Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 9 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 17
    ऋषिः - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    चतु॑र्दंष्ट्राञ्छ्या॒वद॑तः कु॒म्भमु॑ष्काँ॒ असृ॑ङ्मुखान्। स्व॑भ्य॒सा ये चो॑द्भ्य॒साः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चतु॑:ऽदंष्ट्रान् । श्या॒वऽद॑त: । कु॒म्भऽमु॑ष्कान् । असृ॑क्ऽमुखान् । स्व॒ऽभ्य॒सा: । ये । चे॒ । उ॒त्ऽभ्य॒सा: ॥११.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुर्दंष्ट्राञ्छ्यावदतः कुम्भमुष्काँ असृङ्मुखान्। स्वभ्यसा ये चोद्भ्यसाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतु:ऽदंष्ट्रान् । श्यावऽदत: । कुम्भऽमुष्कान् । असृक्ऽमुखान् । स्वऽभ्यसा: । ये । चे । उत्ऽभ्यसा: ॥११.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (चतुर्दंष्ट्रान्) चार डाढ़ोंवालों [बड़े हाथियों] और (श्यावदतः) काले दातोंवाले, (कुम्भमुष्कान्) कुम्भसमान [घड़ा समान बड़े] अण्डकोशवाले (असृङ्मुखान्) रुधिरमुखों [सिंह आदि जीवों] को (च) और (ये) जो (स्वभ्यसाः) स्वभाव से भयानक [और जो] (उद्भ्यसाः) ऊपरी [आकार से] भयानक हैं [उनको, कँपा दे म० १८] ॥१७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (उत् वेपय) [कँपा दे] क्रिया पद-मन्त्र १८ से आता है। राजा भयानक हिंसक जीवों और उनके समान दुष्ट मनुष्यों को राज्य से हटाकर प्रजापालन करें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(चतुर्दंष्ट्रान्) चतुर्दन्तान् महागजान् (श्यावदतः) श्यामवर्णदन्तयुक्तान् (कुम्भमुष्कान्) कुम्भाकृतिमुष्कयुक्तान् (असृङ्मुखान्) रुधिरमुखान् सिंहादीन् (स्वभ्यसाः) भ्यस भये-घञर्थे क प्रत्ययः। स्वेन आत्मना स्वभावेन भयानकाः (ये) (च) (उद्भ्यसाः) ऊर्ध्वप्रकारेण भयानकाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विविध मायावी प्रयोग

    पदार्थ

    १. (खडूरे) = आकाश के दूरदेश में (अधि) = ऊपर (चक्रमाम्) = चक्रमणशील-इधर-उधर प्रादुर्भूत होती हुई (खर्विकाम्) = छोटी-छोटी (खर्ववासिनीम्) = कुछ चीखती-सी हुई[वासयते to scream] माया को तू शत्रुओं को दिखा। (ये) = जो (उदारा:) = विशाल योजनाएँ हैं, उन्हें शत्रुओं के लिए प्रदर्शित कर (च) = और (ये अन्तर्हिता:) = जो भीतर छिपे हुए (गन्धर्वाप्सरस:) = पृथिवी का धारण करनेवाले [गां धारयन्ति] व जलों में विचरनेवाले [अप्सु सरन्ति] (सर्पा:) = कुटिल चालवाले, (इतरजना:) = अन्य लोग हैं, (रक्षांसि) = राक्षसी वृत्तिवाले क्रूर लोग हैं, उन्हें तू शत्रुओं के लिए दिखला। २. (चतुर्दष्ट्रान् श्याबदतः कुम्भमुष्कान्) = चार-चार दाड़ोंवाले, काले-काले दाँतोवाले, घड़े के समान बड़े-बड़े अण्डकोशोंवाले (असृङ्मुखान्) = रुधिर लिप्त मुखोंवाले भंयकर रूपों को शत्रुओं को दिखा। (ये च) = और जो (स्वभ्यसा:) = स्वयं भयंकर (उभ्यसा:) = दूसरों में भय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, उन्हें शत्रुओं को दिखा।

    भावार्थ

    शत्रुओं को भयभीत करने के लिए विविध मायावी प्रयोगों का प्रदर्शन किया किया जाए |

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (चतुदंष्ट्रान्) चार दाढ़ों वाले वाणों को, (श्यावदतः) श्याव अर्थात् काले लोहमय दान्तों अर्थात् कोनों वाले बाणों को, (कुम्भमुष्कान्१) कुम्भ अर्थात् घड़े के सदृश मोटे तथा बलिष्ठ योद्धाओं को, (असृङ्मुखान्) जिन के मुखों अर्थात् अग्रभाग इतने तीक्ष्ण हैं जो कि शत्रु के शरीर में घुस कर मानो उस का रक्त पीते हैं ऐसे वाणों को, (स्वभ्यसाः) जो निजस्वरूप में भयानक हैं वे योद्धा, (उद्भ्यसाः) जो उन से भी समुन्नत अवस्था के भयानक है वे योद्धा,-[उन्हें प्रदर्शय (१५) प्रदर्शित कर]।

