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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 59
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    त्वे॒षस्ते॑ धू॒मऊ॑र्णोतु दि॒वि षं छु॒क्र आत॑तः। सूरो॒ न हि द्यु॒ता त्वं॑ कृ॒पा पा॑वक॒ रोच॑से॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे॒ष: । ते॒ । धू॒म: । ऊ॒र्णो॒तु॒ । दि॒वि । सन् । शु॒क्र: । आऽत॑त: । सुर॑: । न । हि । द्यु॒ता । त्वम् । कृपा । पा॒व॒क॒ । रोच॑से ॥४.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेषस्ते धूमऊर्णोतु दिवि षं छुक्र आततः। सूरो न हि द्युता त्वं कृपा पावक रोचसे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेष: । ते । धूम: । ऊर्णोतु । दिवि । सन् । शुक्र: । आऽतत: । सुर: । न । हि । द्युता । त्वम् । कृपा । पावक । रोचसे ॥४.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 59
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (ते)तेरा (सन्) श्रेष्ठ, (शुक्रः) निर्मल (आततः) सब ओर फैला हुआ (त्वेषः) प्रकाश [हमको] (दिवि) आकाश में (धूमः) भाप [जैसे, वैसे] (ऊर्णोतु) ढक लेवे। (पावक) हे शोधक ! [परमेश्वर] (सूरःन) जैसे सूर्य (द्युता) अपने प्रकाश से [वैसे] (त्वम्) तू (हि)ही (कृपा) अपनी कृपा से (रोचसे) चमकता है ॥५९॥

    भावार्थ

    जैसे मेघ के कण आकाशमें व्यापक रहते हैं, वैसे ही परमात्मा को हम लोग सर्वत्र व्यापक साक्षात् करें, वह कृपालु जगदीश्वर सूर्यसमान सब में प्रकाशमान है ॥५९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−६।२।६। और सामवेद में पू० १।९।३ ॥

    टिप्पणी

    ५९−(त्वेषः) त्विषदीप्तौ-पचाद्यच्। प्रकाशः (ते) तव (धूमः) वाष्पो यथा (ऊर्णोतु) आच्छादयतु (दिवि)आकाशे (सन्) श्रेष्ठः (शुक्रः) शुक्लः। शुद्धः (आततः) समन्ताद् विस्तीर्णः (सूरः) प्रेरकः सूर्यः (न) यथा (हि) निश्चयेन (द्युता) दीप्त्या (त्वम्) (कृपा)कृपू सामर्थ्ये-क्विप्। कृपया। दयया (पावक) हे शोधक परमात्मन् (रोचसे) दीप्यसे ॥

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    विषय

    द्युता-कृपा

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (ते त्वेष:) = आपकी (दौप्ति धूम:) = हमारे अन्दर घुस आनेवाले वासनारूप शत्रुओं को कम्पित करनेवाली है [धू कम्पने]। यह (ऊर्णोतु) = हमें आच्छादित करनेवाली हो। सब शत्रुओं के आक्रमण से बचानेवाली हो। (दिवि) = यह मस्तिष्करूप द्युलोक में (सन्) [सत्] = उत्तम हो हमें सात्त्विक वृत्तिवाला बनाए । (शुक्रः) = यह हमें गतिमय जीवनवाला बनाए तथा आतत: यह सब ओर विस्तारवाली हो-यह हमें विशाल हृदय बनाए । २. जिस समय प्रभु की उस ज्ञानदीप्ति से हम 'सन्, शुक्र व आतत' बन पाएँ उस समय हमें अपने इस उत्कर्ष का गर्व न हो जाए। इसके लिए हम प्रभु का इस रूप में स्मरण करें कि-(सूरः न) = हे प्रभो! आप सूर्य के समान हो और हे पावक-हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चिय से (द्युता) = ज्ञानज्योति से तथा कृपा-सामर्थ्य से (रोचसे) = चमकते हो। सब ज्योति व शक्ति आपकी हि है|

