अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
उत्ति॑ष्ठत॒ सं न॑ह्यध्वं॒ मित्रा॒ देव॑जना यू॒यम्। संदृ॑ष्टा गु॒प्ता वः॑ सन्तु॒ या नो॑ मि॒त्राण्य॑र्बुदे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । सम् । न॒ह्य॒ध्व॒म् । मित्रा॑: । देव॑ऽजना: । यू॒यम् । सम्ऽदृ॑ष्टा । गु॒प्ता । व॒: । स॒न्तु॒ । या । न॒: । मि॒त्राणि॑ । अ॒र्बु॒दे॒ ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठत सं नह्यध्वं मित्रा देवजना यूयम्। संदृष्टा गुप्ता वः सन्तु या नो मित्राण्यर्बुदे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । सम् । नह्यध्वम् । मित्रा: । देवऽजना: । यूयम् । सम्ऽदृष्टा । गुप्ता । व: । सन्तु । या । न: । मित्राणि । अर्बुदे ॥११.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मित्राः) हे प्रेरक (देवजनाः) विजयी जनो ! (यूयम्) तुम (उत् तिष्ठत) उठो और (सम् नह्यध्वम्) कवचों को पहिनो। (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! [शूर सेनापति-म० १] (या) जो (नः) हमारे (मित्राणि) मित्र हैं, [वे सब] (वः) तुम लोगों के (संदृष्टा) देखे हुए और (गुप्ता) रक्षिता (सन्तु) होवें ॥२॥
भावार्थ
सेनापति राजा आदि अपने विजयी वीर सैनिकों और सहायक मित्रों को सावधान और अस्त्र-शस्त्रों से सजाकर निरीक्षण करें और व्यूहरचना से उन की रक्षा करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(उत्तिष्ठत) उद्गच्छत (संनह्यध्वम्) संनाहान् कवचान् धारयत (मित्राः) डुमिञ् प्रक्षेपणे−क्त्र। हे प्रेरकाः (देवजनाः) विजिगीषुलोकाः (यूयम्) (संदृष्टा) सम्यङ् निरीक्षितानि (गुप्ता) रक्षितानि (वः) युष्माकम् (सन्तु) (या) यानि (नः) अस्माकम् (मित्राणि) सुहृद्गणाः (अर्बुदे) म० १। हे शूर सेनापते ॥
विषय
उत्थान व सन्नाह
पदार्थ
१. हे (मित्रा:) = [मिञ् प्रक्षेपणे] शत्रुओं का प्रक्षेपण करनेवाले (देवजना:) = [दिव् विजिगीषायाम्] विजय की कामनावाले लोगो! (यूयं उत्तिष्ठत) = आप सब उठ खड़े होओ, (संनहाध्वम्) = युद्ध के लिए संनद्ध हो जाओ। २. हे (अर्बुदे) = शत्रु का संहार करनेवाले सेनापते! (या नः मित्राणि) = जो भी हमारे मित्र शत्रुओं के विरोध में लड़ने के लिए आये हैं, वे व:-तुम सब देवजनों से [तृतीयार्थे षष्ठी] (संदृष्टा:) = सम्यक् निरीक्षित व (गुप्ताः सन्तु) = सुरक्षित हों।
भावार्थ
मित्र, देवजन उद्यत होकर और सम्यक् सन्नद्ध होकर हमारे शत्रुओं से युद्ध करें। हमारे मित्रों का वे रक्षण करें।
भाषार्थ
(देवजनाः मित्राः) हे मित्र विजिगीषु सैनिक जनो! (उत्तिष्ठत) उठो, (संनह्यध्वम्) अपने-आप को शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करो। (अर्बुदे) हे हिंसा में कुशल सेनापति! (नः) हमारे (या मित्राणि) मित्र हैं, और हे मित्रो! (वः) तुम्हारे जो मित्र है, अर्थात् हमारे जो मित्रों के मित्र हैं वे, (संदृष्टा) कुछ को शत्रुओं की दृष्टि में लाओ, और कुछ को (गुप्ता सन्तु) गुप्त रखो।
टिप्पणी
[यदि युद्ध के लिये बाधित ही होना पड़े तो युद्ध की तय्यारी करनी चाहिये। युद्ध के लिये मित्रों और मित्रों के मित्र राष्ट्रों की सहायता भी लेनी चाहिये। अपनी पूरी सैनिक शक्ति को युद्ध भूमि में न ला खड़ा करना चाहिये। कुछ युद्ध भूमि में लाने चाहियें, शेष गुप्त रखने चाहिये। संदृष्टा, गुप्ता= संदृष्टानि गुप्तानि मित्राणि। देवजनाः= दिवु विजिगीषा]।
विषय
महासेना-संचालन और युद्ध।
भावार्थ
हे (मित्राः) मित्र राष्ट्र के नृपतियो ! और हे (देवजनाः) विद्वान् राजा लोगो ! (यूयम्) तुम सब लोग (उत्तिष्ठत) उठ खड़े होओ, (सं नह्यध्वम्) एक साथ बंध जावो, संगठित हो जाओ, तैयार हो जाओ। हे (अर्बुदे) हे लक्षों सेनाओं के पति ! (या नः मित्राणि) जो हमारे मित्र लोग हैं (वः) और जो तुम्हारे मित्र लोग हैं, वे सब (संदृष्टाः) भली प्रकार दृष्टिगोचर रहते हुए भी (गुप्ताः सन्तु) खूब सुरक्षित हो कर रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(अर्बुदे मित्राः देवजना:) हे विद्युदस्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष ! तथा अस्त्र प्रेरक विजिगीषु-विजयेच्छुक नायक जनो! "दिवु क्रीडाविजिगीषा" [दिवादि०] (यूयम् उत्तिष्ठत) तुम उठो-उठ खडे हो ( संनह्यध्वम्) युद्धार्थ सन्नद्ध हो जाओ- तैयार हो जाओ (वः) 'युष्माभिः तृतीयार्थे षष्ठी' तुम्हारे द्वारा (न:-या मित्राणि) हमारे 'यान्यानि' जो मित्र-स्नेही सैनिक जन (सन्दृष्टा) 'सन्दृष्टानि' सम्यक देखभाल में वर्तमान तथा (गुप्ता) 'गुप्तानि' सुरक्षित (सन्तु) होवें- रहें ॥२॥
विशेष
ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अर्बुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
Rise, take up arms, all you friends and forces of the noble order. O Commander, O friends of ours, let some of you be seen in prominence, and let others, in reserve, be unseen.
Translation
Stand up, equip ye yourselves (sam-nah). O friends, god- folk; beheld, concealed of you be (those) who are our `- friends, O Arbudi
Translation
O friends of the nation, O wonderful amongst people! You all arise and prepare, with all drop of your might, your selves (in your undertakings). O Commanding Chief! Let your mysterious nature be seen by them who are the friends of us, the subjects.
Translation
Arise, prepare for war, ye friendly, victorious soldiers. O Commander- in-chief let our friends be well looked after and protected by thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(उत्तिष्ठत) उद्गच्छत (संनह्यध्वम्) संनाहान् कवचान् धारयत (मित्राः) डुमिञ् प्रक्षेपणे−क्त्र। हे प्रेरकाः (देवजनाः) विजिगीषुलोकाः (यूयम्) (संदृष्टा) सम्यङ् निरीक्षितानि (गुप्ता) रक्षितानि (वः) युष्माकम् (सन्तु) (या) यानि (नः) अस्माकम् (मित्राणि) सुहृद्गणाः (अर्बुदे) म० १। हे शूर सेनापते ॥
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