अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 28
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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द्र॒प्सश्च॑स्कन्द पृथि॒वीमनु॒ द्यामि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्वः॑। स॑मा॒नंयोनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्राः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒प्स: । च॒स्क॒न्द॒: । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । द्याम् । इ॒मम् । च॒ । योनि॑म् । अनु॑ । य॒: । च॒ । पूर्व॑: । स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अनु॑ । स॒म्ऽचर॑न्तम् । द्र॒प्सम् । जु॒हो॒मि॒ । अनु॑ । स॒प्त । होत्रा॑: ॥४.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनु द्यामिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः। समानंयोनिमनु संचरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥
स्वर रहित पद पाठद्रप्स: । चस्कन्द: । पृथिवीम् । अनु । द्याम् । इमम् । च । योनिम् । अनु । य: । च । पूर्व: । समानम् । योनिम् । अनु । सम्ऽचरन्तम् । द्रप्सम् । जुहोमि । अनु । सप्त । होत्रा: ॥४.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(द्रप्सः) हर्षकारकपरमात्मा (पृथिवीम्) पृथिवी और (द्याम् अनु) प्रकाश में (च) और (इमम्) इस(योनिम् अनु) घर [शरीर] में (च) और [उस शरीर में भी] (चस्कन्द) व्यापक है (यः)जो [शरीर] (पूर्वः) पहिला है। (समानम्) समान [सर्वसाधारण] (योनिम् अनु) कारण में (संचरन्तम्) विचरते हुए (द्रप्सम्) हर्षकारक परमात्मा को (सप्त) सात [मस्तक केसात गोलक] (होत्राः अनु) विषय ग्रहण करनेवाली शक्तियों के साथ (जुहोमि) मैंग्रहण करता हूँ ॥२८॥
भावार्थ
जो परमेश्वर अन्धकारऔर प्रकाश में, हमारे वर्तमान और पूर्व शरीर में और प्रत्येक सर्वसाधारण कारणमें व्यापक है, सब मनुष्य योगाभ्यास से इन्द्रियों को वश में करके उस जगदीश्वरकी भक्ति करें ॥२८॥अथर्ववेद काण्ड १०।२।६ में आया है−“कर्ता [परमेश्वर] ने [मनुष्य के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दोनों कान, दोनों नथने, दोनों आँखें औरएक मुख। जिन के विजय की महिमा में चौपाये और दोपाये जीव अनेक प्रकार से मार्गचलते हैं” ॥यह मन्त्र अभेद से यजुर्वेद में है−१३।५, और कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।१७।११ ॥
टिप्पणी
२८−(द्रप्सः) अ० १८।१।२१। दृप हर्षमोहनयोः। हर्षकारी परमात्मा (चस्कन्द) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः लिट्। स्कन्दति। गच्छति। व्याप्नोति (पृथिवीम्) (अनु) प्रति (द्याम्) प्रकाशम् (इमम्) दृश्यमानम् (च) (योनिम्) गृहम्। शरीरम् (अनु) प्रति (यः) योनिः। शरीरम् (च) (पूर्वः) पूर्वमुत्पन्नः (समानम्) तुल्यम्।सर्वसाधारणम् (योनिम्) कारणम् (अनु) प्रति (संचरन्तम्) विचरन्तम् (द्रप्सम्)हर्षकारकं परमात्मानम् (जुहोमि) आदत्ते। गृह्णामि (अनु) अनुसृत्य (होत्राः)हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु−त्रन्, टाप्। होत्रावाङ्नाम-निघ० १।११। शीर्षण्यच्छिद्ररूपा विषयग्रहीत्रीः शक्तीः ॥
विषय
सात्त्विक अन्न से उत्पन्न 'सोम' का शरीर में स्थापन
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में वर्णित सात्त्विक अन्न से उत्पन्न हुआ-हुआ (द्रप्स:) = रेत:कण [Drops of semen] (पृथिवीम् द्याम् अनु) = इस शरीररूप पृथिवी व मस्तिष्करूप द्युलोक को लक्ष्य करके (चस्कन्द) = शरीर में ही ऊर्ध्व [ascend] गतिवाला होता है। (च) = और (इमं योनिम्) = इस शरीररूप घर को (यः च पूर्व:) और जो सर्वप्रथम स्थान में होनेवाला मस्तिष्करूप द्युलोक है, उसको (अनु) = लक्ष्य करके यह 'द्रप्स' शरीर में व्याप्त होता है। २. (समानम्) = [सम् आन] उत्तम प्राण शक्तियुक्त (योनिम् अनु) = शरीररूप गृह का लक्ष्य करके (संचरन्तम्) = सम्यक् गति करते हुए (द्रप्सम्) = इस रेत:कण को (सप्त होत्राः अनु जुहोमि) = मैं शरीर-यज्ञ की साधक 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सात [दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें, एक मुख] होतरूप इन्द्रियों का लक्ष्य करके शरीररूप यज्ञकुण्ड में आहुत करता हूँ। इस ट्रप्स ने ही इन होताओं के शरीर यज्ञ को सिद्ध कर सकने में समर्थ करना है।
