अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
जु॒हूर्दा॑धार॒द्यामु॑प॒भृद॒न्तरि॑क्षं ध्रु॒वा दा॑धार पृथि॒वीं प्र॑ति॒ष्ठाम्। प्रती॒मांलो॒का घृ॒तपृ॑ष्ठाः स्व॒र्गाः कामं॑कामं॒ यज॑मानाय दुह्राम् ॥
स्वर सहित पद पाठजु॒हू: । दा॒धा॒र॒ । द्याम् । उ॒प॒ऽभृत् । अ॒न्तरि॑क्षम् । ध्रु॒वा । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । प्र॒ति॒ऽस्थाम् । प्रति॑ । ई॒माम् । लो॒का: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठा: । स्व॒:ऽगा: । काम॑म्ऽकामम् । यज॑मानाय । दु॒ह्ना॒म् ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
जुहूर्दाधारद्यामुपभृदन्तरिक्षं ध्रुवा दाधार पृथिवीं प्रतिष्ठाम्। प्रतीमांलोका घृतपृष्ठाः स्वर्गाः कामंकामं यजमानाय दुह्राम् ॥
स्वर रहित पद पाठजुहू: । दाधार । द्याम् । उपऽभृत् । अन्तरिक्षम् । ध्रुवा । दाधार । पृथिवीम् । प्रतिऽस्थाम् । प्रति । ईमाम् । लोका: । घृतऽपृष्ठा: । स्व:ऽगा: । कामम्ऽकामम् । यजमानाय । दुह्नाम् ॥४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।
पदार्थ
(जुहूः) ग्रहण [आकर्षण] करनेवाली शक्ति [परमात्मा] ने (द्याम्) प्रकाशमान सूर्य को, (उपभृत्)समीप से धारण करनेवाली [उसी] शक्ति ने (अन्तरिक्षम्) भीतर दिखाई देनेवाले आकाशको (दाधार) धारण किया है, और (ध्रुवा) [उसी] निश्चल शक्ति ने (प्रतिष्ठाम्)आश्रय स्थान, (पृथिवीम्) पृथिवी को (दाधार) धारण किया है। (इमाम्) इसी [शक्तिपरमात्मा] में (प्रति) व्याप कर (घृतपृष्ठाः) प्रकाश को ऊपर रखनेवाले [सुन्दरज्योतिवाले] (स्वर्गाः) सुख पहुँचानेवाले (लोकाः) लोक [समाज वा अधिकार] (कामंकामम्) प्रत्येक कामना को (यजमानाय) यजमान [श्रेष्ठ व्यवहार करनेवाले] केलिये (दुह्राम्) भरपूर करें ॥५॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने सूर्यको अनेक लोकों का आकर्षक, आकाश को सब लोकों का आधार और पृथिवी को प्राणियों कानिवासस्थान बनाया है, उस जगदीश्वर के आश्रय में रहकर यह सब लोक पुरुषार्थीधर्मात्मा मनुष्य के लिये बड़े ज्योतिष्मान् होकर शुभ कामनाएँ पूरी करते हैं॥५॥
टिप्पणी
५−(जुहूः) हुवः श्लुवच्च। उ० २।६०। हु दानादानादनेषु-क्विप्। ग्रहीत्रीशक्तिः परमात्मा (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (उपभृत्) सामीप्येन धारयित्रीशक्तिः (अन्तरिक्षम्) अन्तर्मध्ये दृश्यमानमाकाशम् (ध्रुवा) ध्रुगतिस्थैर्ययोः-क, टाप्। निश्चला शक्तिः (दाधार) (पृथिवीम्) (प्रतिष्ठाम्)आश्रयभूताम् (इमाम्) शक्तिम् (लोकाः) समाजाः। अधिकाराः (घृतपृष्ठाः) घृक्षरणदीप्त्योः-क्त। दीप्तोपरिभागाः। सर्वतो ज्योतिष्मन्तः (स्वर्गाः)सुखप्रापकाः (कामंकामम्) प्रत्येककामनाम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४ ॥
विषय
जुहूः, उपभृत, ध्रुवा
पदार्थ
