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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 21
    ऋषिः - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    उत्क॑सन्तु॒ हृद॑यान्यू॒र्ध्वः प्रा॒ण उदी॑षतु। शौ॑ष्का॒स्यमनु॑ वर्तताम॒मित्रा॒न्मोत मि॒त्रिणः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । क॒स॒न्तु॒ । हृद॑यानि । ऊ॒र्ध्व: । प्रा॒ण: । उत् । ई॒ष॒तु॒ । शौ॒ष्क॒ऽआ॒स्यम् । अनु॑ । व॒र्त॒ता॒म् । अ॒मित्रा॑न् । मा । उ॒त । मि॒त्रिण॑: ॥१९.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्कसन्तु हृदयान्यूर्ध्वः प्राण उदीषतु। शौष्कास्यमनु वर्तताममित्रान्मोत मित्रिणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । कसन्तु । हृदयानि । ऊर्ध्व: । प्राण: । उत् । ईषतु । शौष्कऽआस्यम् । अनु । वर्तताम् । अमित्रान् । मा । उत । मित्रिण: ॥१९.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [शत्रुओं के] (हृदयानि) हृदय (उत् कसन्तु) उकस जावें [हिल जावें], (प्राणः) प्राण [श्वास-प्रश्वास] (ऊर्ध्वः) ऊँचा होकर (उत् ईषतु) चढ़ जावे। (शौष्कास्यम्) मुख की सुखाई (अमित्रान् अनु) शत्रुओं को (वर्तताम्) व्यापे, (उत) और (मित्रिणः) [हमारे लिये] मित्र रखनेवाले जनों को (मा) न [व्यापे] ॥२१॥

    भावार्थ

    जो लोग अपने मित्रों सहित हमारे सहायक होते हैं, उन वीरों के भय से शत्रुदल व्याकुल होकर कष्ट पावें और धर्मात्मा लोग सुख पावें ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(उत् कसन्तु) कस गतौ। उद्गच्छन्तु (हृदयानि) अन्तःकरणानि (ऊर्ध्वः) उच्चगतिः सन् (प्राणः) श्वासप्रश्वासव्यापारः (उदीषतु) ईष गतौ। निर्गच्छतु (शौष्कास्यम्) शुष्कास्यता। मुखस्य निर्द्रवत्वम् (अनु) प्रति (वर्तताम्) व्याप्यताम् (अमित्रान्) पीडकान् (मा) निषेधे (उत) अपि च (मित्रिणः) मित्र-इनि। अस्मभ्यं मित्राणि सन्ति येषां तान् जनान्-अनु-वर्ततामिति शेषः ॥

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    विषय

    शत्रुओं के दिलों का दहल जाना

    पदार्थ

    १. शत्रुओं के (हृदयानि) = हृदय (उत्कसन्तु) = शरीर से उद्गत हो जाएँ-उखड़ जाएँ। (प्राण:) = इन शत्रुओं का प्राणवायु (ऊर्ध्वः उदीषतु) = शरीर से ऊपर उठकर निकल जाए। (अमित्रान्) = शत्रुओं को (शौष्कास्यम्) = भय के कारण मुख का सूख जाना [निर्द्रवत्वम्] (अनुवर्तताम्) = अनुगत [प्राप्त] हो। उत-इसके विपरीत [On the other hand] (मित्रिण: मा) = हमारे मित्रभूत लोगों को आस्यशोष आदि प्रास न हो।

    भावार्थ

    हमारे शत्रुओं के दिल उखड़ जाएँ, उनके प्राण शरीर से निकलने को हों और आस्य [मुख] शोषण से वे मृत्यु को प्राप्त हों। हमारे मित्रों की ऐसी स्थिति न हो।

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    भाषार्थ

    (हृदयानि) शत्रुओं के हृदय अर्थात् धैर्य (उत्कसन्तु) टूट जांय, या शरीरों से उद्गत हो जाय, निकल जांय [उत् +कसि (गतौ)] (प्राणः) प्राण (ऊर्ध्वः) उठकर (उदीषतु) ऊपर की वायु में चला जाय। (अमित्रान्) शत्रुओं को, (अनु) तत्पश्चात् (शौष्कास्यम्) मुख का सूखापन (वर्तताम्) प्राप्त हो, अर्थात् उन के मुख सूख जांय, मुरझा जाय (उत) और (मित्रिणः) मित्रों के मुख (मा) न सूखें, अपितु प्रसन्न हों।

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    विषय

    महासेना-संचालन और युद्ध।

    भावार्थ

    (हृदयानि) शत्रुओं के हृदय (उत्कसन्तु) उखड़ जांय। (उर्ध्वः प्राणः उद् ईषतु) ऊपरी प्राण शरीर को छोड़ कर निकल जाय। (अमित्रान्) शत्रुओं को (शौष्कास्यम् अनु वर्तताम्) गला सूख सूख कर रह जाने का कष्ट हो। परन्तु यह कष्ट (मित्रिणः) मित्रों को (मा उत) कभी न हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (हृदयानि उत्कसन्तु) 'अमित्राणाम्, इति पूर्वमन्त्रात्' शत्रुओं के हृदय उखड जावें (ऊर्ध्वः प्राणः-उदीषतु ) ऊपर हुआ प्राण-श्वास ऊपर उड जावे (शौष्कास्यम्) 'आस्यस्य शौष्कयम्' सूखा मुखपना 'राजदन्तादिषु परम्' मुख का सूखापन (अमित्रान् अनुवर्तताम् ) शत्रुओं को अनुवर्तित हो - अनुगत हो- प्राप्त हो (उत मा मित्रिणः) अपितु मित्रवाले जिनके हम मित्र हैं उनके मित्रपक्षीय जनों को मुख का सूखापन न प्राप्त हो ॥२१॥

    विशेष

    ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अर्बुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Let their hearts break up and their breath go up and out. Let the mouths of the unfriendly be dry and parched, but not so of the friends.

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    Translation

    Let thier hearts burst open (ut-kas), their breath pass up aloft; let dryness of mouth follow after our enemies (and) not those who are friendly.

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    Translation

    Let their hearts burst assumder, let the vital breath fly up and pass away. Let the enemies go dry mouthed and let not dryness take over friendly ones.

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    Translation

    Let their hearts burst asunder, let their breath fly up and pass out of the body. Let dryness of the mouth overtake our foes, but not the friendly ones.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(उत् कसन्तु) कस गतौ। उद्गच्छन्तु (हृदयानि) अन्तःकरणानि (ऊर्ध्वः) उच्चगतिः सन् (प्राणः) श्वासप्रश्वासव्यापारः (उदीषतु) ईष गतौ। निर्गच्छतु (शौष्कास्यम्) शुष्कास्यता। मुखस्य निर्द्रवत्वम् (अनु) प्रति (वर्तताम्) व्याप्यताम् (अमित्रान्) पीडकान् (मा) निषेधे (उत) अपि च (मित्रिणः) मित्र-इनि। अस्मभ्यं मित्राणि सन्ति येषां तान् जनान्-अनु-वर्ततामिति शेषः ॥

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