अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 66
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिपदा स्वराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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असौ॒ हा इ॒ह ते॒मनः॒ ककु॑त्सलमिव जा॒मयः॑। अ॒भ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सौ । है । इ॒ह । ते॒ । मन॑: । ककु॑त्सलम्ऽइव । जा॒मय॑: । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥४.६६॥
स्वर रहित मन्त्र
असौ हा इह तेमनः ककुत्सलमिव जामयः। अभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर रहित पद पाठअसौ । है । इह । ते । मन: । ककुत्सलम्ऽइव । जामय: । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥४.६६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (असौ)वह [पिता आदि] (है) निश्चय करके (इह) यहाँ पर [हम में] (ते) तेरे (मनः) मन को [ढकता है], (इव) जैसे (जामयः) कुलस्त्रियाँ (ककुत्सलम्) सुख का शब्द सुनानेवालेको [अर्थात् लढ़ैते बालक को वस्त्र से ढकती हैं]। (भूमे) हे भूमितुल्य [सर्वाधार विद्वान् !] (एनम्) इस [पिता आदि जन] को (अभि) सब ओर से (ऊर्णुहि) तूढक [सुख दे] ॥६६॥
भावार्थ
जैसे माता-पिता आदिपितर लोग छोटे प्रिय सन्तान की वस्त्र आदि से रक्षा करते और ज्ञान देते हैं, वैसे ही लोग उन पिता आदि की यथोचित सेवा करें ॥६६॥इस मन्त्र का अन्तिम पाद आचुका है-अ० १८।२।५०, ५१, तथा १८।३।५० और इस मन्त्र का मिलान भी उन मन्त्रों सेकरो ॥
टिप्पणी
६६−(असौ) पित्रादिः (है) निश्चयेन (इह) अत्र। अस्मासु (ते) तव (मनः)अन्तःकरणम् (ककुत्सलम्) क+कु कुङ् वा शब्दे-क्विप्, तुक्+षल गतौ-अच्। कस्यसुखस्य शब्दप्रापकं प्रियवाचं सन्तानम् (इव) यथा (जामयः) कुलस्त्रियः (अभि)सर्वतः (एनम्) पित्रादिकम् (भूमे) हे भूमितुल्य सर्वाधार विद्वन् (ऊर्णुहि)आच्छादय। सुखय ॥
विषय
भूमिमाता की गोद में
पदार्थ
१. हे (असौ) = गतमन्त्र में वर्णित पितरों का आदर करनेवाले हे पुरुष! (ते मनः इह) = तेरा मन यहाँ ही हो। तू परिवार के पालन का पूर्ण ध्यान कर। २. हे (भूमे) = भूमिमाता! तू (एनम्) = इस गृहस्थ पुरुष को (अभि ऊर्णुहि) = सर्वत: आच्छादित करनेवाली हो। तेरी गोद में यह इसप्रकार सुरक्षित रहे, (इव) = जिस प्रकार (जामयः) = सन्तान को जन्म देनेवाली माताएँ (ककुत्सलम्) = [क-कु-शब्द सल गती] आनन्दप्रद [तुतलाते से] शब्दों के साथ रींगनेवाले बालक को अपनी गोद में सुरक्षित रखती हैं।
भावार्थ
एक गृहस्थ का कर्तव्य है कि परिवार को उन्नत करने की भावना से ओतप्रोत मनवाला हो। भूमिमाता से सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करने का प्रयत्न करे। भूमिमाता की गोद में अपने को उसी प्रकार सुरक्षित अनुभव करे, जैसे एक छोटा बालक माता की गोद में अपने को सुरक्षित अनुभव करता है।
भाषार्थ
(असौ है) वह आप हे पितृदेव! [मन्त्र ४(६५)] (ते) आपका (मनः) मन (इह) इस वानप्रस्थ तथा संन्यास में लगा रहना चाहिए, (इव) जैसे कि (जामयः) जाया अर्थात् पत्नियाँ (ककुत्सलम) घर के मुखिया तथा जल समान शीतल स्वभाव वाले पतियों को प्राप्त कर इस गृहस्थाश्रम में अपने मनों को लगाए रखती हैं। (भूमे) हे मिट्टी की झोंपड़ी! (एनम्) इस वानप्रस्थी या संन्यासी को (अभि ऊर्णुहि) सब ओर से आच्छादित कर सुरक्षित करे।
टिप्पणी
[झोपड़ी गर्मी सरदी तथा वर्षा आदि से सुरक्षा करती है। वानप्रस्थियों तथा संन्यासियों के वासगृह सादे होने चाहिएँ। ककुत्सल=ककुत् (chief head; आप्टे)+सल (water; आप्टे)। जामिः=कुलस्त्री (उणा० ४.४४)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O father figure, let your mind be here at peace in the hermitage. O mother land, just as women of the home wrap a dear child in soft clothes, you too keep this hermit here and cover him with protection and sustenance and provide a soft and comfortable environment for him.
Translation
Thou yonder, ho ! hither thy mind ! as sisters a kakutsala, do thou cover him, O earth.
Translation
O Man, your mind is entangled in this world like women to their shoulders. Let this earth be the souree of keeping this man safe (in the womb in primitive state).
Translation
O departed soul, thy mind is still set here in this world. O earth, cover him up, just women cover their shoulders.
Footnote
This verse appears to be the origin of the burying of the dead by Christians and Muhammadans.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६६−(असौ) पित्रादिः (है) निश्चयेन (इह) अत्र। अस्मासु (ते) तव (मनः)अन्तःकरणम् (ककुत्सलम्) क+कु कुङ् वा शब्दे-क्विप्, तुक्+षल गतौ-अच्। कस्यसुखस्य शब्दप्रापकं प्रियवाचं सन्तानम् (इव) यथा (जामयः) कुलस्त्रियः (अभि)सर्वतः (एनम्) पित्रादिकम् (भूमे) हे भूमितुल्य सर्वाधार विद्वन् (ऊर्णुहि)आच्छादय। सुखय ॥
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