्सु अन्त:) = वह सदा कर्मों में व्याप्त रहता-कर्मशील होता है। (सुपर्ण:) = उत्तम पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त यह व्यक्ति (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में (आधावते) = अपने को सर्वथा शुद्ध करता है। २. प्रभु कहते हैं कि (रोदसी) = सारे द्यावापृथिवी में रहनेवाले मनुष्य में (अस्य वित्तम्) = मेरी इस बात को समझलें कि वः तुममें से (हिरण्यनेमय:) = हिरण्य [सोना] ही जिनकी नेमि [परिधि] है, वे धनासक्त लोग (विद्युतः पदं न विन्दन्ति) = उस विशिष्ट दीप्तिवाले ज्योतिर्मय प्रभु को नहीं प्राप्त करते। धनासक्ति से ऊपर उठकर ही प्रभु की प्राप्ति संभव होती है।
भावार्थ
हम आहादमय मनोवृत्ति से कर्तव्य-कर्मों को करते रहें-ज्ञान में अपने को पवित्र करने का प्रयत्न करे। धनासक्ति से ऊपर उठकर प्रभु-प्राप्ति के लिए यत्नशील हों।
भाषार्थ
जैसे (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (सुपर्णः) मानो उड़ता हुआ सा, (दिवि) सूर्य के प्रकाश में वर्तमान हुआ (अप्सु अन्तः) आकाश के भीतर (आ धावते) दौड़ता है, वैसे (चन्द्रमाः) मेरा मन (दिवि) मस्तिष्क में और (अप्सु अन्तः) रक्तमय जलों वाले हृदय में (सुपर्णः) विषयों की ओर उड़ता हुआ (आ धावते) दौड़ता है। हे मनुष्यो! (वः) तुम्हारे मनों की (पदम्) गतियों, चञ्चलताओं को (हिरण्यनेमयः) सुवर्णसदृश चमक-धमक वाली, या हिरण्य के सदृश चमकते वज्रवाली (विद्युतः) विजुलियाँ भी (न विन्दन्ति) नहीं प्राप्त होतीं। (मे) मेरे (अस्य) इस मन की (पदम्) गतियों को, चञ्चलताओं को (रोदसी) हे द्युलोक तथा पृथिवीलोक वासियो! तुम (वित्तम्) जानो।
टिप्पणी
[चन्द्रमाः= वेदों में चन्द्रमा और मन का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। आध्यात्मिक दृष्टि में चन्द्रमा है मन। यथा “चन्द्रमा मनसो जातः” (यजुः० ३१.१२)। तथा “यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। चन्द्रो मा तत्र नयतु “मनश्चन्द्रो” दधातु मे” (अथर्व० १९.४३.४) में “मन” और “चन्द्र” अर्थात् चन्द्रमा का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। मन्त्र ४(८६-८७) में पितरों में पारस्परिक अनुकूलता और स्वयं श्रेष्ठ बनने की ओर निर्देश किया है। स्वार्थभावनाओं के रहते ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकते। इसलिए मन्त्र ४(८८-८९) में हृदयों में, परोपकाररत परमेश्वर के समिन्धन और उसके स्तवन; तथा मनोवेगों और मानसिक चञ्चलताओं के संयमन का उपदेश किया है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
The moon, celestial bird of golden wings, flies in the midst of spatial waters in the light of heaven. O lights and lightnings of heaven, O worlds of golden rings revolving in Infinite Divinity, mortals reach not the bounds of the Boundless. Let heaven and earth know of this, know this of me.
Subject
Candrama : the moon
Translation
The moon among the waters runs, an eagle in the sky; they find not your track, O golden-rimmed lightnings; know me as such, O firmaments.
Translation
The moon, full of nice rays, abiding in the sky moves in the vast space. The lightning possessing the ends or cores like shining gold do not find the end of this twain of the heaven and earth. These two know about this sad plight of mine (the soul in bondage).
Translation
Just as the moon, with her beautiful rays speedily moves amidst the waters in the heavens, similarly, the soul, with charming radiances provided by God, freely moves through peace-infusing bliss of God in the state of emancipation. O self-luminous yogis, the general people bent upon the worldly possessions like gold, can’t realize the importance of your state of beatitude. O teachers and preachers, do understand my (the divine-seeker s) needs.
Footnote
The final emancipation of the soul is the culmination of his activities in the world. So it should be the ideal of every man on earth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८९−(चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (अप्सु) स्वमण्डलस्थेषु जलेषु (अन्तः) मध्ये (आ) समन्तात् (सुपर्णः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। सु+पॄपालनपूरणयोः-न प्रत्ययः। सुष्ठु पूरयिता (धावते) शीघ्रं गच्छति (दिवि) सूर्यस्यप्रकाशे (न) निषेधे (वः) युष्माकम् (हिरण्यनेमयः) हर्यतेः कन्यन् हिर्च। उ०५।४४। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्। नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे-मि प्रत्ययः।हिरण्ये कमनीये प्रकाशस्वरूपे परमात्मनि नेमिः सीमा येषां ते तथाभूतास्तत्सम्बुद्धौ (पदम्) स्थितिम् (विन्दन्ति) लभन्ते (विद्युतः) वि+द्युतदीप्तौ-क्विप्। हे विविधप्रकाशमानलोकाः (वित्तम्) जानीतम्। ज्ञानं कुरुतम् (मे)मम (अस्य) वचनस्य (रोदसी) हे द्यावापृथिव्याविव प्रजे स्त्रीपुरुषौ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal