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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 26
    ऋषिः - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    तेषां॒ सर्वे॑षा॒मीशा॑ना॒ उत्ति॑ष्ठत॒ सं न॑ह्यध्वं॒ मित्रा॒ देव॑जना यू॒यम्। इ॒मं सं॑ग्रा॒मं सं॒जित्य॑ यथालो॒कं वि ति॑ष्ठध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेषा॑म् । सर्वे॑षाम् । ईशा॑ना: । उत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । सम् । न॒ह्य॒ध्व॒म् । मित्रा॑: । देव॑ऽजना: । यू॒यम् । इ॒मम् । स॒म्ऽग्रा॒मम् । स॒म्ऽजित्य॑ । य॒था॒ऽलो॒कम् । वि । ति॒ष्ठ॒ध्व॒म् ॥११.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेषां सर्वेषामीशाना उत्तिष्ठत सं नह्यध्वं मित्रा देवजना यूयम्। इमं संग्रामं संजित्य यथालोकं वि तिष्ठध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तेषाम् । सर्वेषाम् । ईशाना: । उत् । तिष्ठत । सम् । नह्यध्वम् । मित्रा: । देवऽजना: । यूयम् । इमम् । सम्ऽग्रामम् । सम्ऽजित्य । यथाऽलोकम् । वि । तिष्ठध्वम् ॥११.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (तेषां सर्वेषाम्) उन सबों के (ईशानाः) शासक होकर, (मित्राः) हे प्रेरक (देवजनाः) विजयी जनो ! (यूयम्) तुम (उत् तिष्ठत) उठो और (संनह्यध्वम्) कवचों को पहिनो। (इमं सङ्ग्रामम्) इस संग्राम को (संजित्य) जीतकर (यथालोकम्) अपने-अपने लोकों [स्थानों] को (वि तिष्ठध्वम्) फैलकर ठहरो ॥२६॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य कर्मकुशल और पुरुषार्थी होकर अपने-अपने कर्तव्य करके अपने-अपने पद पर आनन्दित होवें ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(तेषाम्) (सर्वेषाम्) शत्रूणाम् (ईशानाः) ईश्वराः। नियामकाः सन्तः (उत्तिष्ठत) इत्यादयो व्याख्यातः-म० २। (इमम्) प्रस्तुतम् (सङ्ग्रामम्) युद्धम् (संजित्य) सम्यग् जित्वा (यथालोकम्) स्वस्वस्थानम् (वि तिष्ठध्वम्) समवप्रविभ्यः स्थः। पा० १।३।२˜२। इत्यात्मनेपदम्। विस्तारेण तिष्ठत ॥

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    विषय

    मित्राः देवजनाः

    पदार्थ

    १. (तेषाम्) = उन (सर्वेषाम्) = सब शत्रुओं के (ईशाना:) = शासक होने के हेतु से (उत्तिष्ठत) = उठो और (संनह्यध्वम्) = अपनी कमर कस लो-युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाओ। हे (मित्रा:) = हमारे साथ स्नेहवाले (देवजना:) = शत्रु विजिगीषावाले लोगो! (यूयम्) = तुम सब (इमं संग्राम संजित्य) = इस संग्राम को सम्यक् जीतकर (यथालोकम्) = अपने-अपने स्थान पर, नियत पदों पर (वितिष्ठध्वम्) = विशेषरूप से स्थित होओ।

    भावार्थ

    हम सब मित्र व विजिगीषावाले होते हुए अपने शत्रुओं को परास्त करके ही दम लें। शत्रुविनाश के लिए आवश्यक है कि हम अपना सम्यक् परिपाक करें [प्रस्ज पाके], 'भृगु' बनें और अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले-शक्तिसम्पन्न अङ्गिराः ' बनें। यह भृगु अंगिरा' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (मित्राः, देवजनाः) हे मैत्री पूर्वक व्यवहार करने वाले दिव्यजनो ! (यूयम्) तुम (तेषां सर्वेषाम्) पराजित हुए उन सब लोगों पर (ईशानाः) शासन करने वाले हो, (उत्तिष्ठत) उठो, (संनह्यध्वम्) अपना अपना सामान बान्ध कर तय्यार हो जाओ। (इमं संग्रामम्) इस युद्ध को (संजित्य) जीत कर (यथालोकम्) नियत किये स्थानों में (वि तिष्ठध्वम्) अलग-अलग जा बैठो।

    टिप्पणी

    [त्रिषन्धि, नियत-किये अपने अधिकारियों कहता है कि तय्यारी करो, और पराजित राष्ट्र में अपने-अपने नियत किये स्थानों में जा बैठो, और मैत्री पूर्वक तथा दिव्यभावनाओं के साथ उन पर शासन करो]।

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    विषय

    महासेना-संचालन और युद्ध।

    भावार्थ

    हे (मित्राः) मित्र राजाओ ! और हे (देवजनाः) देवजनो ! विद्वान् योद्धा जनो ! (यूयम्) तुम सब उक्त शत्रुपक्ष के (तेषां सर्वेषम्) उन सब बड़े बड़े ऐश्वर्यशील पुरुषों पर भी (ईशानाः) अपना प्रभुत्व जमाते हुए (उत्तिष्ठत) उठ खड़े होवो, (सं नह्यध्वं) कमर कस के लड़ाई के लिये तैयार हो जाओ। (इमं संग्रामम्) इस संग्राम को (संजित्य) भली प्रकार जीत कर (यथालोकम्) अपने अपने स्थान पर (वि तिष्ठध्वम्) स्थिर रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (तेषां सर्वेषाम्-ईशाना:-मित्राः-देवजनाः) वे सब "सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्" (करने वाले रक्षक प्रेरक अष्टा० ७।१।३६, वा०) स्वामित्व जिगीषुजनों! (यूयम्-उत्तिष्ठत संनह्यध्वम्) तुम उठ खडे हो और शस्त्रास्त्र धारण कर युद्धार्थ तैयार हो जाओ (इमं संग्रामं संजित्य) इस संग्राम को सम्यक् जीत कर (यथालोकं चितिष्ठध्वम्) यथास्थान - अपने अपने शिविर को लौट जाओ ॥२६॥

    विशेष

    ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अबुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    O friends and generous enlightened leaders, rulers and guardians of all these people of the land and the world, rise you all, be ready in harness, bond with these people together, and, having won this battle of war, peace and friendship against enmity, take up your office of duty in accordance with your assignment and order, and there abide, steadfast all.

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    Translation

    Masters (Isana) of them all, stand ye up, equip yourselves, ye friends, god-folks; having wholly conquered in this conflict, scatter ye to your several worlds.

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    Translation

    O friends, O learned men you have your influence on all those men of power. You rise, prepare (to do your best) Celebrating victory over this battle you abide by the sphere and place (where you walk and live).

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    Translation

    Ye friendly kings and learned warriors with full dominion over these, rise, stand ye up, prepare yourselves for battle. Winning this battle, go each to your respective post of duty!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(तेषाम्) (सर्वेषाम्) शत्रूणाम् (ईशानाः) ईश्वराः। नियामकाः सन्तः (उत्तिष्ठत) इत्यादयो व्याख्यातः-म० २। (इमम्) प्रस्तुतम् (सङ्ग्रामम्) युद्धम् (संजित्य) सम्यग् जित्वा (यथालोकम्) स्वस्वस्थानम् (वि तिष्ठध्वम्) समवप्रविभ्यः स्थः। पा० १।३।२˜२। इत्यात्मनेपदम्। विस्तारेण तिष्ठत ॥

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