१. यज्ञ के महत्त्व का काव्यमय वर्णन इस रूप में करते हैं कि (जुहूः द्याम् दाधार) = [हूयते अनया हविः सोमसाधनाभूतः पात्रविशेषः] जुहू नामक यज्ञपात्र घुलोक का धारण करता है। (उपभृत् अन्तारिक्षम्) = [उप समीपे जुह्वा: भ्रियते] जुहू के समीप रखा जानेवाल पात्र विशेष अन्तरिक्ष को धारण करता है। (ध्रुवा प्रतिष्ठां पृथिवीं दाधार) = ध्रुवा संज्ञिका सुक् चराचरात्मक जगत् की आश्रयभूत प्रथित भूमि को धारण करती है। इसप्रकार ये यज्ञपात्र त्रिलोक का धारण करते हैं, अर्थात् सम्पूर्ण संसार का आधार यज्ञ ही है। २. (इमां प्रति) = धुवा से धारित इस पृथिवी का लक्ष्य करके (लोका:) = सब लोक (घृतपृष्ठा:) = दीप्ति के आधारभूत होते हैं, (स्वर्गाः) = स्वर्ग ही होते हैं। सब लोक इन प्राणियों की आधारभूत पृथिवी को दीप्तिमय व स्वर्गतुल्य बनाते हैं। जब इस पृथिवी पर सब मनुष्य यज्ञशील बनते हैं, तब इस पृथिवी पर सूर्य शान्तिशील होकर तपता है [शं नस्तपतु सूर्यः], अन्तरिक्ष से बादल भी ठीक वर्षा करके अन्नोत्पत्ति का साधन बनते हैं [शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः]। ये (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (कार्मकामम्) = प्रत्येक काम्य-चाहने योग्य पदार्थ का दुहाम्-दोहन करते हैं।
भावार्थ
'यज्ञ' त्रिलोकी का धारण करता है। यज्ञों के होने पर सब अन्तरिक्ष व धुलोक इस पृथिवी को दीप्तिमय स्वर्गतुल्य बनाते हैं। यज्ञशील पुरुष के लिए सब काम्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं 'एष वोऽस्त्विष्टकामधुक'।
भाषार्थ
(जुहूः) जुहू ने (द्याम्) द्युलोक का रूप (दाधार) धारण कर लिया, (उपभृत्) उपभृत् ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष का रूप धारण कर लिया, (ध्रुवा) ध्रुवा ने (प्रतिष्ठाम्) सर्वाधारभूत (इमां पृथिवीम्) इस पृथिवी का (प्रति) प्रतिरूप (दाधार) धारण कर लिया। तदनन्तर (घृतपृष्ठाः) दीप्तियों से स्पृष्ट (स्वर्गाः) विशेष सुखभोग के साधनभूत (लोकाः) तीन लोक, अर्थात् द्युलोक, अन्तरिक्षलोक तथा पृथिवीलोक (यजमानाय) अध्यात्मयज्ञ के कर्त्ता संन्यासी के लिए (कामंकामम्) उसकी प्रत्येक आध्यात्मिक कामना को (दुह्राम्) पूर्ण करते हैं, सफल करते हैं।
टिप्पणी
[याज्ञिक पद्धति के अनुसार यज्ञार्थ घृत प्रथम ध्रुवा-पात्र में लिया जाता है। इसे ध्रुवा इसलिए कहते हैं, चूँकि इस में घृत भरकर इसे अपने नियत स्थान में स्थित रहने दिया जाता है। इसके समीप उपभृत्-पात्र रखा जाता है। यह ध्रुवा के “उप” अर्थात् समीप स्थित रहता है, और ध्रुवास्थ घृत द्वारा इसे भरा जाता है। तदनन्तर जुहू-पात्र में घृत उपभृत्-पात्र से लिया जाता है, और जुहू के घृत के स्रुव द्वारा अग्नि में घृताहुतियाँ दी जाती हैं। व्यक्ति जब संन्यास ग्रहण करता है, तब उसके लिए अग्निहोत्र तथा अन्य यज्ञों का विधान नहीं रहता। उस समय उसके लिए द्युलोक, अन्तरिक्षलोक, और पृथिवीलोक ही जुहू उपभृत् और ध्रुवारूप हो जाते हैं। उसकी पहिली कामनाएँ तो द्रव्य-यज्ञों और उनके साधनों द्वारा पूर्ण होती थीं। संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उसकी पहिली कामनाएँ छूट जाती हैं, और नई आध्यात्मिक कामनाएँ जागरित हो जाती है। इन कामनाओं की पूर्ति परमेश्वरीय कृपा से, परमेश्वर-संचालित तीनों लोकों द्वारा अनायास होती रहती हैं। पृथिवी सर्वाधार है, चूंकि सब ओषधियों, अन्नों, प्राणियों, और इनके जीवनों के साधन अर्थात् जल, वायु, प्रकाश, ताप आदि की स्थिति का स्थान पृथिवी ही है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Juhu, the