    भावार्थ

    प्रभु की दीप्ति हमारी वासनाओं को कम्पित करके दूर करती हैं-यह हमें 'उत्तम गतिशील व विशाल हृदय' बनाती है। प्रभु ही हमारे अन्दर ज्योति व शक्ति से दीप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर ! आप का (धूमः) धूमल१ (त्वेषः) प्रकाश (ऊर्णोतु) मुझे आच्छादित किये हुये है, घेरे हुये है। यह धूमल प्रकाश (शुक्रः सन्) शुभ्र होकर (दिवि) मेरे मस्तिष्क में, सहस्रार चक्र में (आततः) अब फैल गया है। (त्वम्) आप अब (द्युता) द्युति द्वारा (हि) निश्चय से (सूरः न) सूर्य के सदृश हुये हैं। (पावक) हे पवित्र करनेवाले ! (कृपा) आप निज सामर्थ्य के कारण (रोचसे) अत्यन्त रुचिर प्रतीत हो रहे हैं।

    टिप्पणी

    [अभ्यासी को प्रारम्भ में परमेश्वर की ज्योति धूमल प्रतीत होती है। स्पष्ट स्वच्छरूप में प्रतीत नहीं होती। अभ्यासी ध्यान-प्रकर्ष द्वारा जब सहस्रार-चक्र में अवस्थित हो जाता है, तब उसे परमेश्वर का दिव्य शुभ्र प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ अनुभूत होने लगता है। वह प्रकाश सूर्य के प्रकाशवत् अत्यन्त निर्मल होता है। कृपा= कृप् सामर्थ्ये। वह दिव्य प्रकाश परमेश्वर का निज प्रकाश होता है, वह परतः-प्रकाश नहीं होता। दिवि=मूर्ध्नि। “दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्” (अथर्व० १०।७।३२); तथा "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" यजु० ३१।१३)।] [१. यथा:- नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्‌। एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥ (श्वेता० उप० २।११)॥इस श्लोक में "धूम" और "अर्क" (सूर्य) मन्त्र ४(४९) के अभिप्राय पर प्रकाश डालते हैं। इन्दुः= शशी (श्वेता० २।११)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O lord all pervasive, your divine refulgence, vibrant fragrance, pure and powerful, pervading extensively over the heavens may, we pray, cover and protect us as an umbrella. Like the sun, with light and grace, O lord purifier and sanctifier, you shine and bless.

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    Translation

    Let thy sparkling smoke cover, being in the sky, extended bright; for thou, O purifier, shinest like the sun with luster, with beauty.

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    Translation

    O holy God, your radiant gleam spreading all over like the smoke of fire covers all the emancipated jivas in His blessedness. O symbol of all the sanctity, You like the sun through its light, shine by your grace and power.

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    Translation

    O soul, thy grey-colored light may spread afar and in the state of salvation, thy pure-white beauty may pervade all through and thou shinest with splendor like the Sun purifying all with thy spiritual powers.

    Footnote

    Pt. Satvalekar applies this verse to ordinary fire only, which lowers the sublimity of the Vedic Text. The verse refers to the divine powers of a Yogi also see Rig, 6.26, and Sama, 1.83.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(त्वेषः) त्विषदीप्तौ-पचाद्यच्। प्रकाशः (ते) तव (धूमः) वाष्पो यथा (ऊर्णोतु) आच्छादयतु (दिवि)आकाशे (सन्) श्रेष्ठः (शुक्रः) शुक्लः। शुद्धः (आततः) समन्ताद् विस्तीर्णः (सूरः) प्रेरकः सूर्यः (न) यथा (हि) निश्चयेन (द्युता) दीप्त्या (त्वम्) (कृपा)कृपू सामर्थ्ये-क्विप्। कृपया। दयया (पावक) हे शोधक परमात्मन् (रोचसे) दीप्यसे ॥

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