    टिप्पणी

    [दंष्ट्रा= चबाने वाले तीखे दान्त अर्थात् दाढ़ें। दन्त शब्द बाण के अग्रभाग का भी वाचक है। दन्तः२ = the point of an arrow (आप्टे)। कंधे की अग्र भागों को भी दन्त कहते हैं। अथर्व० (१४।२।६८) में "शतदन् कण्टकः" द्वारा १०० दान्तों वाले कण्टक अर्थात् कंधे का वर्णन हुआ है। अथर्व (८।३।२) में अग्नि को "अयोदंष्ट्र" कहा है। अयोदंष्ट्रः= लोहे से निर्मित दंष्ट्रा वाले बाणों के सदृश विघातक अग्नि। श्यावदतः = काले के दान्त वाले बाण। इन्हें "अयोमुखाः" भी कहा है (अथर्व ११।१०।३) अर्थात् जिन के मुखों अर्थात् अग्रभागों में लोहा लगा है ऐसे वाण। लोहा काला होता है, और श्याव का अर्थ काला भी है। कुम्भमुष्कान् = मुष्कः = A musaular or robust man (आप्टे) अर्थात् मांसल और बलवान् मनुष्य। स्वभ्यसाः = स्व + भ्यस् (भये) +कः "(घञर्थे कविधानम्)"। उद्भ्यसाः= समुन्नत-भ्यसाः, जो कि निज स्वरूप में तो भयानक है, परन्तु साथ ही शस्त्रास्त्रधारी भी हैं]। [१. मुष्कः= मुष्टण्डे। मुष्कः = A muscular or robust man (आप्टे)। २. "इषु" के सम्बन्ध में कहा है कि "सुपर्ण वस्ते मृगो अस्या दन्तोः" (ऋ० ६।७५।११)। निरुक्त में कहा है कि "मृगमयो अस्या दन्तः" (९।२।१८; खण्ड १४), अर्थात् इषु का दन्त मृगमय है, मृग के सींग द्वारा निर्मित है। इस लिये इषु के अग्रभाग में लगी तीक्ष्ण वस्तु को भी "दन्त" कहा है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    महासेना-संचालन और युद्ध।

    भावार्थ

    (खडूरे) आकाश में दूर तक (चंकमाम्) जाने वाली (खर्विकाम्) खर्व रूप वाली, छोटी सी (खर्ववासिनीम् = खर्ववाशिनीम्) विकृत शब्द करने वाली माया को भी दर्शा। (ये) जो (उदाराः) ऊपर चमत्कारकारी पदार्थ (अन्तर्हिताः) भीतर छिपे हुए हों और (ये) जो (गन्धर्वाप्सरसश्च) वे गन्धर्व और अप्सराएं, नवयुवक और रूपवती स्त्रियें और (सर्पाः इतरजनाः रक्षांसि) नाग, इतरजन, नीच भयंकर लोग और राक्षस, क्रूर लोग इन सब को समय समय पर दर्शा। और माया से ही (चतुर्दष्ट्रान्) चार चार दाढ़ों वाले, (श्यावदतः) काले काले दांतों वाले, (कुम्भमुष्कान्) घड़े के समान बड़े बड़े अण्डकोशों वाले, (असृङ्मुखान्) मुंह में लहू लिये हुए नाना भयंकर ऐसे रूपों को दिखा (ये) जो (स्वभ्यसाः) स्वयं भयंकर और (उद्भयसाः) दूसरों में भय उत्पन्न करने में समर्थ हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (चतुर्दष्टान्) चार दंष्ट्र वाले (श्यावदतः) काले दान्तों वाले (कुम्भमुष्कान्) घडे जैसे अण्डकोश वाले (असृङमुखान्) रक्त मुख वाले (च) और (स्वभ्यसाः) अपना भय रखने वाले (च) और (उद्भयसाः) दूसरे पर भय डालने वाले उन ऐसे पशु आकृति वालों तोप आदि धातुओं को प्रदर्शित कर† ॥१७॥

    विशेष

    ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अबुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Display the four-pronged, steel tipped, deadly weapons, and virile, irresistible, fearsome warriors of veteran high standing.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The four-tusked ones, the black-toothed, the pot-testicled, the blood-faced; they that are self-frighting and frighting.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    (Also make them see) All who are armed with four fangs and who have block teeth, who have the jug-shaped testicles, whose faces are smeared with blood, who are terrible and fearless.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Shake the animals armed with four fangs and yellow teeth, with scrotum big like a pitcher, bloody mouthed lions, and persons terrible in nature and awe-inspiring in appearance.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(चतुर्दंष्ट्रान्) चतुर्दन्तान् महागजान् (श्यावदतः) श्यामवर्णदन्तयुक्तान् (कुम्भमुष्कान्) कुम्भाकृतिमुष्कयुक्तान् (असृङ्मुखान्) रुधिरमुखान् सिंहादीन् (स्वभ्यसाः) भ्यस भये-घञर्थे क प्रत्ययः। स्वेन आत्मना स्वभावेन भयानकाः (ये) (च) (उद्भ्यसाः) ऊर्ध्वप्रकारेण भयानकाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top