अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 51
इ॒दं पि॒तृभ्यः॒प्र भ॑रामि ब॒र्हिर्जी॒वं दे॒वेभ्य॒ उत्त॑रं स्तृणामि। तदा रो॑ह पुरुष॒ मेध्यो॒भव॒न्प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । पि॒तृऽभ्य॑: । प्र । भ॒रा॒मि॒ । ब॒र्हि:। जीवम् । दे॒वेभ्य॒: । उत्ऽत॑रम् । स्तृ॒णा॒मि॒। तत् । आ । रो॒ह॒ । पु॒रु॒ष॒ । मेध्य॑: । भव॑न् । प्रति॑ । त्वा॒ । जा॒न॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइतम् ॥४.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं पितृभ्यःप्र भरामि बर्हिर्जीवं देवेभ्य उत्तरं स्तृणामि। तदा रोह पुरुष मेध्योभवन्प्रति त्वा जानन्तु पितरः परेतम् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । पितृऽभ्य: । प्र । भरामि । बर्हि:। जीवम् । देवेभ्य: । उत्ऽतरम् । स्तृणामि। तत् । आ । रोह । पुरुष । मेध्य: । भवन् । प्रति । त्वा । जानन्तु । पितर: । पराऽइतम् ॥४.५१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पितरों और सन्तान के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) यह (बर्हिः)उत्तम आसन (पितृभ्यः) पितरों के लिये (प्र भरामि) आगे धरता हूँ, और (देवेभ्यः)श्रेष्ठ गुणों के लिये (जीवम्) इस जीव [अपने आत्मा] को (उत्तरम्) अधिक ऊँचा (स्तृणामि) फैलाता हूँ। (पुरुष) हे पुरुष ! (मेध्यः) पवित्र (भवन्) होता हुआ तू (तत्) उस [आसन] पर (आ रोह) ऊँचा हो, [तव] (पितरः) पितर लोग (त्वा) तुझे (परेतम्)प्रधानता को पहुँचा हुआ (प्रति) प्रत्यक्ष (जानन्तु) जानें ॥५१॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वान् जनोंकी प्रतिष्ठा करके और उनके समान शुद्धाचारी होकर अपने जीवन को श्रेष्ठ औरप्रतिष्ठित बनावें ॥५१॥
टिप्पणी
५१−(इदम्) (पितृभ्यः) पित्रादिमान्येभ्यः (प्र) प्रकर्षेण (भरामि) धरामि (बर्हिः) उत्तमासनम् (जीवम्) स्वात्मानम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणानांप्राप्तये (उत्तरम्) उत्कृष्टतरम् (स्तृणामि) विस्तारयामि (तत्) आसनम् (आरोह)आतिष्ठ (पुरुष) (मेध्यः) पवित्रः (भवन्) सन् (प्रति) प्रत्यक्षेण (त्वा) त्वाम् (जानन्तु) (पितरः) (परेतम्) परा प्राधान्यं गतं प्राप्तम् ॥
विषय
पितृभ्यः-देवेभ्यः
पदार्थ
१. (पितृभ्यः) = माता, पिता व आचार्म' आदि पितरों से-इनसे प्रास प्रेरणाओं के द्वारा (बर्हि:) = वासनाशून्य हदय को (प्रभरामि) = प्रकर्षेण धारण करता हूँ। अपने हृदय को वासनाशून्य बनाता हूँ। ऐसा बनकर ही मैं पितरों को प्रीणित करनेवाला बनूंगा। (देवेभ्यः) = देववृत्ति के पुरुषों के सम्पर्क से (जीवं उत्तरम्) = अपने जीवन को उत्कृष्ट रूप में (स्तुणामि) = आच्छादित करता हूँ। इनका सम्पर्क मेरे जीवन को उत्कृष्ट बनाता है। २. (तत्) = अतः हे पुरुष! तू (मेध्यः भवन्) = पवित्र जीवनवाला होता हुआ (आरोह) = आरोहण करनेवाला बन-उत्कृष्ट जीवनवाला हो। (पितर:) = माता, पिता, आचार्य आदि (त्वा) = तुझे (परेतम्) = विषयवासनाओं से दूर चला गया ही (प्रतिजानन्तु) = प्रतिदिन जानें। तू प्रतिदिन ऊपर और ऊपर उठता चल।
भावार्थ
पितरों से प्रेरणा प्राप्त कर हम अपने हृदयों को वासना से शून्य करें। देवों के सम्पर्क में जीवन को उत्कृष्ट बनाएँ। पवित्र होते हुए ऊपर और ऊपर उठे। देव हमें विषयों से दूर गया हुआ ही देखें।
भाषार्थ
