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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    उत्ति॑ष्ठ॒ त्वं दे॑वज॒नार्बु॑दे॒ सेन॑या स॒ह। भ॒ञ्जन्न॒मित्रा॑णां॒ सेनां॑ भो॒गेभिः॒ परि॑ वारय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒ । त्वम् । दे॒व॒ऽज॒न॒ । अर्बु॑दे । सेन॑या । स॒ह । भ॒ञ्जन् । अ॒मित्रा॑णाम् । सेना॑म् । भो॒गेभि॑: । परि॑ । वा॒र॒य॒ ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठ त्वं देवजनार्बुदे सेनया सह। भञ्जन्नमित्राणां सेनां भोगेभिः परि वारय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठ । त्वम् । देवऽजन । अर्बुदे । सेनया । सह । भञ्जन् । अमित्राणाम् । सेनाम् । भोगेभि: । परि । वारय ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवजन) हे विजयी जन ! (अर्बुदे) अर्बुदि [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (सेनया सह) [अपनी] सेना के साथ (उत् तिष्ठ) खड़ा हो। (अमित्राणाम्) अमित्रों की (सेनाम्) सेना को (भञ्जन्) पीसता हुआ तू (भोगेभिः) भोग व्यूहों [साँप की कुण्डली के समान सेना की रचनाओं] से (परि वारय) घेर ले ॥५॥

    भावार्थ

    सेनापति अपनी सेना को अस्त्र-शस्त्रों से सजाकर भोगव्यूह, चक्रव्यूह, दण्डव्यूह, शकटव्यूह आदि बनाकर शत्रुसेना को चूर-चूर करके घेर लेवे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(उत्तिष्ठ) उद्गच्छ (त्वम्) (देवजन) हे विजिगीषुजन (अर्बुदे) म० १। हे शूर सेनापते (सेनया) (सह) (भञ्जन्) आमर्दयन्। चूर्णयन् (अमित्राणाम्) शत्रूणाम् (सेनाम्) (भोगेभिः) भुजो कौटिल्ये-घञ्। भोगैः। सर्पशरीरवत् सेनाव्यूहविशेषैः (परिवारय) सर्वतो वेष्टय ॥

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    विषय

    भोगेभिः परिवारय

    पदार्थ

    १. हे (देवजन) = शत्रु-विजिगीषु पुरुष! (अर्बुदे) = शत्रुसंहारक सेनापते! (त्वम्) = तू (सेनया सह) = सेना के साथ (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ा हो। (अमित्राणाम्) = शत्रुओं की (सेनाम्) = सेना को (भञ्जन्) = आमर्दित करता हुआ-कुचलता हुआ (भोगेभिः परिवारय) = [भोग An army in column] व्यूह में स्थित सेनाओं के द्वारा घेर ले।

    भावार्थ

    सेनापति शत्रुसेना को अपनी व्यूढ सेना के द्वारा घेर ले तथा उसका आमर्दन कर दे-उसे कुचल डाले।

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    भाषार्थ

    (देवजन अर्बुदे) हे विजिगीषु-जन, अर्बुदि! (त्वम्) तू (सेनया सह) सेना के साथ (उत्तिष्ठ) उत्थान कर, और (अमित्राणाम्) शत्रुओं को (सेनाम्) सेना को (भञ्जन्) तोड़ता हुआ, [शत्रु को प्रजा को] (भोगेभिः) भोग की वस्तुओं के द्वारा (परिवाहय) घेर१।

    टिप्पणी

    [सेनापति का यह कर्तव्य है कि वह जब शत्रु राष्ट्र की सेनाओं पर विजय पा ले, तो वह शत्रु राष्ट्र की प्रजा को तंग न करे, अपितु भोग की वस्तुएं दे कर उसे अपने अनुकूल बनाने या यत्न करे]।[१. भोग्य वस्तुएं इतनी दे कि प्रजा भोग्य वस्तुओं से घिर जाय। भोगेभिः, यथा "भोगे रोगभयम्"।]

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    विषय

    महासेना-संचालन और युद्ध।

    भावार्थ

    हे (देवजन अर्बुदे) देवजन ! विजिगीषो ! अर्बुदे सेनानायक ! (त्वं) तू (सेनया सह) सेना के साथ (उत्तिष्ठ) उठ। (अमित्राणां सेनाम्) शत्रुओं की सेना को (भञ्जन्) तोड़ता फोड़ता हुआ (भोगेभिः परिवारय) सांप जिस प्रकार अपने फणों से घेरे लेता है उस प्रकार तू अपने सेना व्यूहों से उनको घेर ले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (देवजन-अर्बुदे) हे विजिगीषु जयेच्छुक विद्युदस्त्रप्रोक्ता सेनाध्यक्ष ! (त्वं सेनया सह-उत्तिष्ठ) तू सेना के साथ उठ (अमित्राणां सेनां भञ्जन्) शत्रुओं की सेना का भञ्जन-मर्दन करने के हेतु (भोगेभिः परिवारय) क्रुद्ध-तीक्ष्ण वैद्युत पार्शी से घेर ले 'आजकल माइन फैलाने जैसे ढंग से "भोजते कुध्यतिकर्मा" [निघ० २।१२] ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अर्बुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Noble and brilliant Commander, Arbudi, rise with the army routing the force of the enemies and bind them into captivity as a snake binds the victim with its coils surrounding it.

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    Translation

    Stand thou up, O god-folk, Arbudi, with the army; beaking (bhanj) the army of our enemies, envelop it with (thy) coils (Bhoga).

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    Translation

    O Arbudi, the wonderful amongst all, you rise with the army and breaking the hosts of the enemies surround them as a snake surrounds the prey with its winding coils.

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    Translation

    Rise, stand up with the army, thou victory-loving general. Breaking the hosts of enemies, surround them with thy winding coils.

    Footnote

    Winding coils: Arrangements of the army in the shape of योगव्यूह, चक्रव्यूह, दण्डव्यूह,शकटव्यूह।

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(उत्तिष्ठ) उद्गच्छ (त्वम्) (देवजन) हे विजिगीषुजन (अर्बुदे) म० १। हे शूर सेनापते (सेनया) (सह) (भञ्जन्) आमर्दयन्। चूर्णयन् (अमित्राणाम्) शत्रूणाम् (सेनाम्) (भोगेभिः) भुजो कौटिल्ये-घञ्। भोगैः। सर्पशरीरवत् सेनाव्यूहविशेषैः (परिवारय) सर्वतो वेष्टय ॥

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