अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 67
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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शुम्भ॑न्तांलो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑ने त्वा लो॒क आ सा॑दयामि ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑न्ताम् । लो॒का: । पि॒तृ॒ऽसद॑ना:। पि॒तृ॒ऽसद॑ने । त्वा॒ । लो॒के । आ । सा॒द॒या॒मि॒ ॥४.६७॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भन्तांलोकाः पितृषदनाः पितृषदने त्वा लोक आ सादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भन्ताम् । लोका: । पितृऽसदना:। पितृऽसदने । त्वा । लोके । आ । सादयामि ॥४.६७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(पितृषदनाः) पितरों [ज्ञानियों] की बैठकवाले (लोकाः) समाज (शुम्भन्ताम्) शोभायमान होवें, (पितृषदने)पितरों की बैठकवाले (लोके) समाज में (त्वा) तुझे (आ सादयामि) मैं बिठालता हूँ॥६७॥
भावार्थ
ज्ञानी लोग हीविद्वानों के समाजों में शोभा पाते हैं, इसलिये माता-पिता आदि प्रयत्न करें किउन के सन्तान भी विद्वानों में प्रतिष्ठा पावें ॥६७॥इस मन्त्र का पहिला पाद कुछभेद से यजुर्वेद में है−५।२६ ॥
टिप्पणी
६७−(शुम्भन्ताम्) शुम्भ शोभायाम्। शोभायमानाभवन्तु (लोकाः) समाजाः (पितृषदनाः) पितॄणां सदनयुक्ताः (पितृषदने) पितॄणांसदनयुक्ते (त्वा) त्वाम् (लोके) समाजे (आ) समन्तात् (सादयामि) स्थापयामि ॥
विषय
पितृषदन लोकों की शोभा
पदार्थ
१.जिन घरों में पितरों का आना-जाना बना रहता है, वे घर 'पितषदन' कहलाते हैं। ये, (पितृषवनाः लोकाः) = पितरों को जहाँ आदरपूर्वक बिठाया जाना होता है, वे लोक [घर] (शम्भन्ताम्) = शोभावाले हों। घरों में कई बार छोटी-मोटी समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। यदि घरों में पितरों का आदर बना रहता है तो पितर आते हैं और समुचित प्रेरणाओं के द्वारा उन समस्याओं को सुलझा जाते हैं, इसप्रकार घरों की शोभा बनी रहती है। २. प्रभु कहते हैं कि हे गृहस्थ! मैं (त्वा) = तुझे (पितृषदने लोके) = इस पितरों के आदरपूर्वक बिठाये जानेवाले लोक में ही (आसादयामि) = बिठाता हूँ। तुम्हारा यह मौलिक कर्तव्य है कि तुम पितरों का आदर करनेवाले बनो। यह तुम्हारा "पितृयज्ञ' है।
भावार्थ
घरों में पितरों [बड़ों] का आदर बना रहे। जब कभी वे वानप्रस्थाश्रम से घर पर आएँ, उन्हें आदरपूर्वक निवास कराया जाए। उनकी प्रेरणाओं को शिरोधार्य किया जाए। ऐसा होने पर घर शोभामान बने रहते हैं।
भाषार्थ
(पितृषदनाः) पितर अर्थात् पिता पितामह और प्रपितामह जहाँ रहते हैं, वे (लोकाः) दर्शनीय आश्रम (शुम्भन्ताम्) पितरों के निवास तथा उद्यान आदि द्वारा सदा सुशोभित रहें। हे पिता! (पितृषदने) पितरों के रहने के ऐसे (लोके) दर्शनीय आश्रम में (त्वा) आपको (आ सादयामि) मैं पुत्र स्थापित करता हूँ। आपके निवास के लिए सदन का निर्माण करवाता हूँ॥ ६७॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Let the hermitages for the residence of parental seniors and sages be bright and beautiful places. O father figure, I honour your Reverence in this beautiful hermitage with all the comfort and care you need.
Translation
Let the worlds where the Fathers sit adorn themselves; I make thee to sit in the world where the Fathers sit.
Translation
May the residential places where elders live remain always decorated and clearn. O man, I accommodate you in the residence where reside.
Translation
The residential places of the elders may be well-decorated. I respectfully seat thee (an honored guest) in the abode, fit for the elders’ residence.
Footnote
The verse ordains that progeny should look to the needs of the elders for comfortable and beautiful houses for their elders and guests.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६७−(शुम्भन्ताम्) शुम्भ शोभायाम्। शोभायमानाभवन्तु (लोकाः) समाजाः (पितृषदनाः) पितॄणां सदनयुक्ताः (पितृषदने) पितॄणांसदनयुक्ते (त्वा) त्वाम् (लोके) समाजे (आ) समन्तात् (सादयामि) स्थापयामि ॥
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