ladle that holds the havi for the fire, the cosmic process of giving, sustains the high region of light. Upabhrt, the vessel that holds the havi for the Juhu, the process of nature that holds the wealth of abundance for release towards the process of offering, sustains the middle region of the firmament. And Dhruva, the fixed and settled container of havi, nature’s process of divine stability, sustains the earth. May all regions bright with the shine of ghrta, which lead to paradisal joy, bear and bring to the stable earth fulfilment of desire for the yajamana. (The cosmic process of sustenance is a circuitous balance of centrifugal and centripetal forces, the centre being the lord Supreme, dimensionless Infinity, smaller than the smallest, greater than the greatest. Reference may be made to Rgveda 1, 164, 35 and Atharva-veda 9, 10, 13-14, and to Kathopanishad 1, 2, 20 and Shvetashvataropanishad 3, 20, yajna thus is a symbol of the universe and the structure and process of yajna, a symbol of the structure and process of the universe.)
Translation
The sacrificial spoon sustains the sky, the offering spoon the atmosphere; the ladle sustains the earth, the support; unto me let the worlds ghee-backed, heavenly, yield every desire for the sacrificer.
Translation
The heavenly region has held up the sun, the firmament has supported the atmosphere and the vast rehabilitative expansion and supporting power has established the earth's expansive capacity. These resplendent world sover-spread which carry butter-oblations on their back hyield for he yajmana all his desired ends towards this earth.
Translation
God has supported the lustrous Sun. He has supported the atmosphere He has supported Earth, that affords shelter to all. Depending upon the same God, may all beautiful, comfortable places fulfill all the wishes of a man who performs noble deeds.
Footnote
Juhu is the name of God, as He controls all objects animate or inanimate. Upbhrit is the name of God, as He rears and nourishes all. Dhruva is the name of God as He is Firm, Constant and Unchangeable.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(जुहूः) हुवः श्लुवच्च। उ० २।६०। हु दानादानादनेषु-क्विप्। ग्रहीत्रीशक्तिः परमात्मा (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (उपभृत्) सामीप्येन धारयित्रीशक्तिः (अन्तरिक्षम्) अन्तर्मध्ये दृश्यमानमाकाशम् (ध्रुवा) ध्रुगतिस्थैर्ययोः-क, टाप्। निश्चला शक्तिः (दाधार) (पृथिवीम्) (प्रतिष्ठाम्)आश्रयभूताम् (इमाम्) शक्तिम् (लोकाः) समाजाः। अधिकाराः (घृतपृष्ठाः) घृक्षरणदीप्त्योः-क्त। दीप्तोपरिभागाः। सर्वतो ज्योतिष्मन्तः (स्वर्गाः)सुखप्रापकाः (कामंकामम्) प्रत्येककामनाम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal