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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 50
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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    एयम॑ग॒न्दक्षि॑णाभद्र॒तो नो॑ अ॒नेन॑ द॒त्ता सु॒दुघा॑ वयो॒धाः। यौव॑ने जी॒वानु॑पपृञ्च॒ती ज॒रापि॒तृभ्य॑ उपसं॒परा॑णयादि॒मान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒यम् । अ॒ग॒न् । दक्षि॑णा । भ॒द्र॒त: । न॒: । अ॒नेन॑ । द॒त्ता । सु॒ऽदुघा॑ । व॒य॒:ऽधा: । यौव॑ने । जी॒वान् । उ॒प॒ऽपृञ्च॑ती । ज॒रा । पि॒तृऽभ्य॑: । उ॒प॒ऽसंप॑रानयात् । इ॒मान् ॥४.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एयमगन्दक्षिणाभद्रतो नो अनेन दत्ता सुदुघा वयोधाः। यौवने जीवानुपपृञ्चती जरापितृभ्य उपसंपराणयादिमान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इयम् । अगन् । दक्षिणा । भद्रत: । न: । अनेन । दत्ता । सुऽदुघा । वय:ऽधा: । यौवने । जीवान् । उपऽपृञ्चती । जरा । पितृऽभ्य: । उपऽसंपरानयात् । इमान् ॥४.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 50
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पितरों और सन्तान के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अनेन) इस [सुकर्म]करके (दत्ता) दी हुई, (सुदुघा) बड़ी दुधैल [गौ के समान] (वयोधाः) बल देनेवाली (इयम्) यह (दक्षिणा) दक्षिणा [प्रतिष्ठा] (भद्रतः) उत्तमता से (नः) हम को (आअगन्) प्राप्त हुई है। (यौवने) यौवन [बल की पूरी अवस्था] में (इमान्) इन (जीवान्) जीवते हुए पुरुषों को (उपपृञ्चती) मिलती हुई (जरा) बड़ाई (पितृभ्यः)पितरों के पास को (उपसंपराणयात्) प्रधानता से ठीक-ठीक ले चले ॥५०॥

    भावार्थ

    जैसे दुधैल गौ सेवाकरने से दूध-घी आदि पदार्थ देकर मनुष्यों को बलवान् करती है, वैसे ही मनुष्यसुकर्म के अनुष्ठान से दृढ़ गौरव पाकर बड़े लोगों में नाम पावें ॥५०॥

    टिप्पणी

    ५०−(इयम्) (आ अगन्) आगमत् (दक्षिणा) प्रतिष्ठा। गौरवम् (भद्रतः) कल्याणात् (नः) अस्मान् (अनेन) सुकर्मणा (दत्ता) (सुदुघा) बहुदोग्ध्री गौर्यथा (वयोधाः) बलदायिका (यौवने) पूर्णबलवत्त्वे (जीवान्) जीवनवतः पुरुषार्थिनः पुरुषान् (उपपृञ्चती)संयोजयन्ती (जरा) जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। प्रशंसा (पितृभ्यः) तादर्थ्ये चतुर्थी। पालकेभ्यः (उपसंपराणयात्) उप+सम्+परा+नयात्।प्राधान्येन सम्यग् नयतु प्रापयतु (इमाम्) प्रसिद्धान् ॥

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    विषय

    दान व प्रभु-स्तवन [दक्षिणा + जरा]

    पदार्थ

    १. (इयम्) = यह (दक्षिणा) = दानवृत्ति (नः) = हमें (भद्रत:) = कल्याण की दृष्टि से (आ अगन्) = सर्वथा प्राप्त होती है। हम देने की वृत्तिवाले बनते हैं और यह वृत्ति हमारा कल्याण ही करती है। (अनेन) = इस व्यक्ति से (दत्ता) = दी हुई यह (दक्षिणा सुदुघा) = उत्तमता से हमारा प्रपूरण करनेवाली है, और (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन का धारण करती है। गृहस्थ में दान की वृत्ति कल्याण-ही-कल्याण करती है। २. यौवने यौवन में-युवावस्था में (जीवान् उपपञ्चती) = जीवों को समीपता से प्राप्त होती हुई जरा-स्तुति-प्रभु-स्तवन की वृत्ति (इमान्) = इन जीवों को (पितृभ्यः उपसंपराणयात्) = पितरों को समीपता से प्राप्त कराती है। प्रभु-स्तवन की वृत्तिवालों को प्रभुकृपा से उत्तम पितरों का सम्पर्क प्रास होता है और ये उनसे ठीक मार्ग का ज्ञान प्राप्त करते हुए जीवन में भटकने से बचे रहते है।

