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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 36
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    स॒हस्र॑धारंश॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षि॑तं व्य॒च्यमा॑नं सलि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। ऊर्जं॒दुहा॑न॒मन॑पस्पुरन्त॒मुपा॑सते पि॒तरः॑ स्व॒धाभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽधारम् । श॒तऽधा॑रम् । उत्स॑म् । अक्षि॑तम् । वि॒ऽअ॒च्यमा॑नम् । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । ऊर्ज॑म् । दुहा॑नम् । अ॒न॒प॒ऽस्फुर॑न्तम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । पि॒तर॑: । स्व॒धाभि॑: ॥४.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रधारंशतधारमुत्समक्षितं व्यच्यमानं सलिलस्य पृष्ठे। ऊर्जंदुहानमनपस्पुरन्तमुपासते पितरः स्वधाभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽधारम् । शतऽधारम् । उत्सम् । अक्षितम् । विऽअच्यमानम् । सलिलस्य । पृष्ठे । ऊर्जम् । दुहानम् । अनपऽस्फुरन्तम् । उप । आसते । पितर: । स्वधाभि: ॥४.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गोरक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सहस्रधारम्) सहस्रोंप्रकार से पोषण करनेवाले, (शतधारम्) दूध की सैकड़ों धाराओंवाले, (अक्षितम्) नघटनेवाले, (सलिलस्य) समुद्र की (पृष्ठे) पीठपर (व्यच्यमानम्) फैले हुए [अर्थात्जलसमान बहुत होनेवाले], (ऊर्जम्) बलकारक रस [दूध घी आदि] (दुहानम्) देनेवाले (अनपस्फुरन्तम्) कभी न चलायमान होनेवाले (उत्सम्) स्रोते [अर्थात् गौ रूपपदार्थ] को (पितरः) पितर [पिता आदि मान्य] लोग (स्वधाभिः) आत्मधारण शक्तियों केसाथ (उप आसते) सेवते हैं ॥३६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपनाशारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाना चाहें, वे गौ की रक्षा करके दूध, घी आदि का सेवनकरें ॥३६॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से यजुर्वेद में है−१३।४९ औरउत्तरार्द्ध के लिये-मन्त्र ३० ऊपर देखो ॥

    टिप्पणी

    ३६−(सहस्रधारम्) सहस्रप्रकारेण धारकंपोषकम् (शतधारम्) असंख्यातदुग्धधारोपेतम् (उत्सम्) स्रोतः सदृशं गोरूपपदार्थम् (अक्षितम्) अक्षीणम् (व्यच्यमानम्) अञ्चु गतौ याचने च-शानच्। वि विविधं प्रसरन्तम् (सलिलस्य) समुद्रस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (ऊर्जम्) बलकरं रसं दुग्धादिकम् (दुहानम्) प्रयच्छन्तम् (अनपस्फुरन्तम्) न कदापि संचलन्तम् (उपासते) सेवन्ते (पितरः) पित्र्यादिमान्याः (स्वधाभिः) आत्मधारणशक्तिभिः ॥

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    विषय

    "ऊर्क का दोग्धा' यज्ञ

    पदार्थ

    १. (सहस्त्रधारम्) = हज़ारों प्रकार से हमारा धारण करनेवाले, (शतधार) = शतवर्षपर्यन्त हमारे जीवन का धारण करनेवाले (उत्सम्) = यज्ञरूप स्रोत को (पितरः) = पालनात्मक कर्मों की वृत्तिवाले लोग (स्वधाभिः) = धारण करनेवाले अन्नों के उद्देश्य से (उपासते) = उपासित करते हैं। यज्ञों से वृष्टि होकर उत्तम आद्य अन्नों की प्राप्ति होती है। २. यह यज्ञरूप स्रोत (अक्षितैः) = न क्षीण होनेवाला है। (सलिलस्य पृष्ठे व्यच्यमानम्) = अन्तरिक्ष के पृष्ठ पर विस्तृत होनेवाला है। यह सारे वायुमण्डल में हविर्द्रव्यों के सूक्ष्मकणों को फैला देनेवाला है। (ऊर्ज दुहानम्) = अन्न व रस का हमारे लिए प्रपूरण करनेवाला है। (अनपस्फुरन्तम्) = सम्यक् शोभमान है। [सम्यक् शोभमानम् सा०]

    भावार्थ

    यज्ञ शतश: प्रकार से हमारा धारण करनेवाला है। पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोग आद्य अन्नों के हेतु से इस यज्ञ को अपनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (सहस्रधारम्) हजारों का धारण-पोषण करने वाले, (शतधारम्) सैकड़ों दुग्धधाराओं वाले, (उत्सम्) दुग्ध के कूपभूत, (अक्षितम्) दूध से क्षीण न होने वाले, (सलिलस्य) जल वाले (पृष्ठे) भूपृष्ठ पर (व्यच्यमानम्) विचरने वाले, (अनपस्फुरन्तम्) अविचल खड़े रह कर (ऊर्जम्) बलदायक और प्राणप्रदायक दुग्धरस (दुहानम्) देने वाले गोसमूह के (उप) समीप (आसते) निवास करते हैं (पितरः) गृहस्थी माता-पिता; (स्वधाभिः) दुग्ध और दुग्धजन्य अन्नों के कारण।

    टिप्पणी

    [सलिलस्य पृष्ठे=सलिलस्य सम्बन्धिनि पृष्ठे=जल और जलीय प्रदेश में सुलभ हरे घास के कारण। यथा “अनूपे गोमान् गोभिरक्षाः सोमो दुग्धाभिरक्षाः” (ऋ० ९.१०७.९), अर्थात् जलप्राय प्रदेश में गोस्वामी जब गौओं के साथ निवास करता है, तब सोम अर्थात् दूध गौओं से स्रवित होता है। इस प्रकार जलीय प्रदेश और गौओं का परस्पर सम्बन्ध है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Parents, people, social organisations and government agencies, with their own inputs, serve, augment and benefit from the hundred and thousand- streamed, undiminishing and expanding milky spring of food and energy, undisturbed and steady in the midst of the green, plenteous world on the earth, among flowing waters.

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    Translation

    A thousand-streamed, hundred-streamed fountain, unexhausted expanded upon the back of the sea, yielding refreshment, unresisting, do the Fathers wait on at their will.

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    Translation

    The sun- beams with their retaining powers take in their folds the oblatory substance which, like the spring of hundred and thousand streams, spreading in the atmosphere, pouring grain and vigor remains exhaustive.

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    Translation

    The guardians of the people worship, with their sustained efforts, the Indestructible fountain-head of hundreds and thousands of streams of material objects, appearing in manifold forms, giving strength and energy without any break or stoppage, all through the heavens or firmament.

    Footnote

    See Yajur, 13-49 also.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(सहस्रधारम्) सहस्रप्रकारेण धारकंपोषकम् (शतधारम्) असंख्यातदुग्धधारोपेतम् (उत्सम्) स्रोतः सदृशं गोरूपपदार्थम् (अक्षितम्) अक्षीणम् (व्यच्यमानम्) अञ्चु गतौ याचने च-शानच्। वि विविधं प्रसरन्तम् (सलिलस्य) समुद्रस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (ऊर्जम्) बलकरं रसं दुग्धादिकम् (दुहानम्) प्रयच्छन्तम् (अनपस्फुरन्तम्) न कदापि संचलन्तम् (उपासते) सेवन्ते (पितरः) पित्र्यादिमान्याः (स्वधाभिः) आत्मधारणशक्तिभिः ॥

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