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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 18
    ऋषिः - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    उद्वे॑पय॒ त्वम॑र्बुदे॒ऽमित्रा॑णाम॒मूः सिचः॑। जयां॑श्च जि॒ष्णुश्चा॒मित्राँ॒ जय॑ता॒मिन्द्र॑मेदिनौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । वे॒प॒य॒ । त्वम् । अ॒र्बु॒दे॒ । अ॒मित्रा॑णाम् । अ॒मू: । सिच॑: । जय॑न् । च॒ । जि॒ष्णु: । च॒ । अ॒मित्रा॑न् । जय॑ताम् । इन्द्र॑ऽमेदिनौ ॥११.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वेपय त्वमर्बुदेऽमित्राणाममूः सिचः। जयांश्च जिष्णुश्चामित्राँ जयतामिन्द्रमेदिनौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । वेपय । त्वम् । अर्बुदे । अमित्राणाम् । अमू: । सिच: । जयन् । च । जिष्णु: । च । अमित्रान् । जयताम् । इन्द्रऽमेदिनौ ॥११.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (अमूः) उन (सिचः) सेचनशील [उमड़ती हुई सेनाओं] को (उत् वेपय) कँपा दे। (जयन्) जीतता हुआ [प्रजागण] (च च) और (जिष्णुः) विजयी [राजा], (इन्द्रमेदिनौ) जीवों के स्नेही आप दोनों (अमित्रान्) वैरियों को (जयताम्) जीतें ॥१८॥

    भावार्थ

    परस्पर प्रसन्नचित्त प्रजागण और राजगण शत्रुओं की सहायक सेनाओं को तुरन्त जीत लेवें ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(उत्) उत्कर्षेण (वेपय) म० १२। कम्पय (त्वम्) (अर्बुदे) म० १। शूर सेनापते राजन् (अमित्राणाम्) शत्रूणाम् (अमूः) दृश्यमानाः (सिचः) षिच आर्द्रीकरणे-क्विप्। सेचनशीलाः सहायिकाः सेनाः (जयन्) सांहितिको दीर्घः। पराभावयन् प्रजागणः (जिष्णुः) जयशीलः सेनापतिः (च) (अमित्रान्) शत्रून् (जयताम्) पराभावयताम् (इन्द्रमेदिनौ) म० ४। जीवानां स्नेहिनौ राजप्रजागणौ ॥

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    विषय

    जयाँश्च जिष्णुश्च

    पदार्थ

    १. हे (अर्बुदे) = शत्रुसंहारक सेनापते! (त्वम्) = तू (अमित्राणाम्) = शत्रुओं की (अमू: सिच:) = उन सेना-पंक्तियों को [सेना के प्रान्तभागों को] (उद्वेपय) = कम्पित कर दे। (जयान् च) = जीतता हुआ (च) = और (जिष्णुः) = जीतने के स्वभाववाला-ये दोनों (इन्द्रमेदिनौ) = प्रभु के साथ स्नेहवाले होते हुए (जयताम्) = विजय प्राप्त करें।

    भावार्थ

    हमारे सेनापति शत्रुसैन्य को कम्पित करें। हमारे ये अर्बुदि और न्युर्बुदि राजा के साथ स्नेहवाले होते हुए सदा जीतते हुए हों, जीतने के स्वभाववाले हों। ये शत्रुओं को पराजित करें।

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    भाषार्थ

    (अर्बुदे) हे शत्रुघातक सेनापति! (त्वम्) तू (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (अमूः) उन (सिचः) गर्व से सिक्त हुई, सींची हुई सेनाओं को (उद्वेपय) कम्पा दे। (अमित्रान्) शत्रुओं को (जयान्= जयन्) जीतता हुआ तू, (च जिष्णुः) और जीतने के स्वभाव वाला न्यर्बुदि, तुम दोनों (इन्द्रमेदिनौ) जो कि सम्राट् के साथ स्नेह करने वाले हो, (जयताम्) विजयी होवो।