    भावार्थ

    हम गृहस्थ में दानवृत्तिवाले बनें। यह हमारा प्रपूरण करेगी और उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराएगी। प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें। प्रभु हमें उत्तम पितरों के सम्पर्क द्वारा ठीक मार्ग का ज्ञान प्राप्त कराके भटकने से बचाएंगे।

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    भाषार्थ

    पुरोहित कहता है कि (नः) हमें अर्थात् मुझे (भद्रतः) मृतव्यक्ति के भद्र सम्बन्धी से (इयम्) यह (दक्षिणा) अन्त्येष्टि संस्कार की दक्षिणा (अगन्) प्राप्त हुई है। (अनेन) इस भद्र सम्बन्धी द्वारा (दत्ता) दी गई दक्षिणा (सुदुघा) उत्तम फल वाली है, और (वयोधाः) आयु तथा अन्न प्रदान करनेवाली है। जब (यौवने) युवाकाल में (जीवान्) जीवितों के साथ (जरा) बुढ़ापा अर्थात् आलस्य निष्क्रियता आदि (उपपृञ्चती) गहरा सम्पर्क कर लेते हैं, तब बुढ़ापा (इमान्) इन जीवितों को (पितृभ्यः) जीवित पितरों से पृथक् कर (उप संपराणयात्) मृत्यु के समीप शीघ्र ले जाता है।

    टिप्पणी

    [उप संपराणयात् = उप (समीप) + सम+परा+नयात्। वयः= अन्न (निघं० २।७ ); आयु (प्रसिद्ध)। "न सांपरायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्" (कठ० उप० अ० १, बल्ली २, खं० ६)। अथवा - जब यौवनकाल में जीवितों के साथ (जरा) स्तुति वा भक्ति गहरा सम्पर्क कर लेती है, तब स्तुति वा भक्ति इन जीवितों को वनस्थ तथा संन्यस्त पितरों के प्रति, उनके समीप शीघ्र अगले आश्रमों में पहुंचा देती है। यथा- यदहरेव विरजेत् तवहरेव प्रव्रजेत् गृहाद्वा वनाद् वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्" (जाबालोपनिषद्)। जरा-स्तुति; यथा जरति जरते= अर्चतिकर्मा (निघं० ३।१४); जरिता स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)। तथा "वयमिन्द्र त्वायवो हविष्मन्तो जरामहे" (अथर्व० २०।२३।७) जरामहे = स्तुमः।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    This gift of life and joy at the full has come to us from the noble treasure-hold, given by this divine giver. During the period of youth, maturity approaches people, slow but sure, which may, we pray, take them close to the parental seniors (in wisdom and vision).

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    Translation

    This sacrificial gift hath come excellently to us, given by him, well-milking, vigor-bestowing; old age, coming close to them living in youth, shall lead these away together unto the Fathers.

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    Translation

    May this Dakshina, remuneration (of conducting Yajna) which will fulfil all our desires and which is full of grains, be auspicious for us. This like the old age which overcomes the people after youth, make these men find place amongst living elders.

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    Translation

    This strong and energizing cow has come to us from a noble person as a gift. Being given by him, she is easy to milk and prolongs our lives and nourishes the people in youth as well in old age. He continues feeding them through the elders for long long years.

    Footnote

    The verse emphasizes the importance of cow as the nourisher of the people at large and hence Aghanya' not to be killed by man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५०−(इयम्) (आ अगन्) आगमत् (दक्षिणा) प्रतिष्ठा। गौरवम् (भद्रतः) कल्याणात् (नः) अस्मान् (अनेन) सुकर्मणा (दत्ता) (सुदुघा) बहुदोग्ध्री गौर्यथा (वयोधाः) बलदायिका (यौवने) पूर्णबलवत्त्वे (जीवान्) जीवनवतः पुरुषार्थिनः पुरुषान् (उपपृञ्चती)संयोजयन्ती (जरा) जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। प्रशंसा (पितृभ्यः) तादर्थ्ये चतुर्थी। पालकेभ्यः (उपसंपराणयात्) उप+सम्+परा+नयात्।प्राधान्येन सम्यग् नयतु प्रापयतु (इमाम्) प्रसिद्धान् ॥

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