अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 12
ऋषिः - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
उद्वे॑पय॒ सं वि॑जन्तां भिया॒मित्रा॒न्त्सं सृ॑ज। उ॑रुग्रा॒हैर्बा॑ह्व॒ङ्कैर्विध्या॑मित्रान्न्यर्बुदे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । वे॒प॒य॒ । सम् । वि॒ज॒न्ता॒म् । भि॒या । अ॒मित्रा॑न् । सम् । सृ॒ज॒ । उ॒रु॒ऽग्रा॒है: । बा॒हु॒ऽअ॒ङ्कै: । विध्य॑ । अ॒मित्रा॑न् । नि॒ऽअ॒र्बु॒दे॒ ॥११.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वेपय सं विजन्तां भियामित्रान्त्सं सृज। उरुग्राहैर्बाह्वङ्कैर्विध्यामित्रान्न्यर्बुदे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । वेपय । सम् । विजन्ताम् । भिया । अमित्रान् । सम् । सृज । उरुऽग्राहै: । बाहुऽअङ्कै: । विध्य । अमित्रान् । निऽअर्बुदे ॥११.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[उन्हें] (उद् वेपय) कँपा दे, (संविजन्ताम्) वे घबड़ाकर चले जावें, (अमित्रान्) अमित्रों को (भिया) भय के साथ (सं सृज) संयुक्त कर। (न्यर्बुदे) हे न्यर्बुदि ! [निरन्तर पुरुषार्थी प्रजागण] (उरुग्राहैः) चौड़ी पकड़वाले (बाह्वङ्कैः) भुज बन्धनों से (अमित्रान्) अमित्रों को (विध्य) बेध ले ॥१२॥
भावार्थ
युद्धचतुर प्रजागण शत्रुओं को पकड़ने और मारने में उत्साह करें ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(उद्वेपय) टुवेपृ कम्पने। उत्कम्पय (संविजन्ताम्) ओविजी भयचलनयोः। व्याकुलीभूय चलन्तु (भिया) भयेन (अमित्रान्) शत्रून् (संसृज) संयोजय (उरुग्राहैः) विस्तृतग्रहणयन्त्रयुक्तैः (बाह्वङ्कैः) अङ्क पदे लक्षणे च-घञ्। भुजबन्धनैः (विध्य) ताडय (अमित्रान्) (न्यर्बुदे) ॥
विषय
उरुग्राहै: बाह्वङ्कैः
पदार्थ
१. हे (न्यर्बुदे) = निश्चय से शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले सेनानि ! (अमित्रान्) = हमारे शत्रुओं को उद्वेपय-आप कम्पित कर दो, (संविजन्ताम्) = वे शत्रु भय से विचलित हो उठे। (भिया संसृज) = इन शत्रुओं को भय से आक्रान्त कर दीजिए। (अरुग्राहै:) = जाँघों के जकड़नेवाले तथा (बाह्वङ्कैः) = बाहुओं को वक्र गतिवाला करनेवाले [कुञ्च to move in a curve] शस्त्रों से (अमित्रान् विध्य) = शत्रुओं को विद्ध कर दो।
भावार्थ
हे सेनानि ! तू शत्रुओं को कम्पित व भयभीत करके दूर भगा दे। इन्हें ऐसे शस्त्रों से आक्रान्त कर जो इनकी जाँघों को जकड़ दें तथा भुजाओं को वक्र गतिवाला कर दें।
भाषार्थ
(न्यर्बुदे) हे शत्रुघातक सेनाधीश्वर! (अमित्रान्) शत्रुओं को (उद् वेपय) कम्पा दे, (संविजन्ताम्) वे सब विचलित हो जांय, (भिया) भय के साथ (संसृज) उन का संसर्ग कर। (अमित्रान्) शत्रुओं को (उरुग्राहैः) टांगो को जंकड़ने वाले अस्त्रों द्वारा तथा (बाह्वङ्कैः) बाहुओ को अङ्कित या वक्र कर देने वाले अस्त्रों द्वारा (विध्य) बीन्ध।
टिप्पणी
[उरुग्राहैः१= उरुग्राहैः उरुणां ग्रहणैः (सायण)। अथर्व ३।२।५ मे "अप्वा" द्वारा शत्रु पक्ष के सैनिकों के अङ्गो जकड़ने का वर्णन "गृहाणाङ्गानि" द्वारा किया है। यथा “अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून्।। अप्वा= अप + वा, चलानेवाले से अपगत हो कर शत्रु की ओर गति करने वाला अस्त्र। बाह्वङ्कै = बाहु बङ्कैः, बाहुना वक्र बन्धनैः (सायण)। बाह्वङ्कै का पदच्छेद = "बाहू + अङ्कै अधिक स्पष्ट है। अतः इस पद के दो अर्थ सम्भव हैं, (१) बाहुओं को बक्र कर देने वाले या टेढ़ा कर देने वाले; तथा (२) बाहुओं को अङ्कित कर देने वाले शस्त्रों या अस्त्रों द्वारा।" अथर्व० ८।