    टिप्पणी

    [सिचः = गर्व अर्थात् अभिमान से संसिक्त। उत्सेकः = अभिमान। सिचः का अर्थ "कपड़े के किनारे" भी होता है। यथा “ये अन्ता यावतीः सिचो य ओतवो ये च तन्तवः" (अथर्व० १४।२।५१) इस अर्थ में मन्त्र “सिचः" का अर्थ होगा “युद्ध भूमि के दूर के किनारों, सीमाओं तक फैली हुई सेनाएं।]

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    विषय

    महासेना-संचालन और युद्ध।

    भावार्थ

    हे (अर्बुदे) अर्बुदे ! (त्वम्) तू (अमित्राणां) शत्रुओं की (अमूः) उन दूर खड़ी (सिचः) सेना पंक्तियों को (उद्वेपय) कपां दे। और इस प्रकार स्वयं (जिष्णुः) विजय करने हारा विजिगीषु राजा (अमित्रान्) शत्रुओं को (जयान्) विजय करे और (इन्द्रमेदिनौ) इन्द के मित्र अर्बुदि और न्यर्बुदि दोनों सेनापति भी (जयताम्) विजय करें।

    टिप्पणी

    ‘अमूः शुचः’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (न्यर्बुदे) हे विद्युदस्त्र प्रयोक्ता सेनाध्यक्ष ! (त्वम् अमि त्राणाम् अमूः सिचः) तू शत्रुओं की उन संग्राम में शस्त्र वर्षा करने वाली सेनाओं को (उदुवेपय) कम्पादे (जयन् जिष्णुः च) जय करता हुआ और जयशील दोनों (इन्द्रमेदिनौ) राजा को स्निग्ध करने वाले राजा के प्यारे अदि और न्युर्बुदि मेढ़ा तोप दौलताबाद किले में हैदराबाद में है। विद्युदस्त्रप्रोक्ता और स्फोटकास्त्र प्रयोक्ता दोनों (अमित्रान् जयताम्) शत्रुओं को जीतें ॥१८॥

    टिप्पणी

    रावण के दश शिर, हनुमान् की पूंछ, आज कल हस्ति सेना श्रड़कोश में स्फोटक पदार्थ आदि " यन्त्रवृषभ " आरे अघा को वित्था ददर्श यं युञ्जन्ति तम्वास्थापयन्ति । नास्मै तृणं नोदकमा भरन्त्युत्तरो धुरो वहति प्रदेदिशत् ॥ (ऋ० १०/१०२/१०)

    विशेष

    ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अबुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    O Commander, shake up with terror those allied forces of the enemies. O Nyarbudi, Supreme Commander, eager for victory and victorious, friends and allies of Indra, the ruler, defeat and rout the enemy forces.

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    Translation

    Do thou, O Arbudi, make to tremble yonder lines (sic) of our enemies; let both the conquering one and the conqueror, allied with Indra, conquer our enemies.

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    Translation

    O Arbudi You make those wings of hostile armies quake with dread and fear. Let the victorious kind conquer the foemen and let both the commanding chief and sub-commanding chief who are the friend of king celebrate victory over enemies.

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    Translation

    Make thou, O valiant general, those wings of hostile armies quake with dread. Let Conqueror and victor friends of Indra, overcome our foes.

    Footnote

    Conqueror and Victor: Arbudi, Nyarbudi, Indra: King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(उत्) उत्कर्षेण (वेपय) म० १२। कम्पय (त्वम्) (अर्बुदे) म० १। शूर सेनापते राजन् (अमित्राणाम्) शत्रूणाम् (अमूः) दृश्यमानाः (सिचः) षिच आर्द्रीकरणे-क्विप्। सेचनशीलाः सहायिकाः सेनाः (जयन्) सांहितिको दीर्घः। पराभावयन् प्रजागणः (जिष्णुः) जयशीलः सेनापतिः (च) (अमित्रान्) शत्रून् (जयताम्) पराभावयताम् (इन्द्रमेदिनौ) म० ४। जीवानां स्नेहिनौ राजप्रजागणौ ॥

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