(जीवं= जीवन्) जीवित मैं (पितृभ्यः) पितरों के लिए (इदम्) यह (बर्हिः) कुशासन (प्रभरामि) लाता हूं, और (स्तृणामि) बिछाता हूँ। परन्तु (देवेभ्यः) दिव्यकोटि के पितरों के लिये (उत्तरम्) अधिक उत्कृष्ट शासन लाता और बिछाता हूं। (पुरुष) हे आश्रम परिवर्तन करनेवाले दिव्य सद्गृहस्थ! तू (मेध्यः) वानप्रस्थ-निमित्तक यज्ञ करने के योग्य (भवन्) होता हुआ (तद्) उस ऊंचे कुशासन पर (आ रोह) आरूढ़ हो। ताकि (परेतम्) अगले आश्रम में आए हुए (त्वाम्) तुझ को (पितरः) ये उपस्थित पितर (प्रति जानन्तु) जान लें, और अपने आश्रम में आने की स्वीकृति दे दें।
टिप्पणी
[आसन बिछाए जाते हैं, बैठने के लिये। सूक्ष्म शरीरों वाले मृत-पितरों के लिये आसनों की आवश्यकता नहीं होती। तथा मृत-पितरों के सूक्ष्म शरीर तथा जीवात्मा न जाने किस-किस योनि में तथा किस-किस शरीर में निवास कर रहे हैं। अतः गृहस्थी के घर में उनका जाना भी सम्भव नहीं। साथ ही पितरों को दो भागों में बांटा है, साधारण पितर तथा देव पितर। सद्गृहस्थ जब आश्रम परिवर्तन करना चाहता है, तो वह वानप्रस्थी तथा संन्यस्त पितरों को इस संस्कार में पधारने के लिये निमन्त्रित कर उन्हें यथायोग्य आसन प्रदान करता है। और वे इस सद्गृहस्थ का संस्कार कर, अपने आश्रमों में आने की स्वीकृति इसे देते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
I bear and bring this holy seat for the parental seniors, this life itself made better and higher, which I spread as an open book for the divines on the vedi. O man, raising yourself and being thus sacred and revered, rise and occupy this holy position, and, in response, let the parents and seniors know and recognise you rising to the highest sanctity of your being.
Translation
This barhis I bring forward for the Fathers; a living, higher one I strew for the gods; that do thou ascend, O man, becoming sacrificial let the Fathers acknowledge thee who art departed.
Translation
I cherish this great respect (Barhih) for our fore-fathers, 1 greater than this, spread out my spirit for the Devas, the men of great vision and wisdom. O Man, you becoming pure and righteous ascend to that distinction as the elders think of (remember ) you after you become dead.
Translation
I (the sacrifice) spread this seat of Kusha-grass for the elders and being alive, spread a higher seat for the teachers of divine qualities. O man, attaining purity and superiority, sit on this seat of honor, so that the elders may remember thee even when thou hast gone to a distant place or even to the other world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५१−(इदम्) (पितृभ्यः) पित्रादिमान्येभ्यः (प्र) प्रकर्षेण (भरामि) धरामि (बर्हिः) उत्तमासनम् (जीवम्) स्वात्मानम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणानांप्राप्तये (उत्तरम्) उत्कृष्टतरम् (स्तृणामि) विस्तारयामि (तत्) आसनम् (आरोह)आतिष्ठ (पुरुष) (मेध्यः) पवित्रः (भवन्) सन् (प्रति) प्रत्यक्षेण (त्वा) त्वाम् (जानन्तु) (पितरः) (परेतम्) परा प्राधान्यं गतं प्राप्तम् ॥
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