३।६ "प्रतीचो बाहून प्रति भङ्ध्येषाम्" द्वारा प्रतिकूल चलने वाले शत्रुओं के बाहुओं को, भग्न कर देने, तोड़ देने का वर्णन हुआ है, जिसे कि "वक्र कर" देना कह सकते हैं। टांगों के जकड़ जाने से शत्रुसैनिक गतिहीन हो जाते हैं, और बाहुओं के वक्र हो जाने पर वे शस्त्रास्त्र का प्रयोग नहीं कर सकते। अतः उन पर आसानी से विजय पा सकते हैं। बाहुओं को अङ्कित अर्थात् चिन्हित करने का प्रयोजन यह है कि उन्हें पराजित कर, जब उन के राष्ट्र में प्रवेश पा लिया जाय, तो अङ्कित बाहुओं वाले सैनिकों को पहचान कर उन्हें उचित दण्ड दिया जा सके]।[१. अथवा विस्तृत पकड़-करने वाले जालों द्वारा पकड़ना भी बींधने के सदृश ही है। "जाल" के लिए देखो अथर्व० (८।९।६-७)।]
विषय
महासेना-संचालन और युद्ध।
भावार्थ
हे (न्यर्बुदे) सेनापते ! महानाग के समान भयानक तू (अमित्रान्) शत्रुओं को (उद्वेपय) कंपा दे। वे (सं विजन्ताम्) भय से मैदान छोड़ कर भाग जायं। उनको (भिया संसृज) भय से युक्त कर। उनके भीतर भय बैठ जाय। और (अमित्रान्) शत्रुओं को (उरुग्राहैः) बड़ी पकड़ वाले (बाह्वङ्कैः) बाहु के समान रूप वाले शस्त्रों से (विध्य) ताड़न कर।
टिप्पणी
‘उरुग्राहैर्बाहुवंकै’ इति सायणाभिमतः पाठः। अर्थात् जंघाओं को पकड़ने या जकड़ने वाले और बाहुओं को बांधने वाले प्रयोगों से शत्रुओं को मार। ‘उरुग्राहैर्बाहुवङ्कैः’ इति सायणाभिमतः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(अभित्रान् उदवेपय) शत्रुओं को कम्पा दे (भिया संसृज) भय से संयुक्त कर (संविजन्ताम्) वे उद्विग्न हो जावें घबरा जावें (न्यर्वुदे े) हे स्फोटकास्त्र प्रयोक्ता सेनानायक जन तू ! (अमित्रान्) शत्रुओं को (उरुग्राहै:) बहुत पकडने वाले (बाह्रङ्कः-विध्य) वाहु जैसे लक्षणों वाले शस्त्रास्त्रो से वीन्ध-तडित कर 'ये बाहवः' (१) पूर्व जैसे कहा है ॥१२॥
विशेष
ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अर्बुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
O Supreme Commander, shake the enemies, dislodge them from their position, strike them with terror, paralyse their movement, freeze their arms with overwhelming force, and fix them under the force of your attack.
Translation
Make thou (them) tremble; let them quake together unite our enemies with fear; with broad-gripping arm-hooks pierce thou our enemies, O Nyarbudi.
Translation
O Nyarbudi, you shake the foes, make them run away, create fear in them and with widely grasping bend of arms crush down these enemies.
Translation
Shake them, and let them run through fear, overwhelm our enemies with dread. With widely grasping bends of arm, O valiant general, crush down our foes!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(उद्वेपय) टुवेपृ कम्पने। उत्कम्पय (संविजन्ताम्) ओविजी भयचलनयोः। व्याकुलीभूय चलन्तु (भिया) भयेन (अमित्रान्) शत्रून् (संसृज) संयोजय (उरुग्राहैः) विस्तृतग्रहणयन्त्रयुक्तैः (बाह्वङ्कैः) अङ्क पदे लक्षणे च-घञ्। भुजबन्धनैः (विध्य) ताडय (अमित्रान्) (न्यर्बुदे) ॥
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