भावार्थ
शरीर में ही व्याप्त किया गया सोम [द्रप्स] शरीर को, मस्तिष्क को ब इन्द्रियों को सशक्त व दीप्त बनाता है।
भाषार्थ
(द्रप्सः) परेश्वरीय आनन्दरस (पृथिवीं द्याम् अनु) पृथिवी और द्युलोक में निरन्तर (चस्कन्द) प्रवाहित हो रहा है। वह आनन्दरस (इमं च योनिं, यश्च पूर्वः अनु) वर्तमान सृष्टि की कारणभूत=प्रकृति में, तथा पूर्व सृष्टियों की कारणभूत प्रकृति में निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। (समानम्) एकरस रूप में (योनिम्) कारणभूत प्रकृति में (अनु) निरन्तर (संचरन्तम्) विचरते हुए (द्रप्सम्) आनन्दरस को मैं (अनु) निरन्तर (सप्त होत्राः अनु) छान्दोमयी वेदवाणियों के अनुसार (जुहोमि) निज आत्मास्वरूप में आहुत करता हूँ।
टिप्पणी
[होत्रा=वाङ्नाम (निघं० १.११)। द्रप्सः=drops आनन्दरस के बिन्दु। अभिप्राय यह है कि शरीर इन्द्रियों मन तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों में जो आनन्दमात्रा अनुभूत होती है, वह उन पदार्थों में विद्यमान परमेश्वरीय आनन्दरस की मात्रा के कारण है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
That eternal, perfect and primordial divine presence and joy (Ananda) which pervades and blesses the earth, the heaven and the original cause of existence, Prakrti, the same joy which universally subsists with its origin, the Sole Creator, I adore with all my life breath, sense and mind, the seven priests, five pranas, mind and senses.
Translation
The drop leaped toward the earth, the sky, toward both this lair and the one that was of old; of the drop that goes about toward the same lair do I make oblation, after seven invocations.
Translation
The pleasant Sun permeates its operation on the earth, in the heavenly region ann in the vast space which emerges prior to all (these). On the basis of this sun which moves in the same space (where these seven quarters remain) I offer oblations to these seven directions.
Translation
The pleasant already existent Sun is pervading the earth and the heavens, the source of animate and inanimate creation. I, along with seven hotas offer oblations to the pleasant Sun, moving among the equal source of creation of animate and inanimate world.
Footnote
According to Pt. Jaidev Vidyalankar, the verse may mean: The semen of man, that was present before in man and then came into the womb of woman, pervades through both the splendor of man and the uterus of woman. I, the man offers it as oblations to Yosha-agni through seven Pränas (vital breaths) similarly the Divine semen is installed in the primordial cause of the universe in the very beginning of the creation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(द्रप्सः) अ० १८।१।२१। दृप हर्षमोहनयोः। हर्षकारी परमात्मा (चस्कन्द) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः लिट्। स्कन्दति। गच्छति। व्याप्नोति (पृथिवीम्) (अनु) प्रति (द्याम्) प्रकाशम् (इमम्) दृश्यमानम् (च) (योनिम्) गृहम्। शरीरम् (अनु) प्रति (यः) योनिः। शरीरम् (च) (पूर्वः) पूर्वमुत्पन्नः (समानम्) तुल्यम्।सर्वसाधारणम् (योनिम्) कारणम् (अनु) प्रति (संचरन्तम्) विचरन्तम् (द्रप्सम्)हर्षकारकं परमात्मानम् (जुहोमि) आदत्ते। गृह्णामि (अनु) अनुसृत्य (होत्राः)हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। हु दानादानादनेषु−त्रन्, टाप्। होत्रावाङ्नाम-निघ० १।११। शीर्षण्यच्छिद्ररूपा विषयग्रहीत्रीः शक्तीः ॥
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